एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे ईरान और इजराइल कभी गहरे दोस्त भी थे

ईरान ने इज़राइल को उसकी स्थापना के बाद सार्वजनिक रूप से तत्काल मान्यता नहीं दी थी, लेकिन 1950 में इज़राइल को "डि-फैक्टो" मान्यता दे दी गई थी। इसका मतलब था कि दोनों देशों ने औपचारिक रूप से दूतावास नहीं खोले, लेकिन व्यावसायिक और कूटनीतिक संबंध धीरे-धीरे स्थापित होते रहे।
ईरान और इजराइल एक दूसरे के खून के प्यासे बने हुए हैं। दोनों के बीच इस समय जो वार-पलटवार चल रहा है उसको देखते हुए ऐसा लगता है कि दुनिया में एक-दूसरे के यही सबसे बड़े दुश्मन देश हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि दशकों से एक दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोले हुए ईरान और इजराइल कभी गहरे मित्र भी थे? वैसे ईरान और इजराइल की मित्रता की बात भले कोरी कल्पना लगे लेकिन इतिहास इस दोस्ती का गवाह है। हम आपको बता दें कि 1948 में जब इज़राइल की स्थापना हुई थी तब बहुत से मुस्लिम बहुल देशों ने उसे मान्यता देने से इंकार कर दिया था। लेकिन उस दौर में ईरान एक अपवाद था। यह बात आज के ईरान-इज़राइल संबंधों को देखते हुए चौंकाने वाली लग सकती है, लेकिन 1948 से 1970 के बीच ईरान और इज़राइल के बीच गहरे परन्तु छुपे हुए मैत्री संबंध थे, जो कूटनीति, सैन्य सहयोग और व्यापार पर आधारित थे।
वैसे ईरान ने इज़राइल को उसकी स्थापना के बाद सार्वजनिक रूप से तत्काल मान्यता नहीं दी थी, लेकिन 1950 में इज़राइल को "डि-फैक्टो" मान्यता दे दी गई थी। इसका मतलब था कि दोनों देशों ने औपचारिक रूप से दूतावास नहीं खोले, लेकिन व्यावसायिक और कूटनीतिक संबंध धीरे-धीरे स्थापित होते रहे। इस मैत्री के पीछे कारण था साम्य हित। दरअसल दोनों की स्थिति उस समय अरब राष्ट्रों से घिरे हुए देशों की थी। यह दोनों अरब देशों के दुश्मन थे इसीलिए इनके बीच एक रणनीतिक साझेदारी की जरूरत महसूस हुई।
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हम आपको यह भी बता दें कि इज़राइल और उस समय के ईरान के शाह (मोहम्मद रज़ा पहलवी), दोनों ही अमेरिका और पश्चिमी शक्तियों के करीबी माने जाते थे। यह एक और कारण था जो दोनों देशों को एक-दूसरे के करीब लाया। इसके अलावा, इज़राइल को तेल की ज़रूरत थी, जोकि ईरान के पास भरपूर मात्रा में था। इस साझेदारी के ज़रिए इज़राइल को गुप्त रूप से तेल की आपूर्ति होती रही। इसके बदले में इज़राइल ने ईरान को कृषि, जल प्रबंधन और तकनीकी मदद दी। 1950-70 के दशक में ईरान में शाह मोहम्मद रजा पहलवी की सरकार के दौरान इजराइल ने तेल के बदले ईरान को हथियार भी दिए थे।
इसके अलावा, इज़राइल की खुफिया एजेंसी मोसाद और ईरान की सवाक (SAVAK) के बीच भी घनिष्ठ सहयोग था। मोसाद ने सवाक को खुफिया ट्रेनिंग दी और तकनीकी उपकरण भी उपलब्ध कराए। यह सहयोग विशेष रूप से 1960 के दशक में मजबूत हुआ। साथ ही "Trident" परियोजना एक गुप्त योजना थी जिसमें इज़राइल और ईरान ने मिलकर मिसाइल टेक्नोलॉजी और सैन्य शोध पर काम किया। साथ ही इज़राइली विशेषज्ञों ने ईरान में कृषि सुधार, सिंचाई प्रणाली और जल प्रबंधन से जुड़ी परियोजनाओं में भी अहम भूमिका निभाई।
हम आपको बता दें कि 1970 के दशक में यह संबंध अपने चरम पर था, लेकिन ईरान में इस्लामी आंदोलन के जोर पकड़ने के साथ इसमें दरार आने लगी। शाह के शासन के खिलाफ जनता में असंतोष बढ़ता जा रहा था और 1979 की इस्लामी क्रांति इस मैत्री का अंत लेकर आई। शाह मोहम्मद रजा पहलवी को सत्ता से हटाकर आयतुल्ला खामेनेई के नेतृत्व में ईरान में एक धार्मिक सरकार बनते ही इजराइल को दुश्मन घोषित कर दिया गया। इसके साथ ही इजराइल के दूतावास को बंद करके उसे फिलिस्तीनी संगठन PLO को दे दिया गया। इजराइल को इस्लाम का भी दुश्मन घोषित करने के बाद ईरान ने हिजबुल्ला और हमास को मदद देनी शुरू की जोकि आज तक जारी है।
वैसे इस तरह की भी रिपोर्टें समय-समय पर आती रहीं कि ईरान और इजराइल के बीच दुश्मनी के दौर में भी गुप्त रूप से कारोबार चलता रहा। बताया जाता है कि 1980 में जब ईरान और इराक के बीच जंग हुई, तो इजराइल को महसूस हुआ कि इराक ज्यादा खतरनाक है। इसलिए अमेरिका और इजराइल ने गुपचुप तरीके से ईरान को लड़ने के लिए हथियार भेजे थे। लेकिन जब 1990 के दशक में ईरान ने अपना परमाणु कार्यक्रम शुरू किया तो इजराइल ने उसे सबक सिखाने की ठान ली और अब जब तेहरान परमाणु बमों के निर्माण से चंद कदम ही दूर रह गया था तो इजराइल ने बड़ा हमला करते हुए आयतुल्ला खामेनेई के सपनों को तोड़ डाला। इजराइल ने सीधा हमला करने से पहले ईरान के हमास और हिज्बुल्ला जैसे सहयोगियों की कमर तोड़ी और पिछले कुछ महीनों में कई अभियानों के माध्यम से अपनी मारक क्षमता को भी परखा, उसके बाद यह बड़ी कार्रवाई की गयी।
बहरहाल, देखा जाये तो 1948 से 1970 तक का ईरान-इज़राइल संबंध एक ऐसा अध्याय है जो आज के उथल-पुथल भरे पश्चिम एशिया की राजनीति में लगभग भुला दिया गया है। इस काल में दोनों देशों के बीच गहरे रणनीतिक और आर्थिक संबंध थे, जो आज की स्थिति को देखते हुए विरोधाभासी प्रतीत होते हैं। वैसे ईरान और इज़राइल का वह गुप्त मैत्री संबंध इस बात का प्रमाण है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति में स्थायी दोस्त और दुश्मन नहीं होते, केवल हित और परिस्थितियाँ ही दोस्त या दुश्मन बनाती हैं।
-नीरज कुमार दुबे
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