शहरी नक्सलियों पर हुई कार्रवाई तो तिलमिला उठे मानवाधिकार कार्यकर्ता

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लाल आतंक के खिलाफ सरकार की कड़ी कार्रवाई के चलते वाम चरमपंथियों का दायरा तेजी से सिमटता जा रहा है। इसी वजह से यह शहरी नक्सली चिंतित हो गये और केंद्र सरकार के बड़े नेताओं के खिलाफ ही साजिश रचने लगे।

माओवादी नेताओं द्वारा कथित तौर पर आदान-प्रदान किए गए दो पत्रों से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और गृह मंत्री राजनाथ सिंह की हत्या की योजना इंगित होने के बाद कई राज्यों में नक्सलियों के खिलाफ पुलिस कार्रवाई हुई और नक्सलियों से संदिग्ध जुड़ाव होने के कारण उनमें से पांच की गिरफ्तारी हुई है। इन गिरफ्तारियों के विरोध में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वामपंथी नेताओं के साथ ही कांग्रेस भी कूद पड़ी है। गिरफ्तारियों के विरोध में इन लोगों की ओर से एक बार फिर देश में ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ गयी है, लोकतंत्र खतरे में पड़ गया है, आपातकाल जैसे हालात हो गये हैं और विरोधी रुख रखने वालों का दमन किया जा रहा है...आदि आदि।

शहरी नक्सली आखिर मोदी के खिलाफ क्यों हैं?

लाल आतंक के खिलाफ सरकार की कड़ी कार्रवाई के चलते वाम चरमपंथियों का दायरा तेजी से सिमटता जा रहा है। इसी वजह से यह शहरी नक्सली चिंतित हो गये और केंद्र सरकार के बड़े नेताओं के खिलाफ ही साजिश रचने लगे। इन्हें पता है कि यदि वर्तमान सरकार दोबारा सत्ता में आई तो पूरी तरह से सफाया निश्चित है इसीलिए कथित रूप से प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और भाजपा अध्यक्ष पर हमले की योजना बनाई गई। उल्लेखनीय है कि देश में नक्सलवाद का दायरा तेजी के साथ सिमट रहा है। 2015 में देशभर में 106 जिले नक्सल प्रभावित थे जबकि 2017 में इनकी संख्या घटकर 90 रह गई। अभी कुल 11 राज्यों में नक्सलियों का प्रभाव माना जाता है।

वनों में छिपे नक्सलियों से ज्यादा खतरनाक हैं ये शहरी नक्सली

नक्सलियों से जुड़ाव रखने वाले जिन लोगों की गिरफ्तारी हुई है उनके शैक्षिक प्रोफाइल और चेहरे पर मत जाइये, यह शहरी और पढ़े लिखे नक्सली किस तरह आदिवासी क्षेत्रों में जाकर लोगों को सरकार के खिलाफ भड़काते हैं, विकास की परियोजनाओं में व्यवधान पैदा करते हैं इसके अनेकों उदाहरण हैं। इनका उद्देश्य यही रहता है कि उद्योग धंधे पिछड़े क्षेत्रों में नहीं पहुँच पाएं। यदि कोई परियोजना लगे तो स्थानीय लोगों को जमीन और संस्कृति छिन जाने का भय दिखाकर विरोध करवाओ और विरोध को इतना भड़काओ कि पुलिस गोलीबारी में कुछ लोग मारे जायें, सरकार मुश्किल में पड़ जाये और आखिरकार परियोजना को वापस ले ले। जो नक्सली वनों में छिप कर बंदूकों और बमों से हमले कर रहे हैं उनसे घातक ये शहरी नक्सली हैं क्योंकि यह लोगों को नक्सलवाद की ओर मोड़ते हैं और उनके दिमाग में सिर्फ बम और बंदूक की बात भर देते हैं। भीमा-कोरेगांव मामला एक बड़ा उदाहरण है कि कैसे भड़काऊ बयानों से हिंसा भड़काई जाती है और सरकार के खिलाफ आंदोलनों की राह आसान की जाती है।

फिर से सामने आ गये निर्लज्ज मानवाधिकार कार्यकर्ता

अपने ही मानवाधिकार की चिंता करने वाले तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ता एक बार टीवी चैनलों, ट्वीटर, फेसबुक पर दिखाई पड़ रहे हैं। अरूंधती रॉय ने कहा, ‘‘ये गिरफ्तारियां उस सरकार के बारे में खतरनाक संकेत देती हैं जिसे अपना जनादेश खोने का डर है, और दहशत में आ रही है। बेतुके आरोपों को लेकर वकील, कवि, लेखक, दलित अधिकार कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को गिरफ्तार किया जा रहा है...हमें साफ-साफ बताइए कि भारत किधर जा रहा है।’’ सिविल लिबर्टिज कमेटी के अध्यक्ष गद्दम लक्ष्मण ने भाजपा सरकार पर आरोप लगाया है कि वह बुद्धिजीवियों को शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित कर रही है। वहीं वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने ट्वीट किया, ‘‘फासीवादी फन अब खुल कर सामने आ गए हैं।’’ उन्होंने कहा, ‘‘यह आपातकाल की स्पष्ट घोषणा है। वे किसी भी असहमति के खिलाफ हैं।’’ चर्चित इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने पुलिस की कार्रवाई को ‘‘काफी डराने वाला’’ करार दिया और उच्चतम न्यायालय के दखल की मांग की ताकि आजाद आवाजों पर ‘‘अत्याचार और उत्पीड़न’’ को रोका जा सके। गुहा ने ट्वीट किया, ‘‘सुधा भारद्वाज हिंसा और गैर-कानूनी चीजों से उतनी ही दूर हैं जितना अमित शाह इन चीजों के करीब हैं।'' इन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की चीख पुकार इन गिरफ्तारियों के विरोध में तो सुनने को मिल रही है लेकिन यह मानवाधिकार कार्यकर्ता तब कहां चले जाते हैं जब नक्सली इलाकों में छिप कर किये गये हमलों में हमारे सुरक्षा बल शहीद होते हैं, जम्मू-कश्मीर में आजादी के नारे लगाये जाते हैं, सैनिकों को पत्थर और गोली मारी जाती है।

कांग्रेस के बयान से हुई निराशा

मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वामपंथी नेताओं को इन गिरफ्तारियों से तिलमिलाहट होगी, यह बात समझ आती है लेकिन कांग्रेस का इन गिरफ्तारियों के विरोध में उतरना चौंकाता है। कांग्रेस को यह नहीं भूलना चाहिए कि एक राजनीतिक दल के रूप में वामपंथी हिंसा की सबसे बड़ी शिकार वही है। उसे नहीं भूलना चाहिए कि नक्सली हमले में उसकी छत्तीसगढ़ इकाई के सभी शीर्ष नेता मारे गये थे। अब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कह रहे हैं कि ‘न्यू इंडिया’ में एकमात्र एनजीओ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएससए) के लिए जगह है। उन्होंने सरकार पर कटाक्ष करते हुए कहा, ‘‘दूसरे सभी एनजीओ को बंद कर दो। सभी कार्यकर्ताओं को जेल भेज दो और शिकायत करने वालों को गोली मार दो। न्यू इंडिया में स्वागत है।'' कांग्रेस अध्यक्ष को यह बयान देने से पहले अपनी सरकारों के दौरान माओवादी कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के मामलों पर ध्यान देना चाहिए था। यदि कांग्रेस शासन के दौरान वर्ष 2009 में माओवादी नेता कोबाड गांडी और उसके बाद दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर जीएन साई बाबा जैसे माओवादी चिंतकों की गिरफ्तारी हुई तो इसके पीछे क्या कारण थे? यही नहीं कांग्रेस अध्यक्ष को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि किस तरह आतंकवादियों ने उनके पिता पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और दादी इंदिरा गांधी की जान ली थी।

गिरफ्तारियों के कारण क्या हैं और क्या धाराएं लगायी गयी हैं?

अभी जो गिरफ्तारियां और छापे मारे गये हैं उनका संबंध पिछले साल 31 दिसंबर को एल्गार परिषद के एक कार्यक्रम के बाद पुणे के पास कोरेगांव-भीमा गांव में दलितों और उच्च जाति के पेशवाओं के बीच हुई हिंसा की घटना से है। पुलिस के मुताबिक हैदराबाद में तेलुगू कवि वरवर राव, मुंबई में कार्यकर्ता वेरनन गोन्जाल्विस और अरूण फरेरा, फरीदाबाद में ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज और दिल्ली में सिविल लिबर्टीज के कार्यकर्ता गौतम नवलखा के आवासों में तकरीबन एक ही समय पर तलाशी ली गयी। तलाशी के बाद राव, भारद्वाज, फरेरा, गोन्जाल्विस और नवलखा को आईपीसी की धारा 153 (ए) के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। यह धारा धर्म, नस्ल, जन्म स्थान, आवास, भाषा के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच वैमनस्य को बढ़ावा देने और सौहार्द बनाए रखने में बाधा डालने वाली गतिविधियों से संबद्ध है। 

इन लोगों पर आईपीसी की कुछ अन्य धाराएं और उनकी कथित नक्सली गतिविधियों को लेकर गैर कानूनी गतिविधि (रोकथाम) कानून की धाराएं भी लगाई गईं हैं। झारखंड में आदिवासी नेता फादर स्तान स्टेन स्वामी के परिसरों में भी तलाशी ली गई लेकिन उन्हें हिरासत में नहीं लिया गया है। यह भी कहा जा रहा है कि जिन अन्य लोगों के आवास में छापे मारे गए, उनमें सुसान अब्राहम, क्रांति टेकुला और गोवा में आनंद तेलतुंबदे शामिल हैं।

मोदी के खिलाफ साजिश से भी जुड़ी हैं गिरफ्तारियां

यह कार्रवाई जून में की गई छापेमारी के ही समान है जब भीमा-कोरेगांव हिंसा की घटना के सिलसिले में पांच कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया था। एल्गार परिषद के सिलसिले में जून में गिरफ्तार किए गए पांच लोगों में एक के परिसर में ली गई तलाशी के दौरान पुणे पुलिस ने एक पत्र बरामद होने का दावा किया था, जिसमें राव के नाम का जिक्र था। विश्रामबाग थाने में दर्ज एक प्राथमिकी के मुताबिक इन पांच लोगों पर माओवादियों से करीबी संबंध रखने का आरोप है। साथ ही यह गिरफ्तारियां वर्ष 2016 के पत्र की जांच से जुड़े सिलसिले का भी परिणाम भी हैं। उस पत्र से प्रतीत होता है कि मोदी, शाह और राजनाथ सिंह की हत्या के बारे में नक्सलियों के बीच विचार-विमर्श हुआ। वहीं 2017 के पत्र से इस योजना का खुलासा हुआ कि रोड शो के दौरान राजीव गांधी हत्या की तरह मोदी पर हमला किया जाए। इस प्रगति से अवगत एक सुरक्षा अधिकारी के मुताबिक दूसरा पत्र ‘‘कॉमरेड प्रकाश’’ के नाम पर था और इसे दिल्ली में रह रहे नक्सली रोना विल्सन के आवास से छह जून को पाया गया था।

मानवाधिकार कार्यकर्ता जरा इन बातों पर गौर करें

इस साल अप्रैल में पुणे पुलिस ने माओवादी नेता की ओर से लिखे गए एक कथित पत्र को जब्त किया था जिसमें देश में विभिन्न नक्सल गतिविधियों के लिए प्रतिष्ठित तेलुगू कवि वरवरा राव के कथित ‘मार्गदर्शन’ के लिए उनकी तारीफ की गई थी। कॉमरेड मिलिंद द्वारा हिन्दी में लिखे पत्र में राव की तारीफ करते हुए उन्हें ‘वरिष्ठ कॉमरेड’ बताया गया है। पत्र में कहा गया है, ''पिछले कुछ महीनों के दौरान वरिष्ठ कॉमरेड वरवर राव और हमारे कानूनी सलाहकार कॉमरेड वकील सुरेंद्र गाडलिंग की विभिन्न गतिविधियों में मार्गदर्शन की वजह से हमें राष्ट्रीय स्तर पर अच्छा प्रचार मिला है।’’ 

क्या है कोरेगांव-भीमा मामला

कोरेगांव-भीमा, दलित इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। वहां करीब 200 साल पहले एक बड़ी लड़ाई हुई थी, जिसमें पेशवा शासकों को एक जनवरी 1818 को ब्रिटिश सेना ने हराया था। अंग्रेजों की सेना में काफी संख्या में दलित सैनिक भी शामिल थे। इस लड़ाई की वर्षगांठ मनाने के लिए हर साल पुणे में हजारों की संख्या में दलित समुदाय के लोग एकत्र होते हैं और कोरेगांव भीमा से एक युद्ध स्मारक तक मार्च करते हैं। पुलिस के मुताबिक इस लड़ाई की 200वीं वर्षगांठ मनाए जाने से एक दिन पहले 31 दिसंबर को एल्गार परिषद कार्यक्रम में दिए गए भाषण ने हिंसा भड़काई।

बहरहाल, इन गिरफ्तारियों की आलोचना करने की बजाय पुलिस को अपना काम करने देना चाहिए। यह देश आतंक और किसी भी तरह के उग्रवाद और हिंसा से मुक्त रहे इसकी चिंता सिर्फ पुलिस को ही नहीं करनी है बल्कि राजनीतिक दलों को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। किसी भी गिरफ्तारी की आलोचना करने से पहले राजनीतिक दल यह जरूर देख लें कि सिर्फ वोटों की राजनीति करके वह देश को नुकसान तो नहीं पहुँचा रहे हैं।

-नीरज कुमार दुबे

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