योगी के प्रयासों के बावजूद कोरोना काल में UP में चरमरा गयी है स्वास्थ्य सेवाएँ

yogi adityanath
अजय कुमार । Aug 22 2020 3:33PM

कोरोना का इलाज जिन अस्पतालों में सबसे अच्छी तरीके से होता है वहां आम आदमी पहुंच ही नहीं पाता है। कोरोना को लेकर योगी सरकार ने जो गाइडलाइन तय की है, उसके अनुसार मरीज की स्थिति देखकर तय किया जाता है कि उसे किस अस्पताल में भर्ती किया जाना है।

कोरोना महामारी के खिलाफ लड़ाई को लेकर योगी सरकार की प्रतिबद्धता किसी से छिपी नहीं है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कोरोना से निपटने के लिए हर समय ‘एक्टिव मोड’ में रहते हैं। इलाज के लिए पैसे की कमी को आड़े नहीं दिया जा रहा है। कोरोना जांच का दायरा लगातार बढ़ाया जा रहा है। अस्पतालों में बिस्तर की संख्या में भी वृद्धि की गई है, ताकि सबको समय पर इलाज मिल सके, लेकिन कोरोना है कि कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है, बल्कि इसका प्रकोप बढ़ता ही जा रहा है। वहीं इससे निपटने के लिए सरकारी अस्पतालों में दवाई, रैपिड एंटिजन किट, पीपीई किट, ऑक्सीजन तक का टोटा बना हुआ है। हालत यह है कि तीमारदारों से छोटी-छोटी चीजें और दवाएं मंगाई जाती हैं। सैनिटाइजर और मास्क खरीद के नाम पर लूट हो रही है। ‘तीन का माल 13 में’ खरीदा जा रहा है।

हालात यह हैं कि कोरोना का इलाज जिन अस्पतालों में सबसे अच्छी तरीके से होता है वहां आम आदमी पहुंच ही नहीं पाता है। कोरोना को लेकर योगी सरकार ने जो गाइड लाइन तय की है, उसके अनुसार मरीज की स्थिति देखकर यह तय किया जाता है कि उसे कहां किस अस्पताल में भर्ती किया जाना है। यूपी में अति गंभीर मरीजों के लिए लखनऊ के प्रतिष्ठित केजीएमयू, एसजीपीजीआई और डॉ. राम मनोहर लोहिया को मान्यता मिली हुई है, लेकिन यहां गंभीर नहीं पहुंच वाले मरीजों की ही भर्ती हो पाती है। भले ही पहुंच वाले मरीज में मामूली लक्षण हों, लेकिन उसे भर्ती कर लिया जाता है, जो कोरोना गाइड लाइन के बिल्कुल खिलाफ है।

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मेडिकल और पैरामेडिकल स्टाफ की मनमानी के चलते हालात इसलिए और भी गंभीर होते जा रहे हैं, क्योंकि इस समय कोरोना पीक पर चल रहा है। चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े तमाम लोगों का कहना है कि यूपी में कोरोना गांवों में भी पैर पसारने लगा है। कोरोना संक्रमित मरीज शहरी आबादी में ही नहीं हैं, बल्कि ग्रामीण इलाकों में भी बड़ी तादाद में मिल रहे हैं। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि विभिन्न जिलों के प्रशासन ग्रामीण इलाकों में भी कंटेनमेंट जोन बड़ी संख्या में बना रहे हैं। प्रदेश के पांच जिले- अयोध्या, बाराबंकी, रायबरेली, सीतापुर और सुलतानपुर से यह जानकारी सामने आ रही है कि इन जिलों की शहरी तहसील में तो कंटेनमेंट जोन ज्यादा हैं, लेकिन ग्रामीण तहसीलों में भी कंटेनमेंट जोन कम नहीं हैं।

उक्त जिलों के ग्रामीण इलाकों से यह बात भी सामने निकल कर आ रही है कि पहले तो दूसरे राज्यों से गांव-गांव प्रवासी श्रमिकों की वजह से संक्रमण फैला था। उसके बाद लॉकडाउन खत्म होने के बाद शहर में नौकरी करने या सामान लेने गए ग्रामीण जब गांव पहुंचे तो उन्होंने अपने साथ ही गांव के और लोगों को भी संक्रमित कर दिया। गांवों में संक्रमण फैलने की एक अन्य वजह यह भी सामने आ रही है कि अनलॉक होने से लक्षण विहीन संक्रमित व्यक्ति गांवों के अन्य घरों में आ-जा रहे हैं। इसके चलते गांवों में बुजुर्ग पुरुष व महिलाएं संक्रमित हो रही हैं। चूंकि शहरों की अपेक्षा गांवों में टेस्टिंग और कांट्रैक्ट ट्रेसिंग बेहद कम हो रही है। इसलिए संक्रमण थम नहीं पा रहा है।

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सवाल यही है कि योगी सरकार की तमाम कोशिशों के बाद भी कोरोना नियंत्रित क्यों नहीं हो पा रहा है? आम जनता की बात छोड़िए, योगी सरकार के कई मंत्री भी कोरोना की चपेट में आ चुके हैं। दो मंत्रियों- कमला रानी और चेतन चैहान को तो जान तक से हाथ छोना पड़ गया। एक तरफ सरकार और उसकी नौकरशाही शानदार तरीके से कोरोना से निपटने के लिए अपनी पीठ थपथपा रही है तो दूसरी तरफ कोरोना मरीज अस्पतालों में जगह नहीं मिल पाने के कारण अस्पताल के बाहर दम तोड़ रहे हैं। ऐसा लगता है कि कोरोना की जंग लड़ते-लड़ते चिकित्सक, स्वास्थ्य कर्मी, कोरोना वॉरियर्स सब के सब पूरी तरह से थक चुके हैं। इसीलिए खीझ और थकान के चलते यह लोग कोरोना पीड़ितों के साथ अमानवीय व्यवहार करने से भी बाज नहीं आ रहे हैं। बड़ी लड़ाई जीतने के लिए तैयारी भी बड़े स्तर पर की जानी चाहिए, लेकिन लगता यही है कि बीच रास्ते में ही योगी के ‘कर्मयोगी’ हांफने लगे हैं। यह स्थिति उत्तर प्रदेश के दूरदराज के क्षेत्रों की नहीं लखनऊ की है।

अगर ऐसा न होता तो लखनऊ के जिलाधिकारी को यह सख्त आदेश नहीं देना पड़ता कि कोविड-19 की ड्यूटी कर रहे डॉक्टर और पैरामेडिकल स्टाफ अब सीएमओ की अनुमति के बिना न छुट्टी ले सकेंगे, न नौकरी छोड़ पाएंगे। जिलाधिकारी ने साफ कहा है कि यदि कोई इसके खिलाफ आचरण करते हुए छुटटी लेता है या फिर नौकरी छोड़ता है तो उसके खिलाफ राष्ट्रीय आपदा मोचन अधिनियम के तहत कार्रवाई होगी। डीएम ने यह भी कहा कि मेडिकल और पैरामेडिकल स्टाफ की लापरवाही के कई मामले सामने आ चुके हैं। इसी कारण सभी कर्मचारियों के लिए आदेश जारी करना पड़ा है।

जिलाधिकारी की चिंता हकीकत के काफी करीब है। क्योंकि लगातार इस तरह की खबरें आती रहती हैं कि कोरोना मरीज को भर्ती करने में सरकारी अस्पताल का स्टाफ मनमाना रवैया अपनाता है। कोरोना मरीज के भर्ती के लिए बने प्रोटोकॉल को तार-तार किया जा रहा है। कोरोना मरीज को भर्ती होने से लेकर इलाज की पूरी प्रक्रिया के दौरान बुरी तरह से लूटा जाता है। यह सिलसिला अस्पताल से लेकर शमशान तक जारी रहता है।

इसकी बानगी हाल में तब देखने को मिली जब 28 वर्ष के एक युवा मयंक जायसवाल ने लखनऊ के प्रतिष्ठित विवेकानंद अस्पताल में इलाज नहीं मिलने के चलते दम तोड़ दिया। मयंक कोरोना पॉजिटिव था, गंभीर हालत में उसे जिला बलरामपुर से लखनऊ लाया गया था। लखनऊ आने से पूर्व मयंक का इलाज गोण्डा में एक निजी क्लीनिक में चल रहा था। जहां हालात बिगड़ने पर वहां के डॉक्टर ने उसे डॉ. राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान, लखनऊ के लिए रेफर कर दिया था। नियमानुसार मयंक की हालात को देखते हुए उसे लोहिया अस्पताल में इलाज मिलना चाहिए था, लेकिन यहां के डॉक्टरों ने बेड खाली नहीं होने की बात कह कर उसे रामकृष्ण मिशन दारा संचालित विवेकानंद अस्पताल, निराला नगर में मैमो बनाकर रेफर कर दिया गया। किस अस्पताल में कितने बेड खाली हैं, यह आकड़ा ऑनलाइन रहता है, इसलिए गलती की कोई गुंजाइश नहीं बनती है, लेकिन यहां भी मयंक के साथ मजाक किया गया। यहां के स्टाफ ने उसे भर्ती करने से मना कर दिया। इस पर मयंक के घर वालों ने सीएमओ से सम्पर्क साधा तो वहां से जवाब मिला कि आप विद्या अस्पताल चले जाएं। तभी विवेकानंद में भर्ती लाइन में खड़े कुछ लोगों ने बताया कि वह स्वयं विद्या अस्पताल से वापस आ रहे हैं। वहां तो इलाज के नाम पर लूटखसोट चल रही रही है। उधर, मयंक का ऑक्सीजन सिलेंडर खत्म हो गया था। मयंक के परिवार वालों के काफी हाथ-पैर जोड़ने पर किसी तरह विवेकानंद में उसे (मयंक को) भर्ती कर लिया गया। भर्ती के साथ ही करीब 20 हजार रूपए भी जमा करा लिए, लेकिन मुश्किल से 15-20 मिनट में डॉक्टरों ने मयंक को मृत घोषित कर दिया। डॉक्टरों की लापरवाही से मयंक की जान चली गई, लेकिन अस्पताल स्टाफ का कलेजा फिर भी नहीं पसीजा। मयंक की बॉडी देने से पहले पीपीई किट और बॉडी पैक करने के बैग के नाम पर अस्पताल ने 2450 रूपए और जमा करा लिए। इसके बाद भी करीब चार घंटे के बाद मयंक का शव घर वालों को सौंपा गया। यहां तक की बॉडी ले जाने के लिए मयंक के परिवार को प्राइवेट एम्बुलेंस तक मंगानी पड़ी। मयंक की बॉडी जब शमशान घाट पहुंची तो वहां भी मानवता शर्मशार होती दिखी। मयंक के घर वालों से यहां भी दो पीपीई किट मंगवाई गईं, लेकिन मयंक को इलेक्ट्रानिक चिता पर लिटाने तक का काम परिवार वालों से ही कराया गया।

यह घटना तो एक बानगी भर है। इस तरह के तमाम और उदाहरण भी पेश किए जा सकते हैं। हर तरफ परेशानी ही परेशानी का मंजर है। अब आइवरमेक्टिन टैबलेट को ही ले लीजिए। सीएमओ द्वारा इस टैबलेट को कोरोना मरीज के इलाज के लिए कारगर बताए जाने के बाद इसकी कालाबाजारी शुरू हो गई है। लब्बोलुआब यह है कि जब तक आप का वास्ता किसी अस्पताल से नहीं पड़ता है, तब तक आप सरकारी दावों के आधार पर यह कह सकते हैं कि यूपी में कोरोना के इलाज की बेहतर सुविधाए मिल रही हैं, लेकिन अगर दुर्भाग्य से आप या आपका कोई करीबी कोरोना पॉजिटिव हो जाता है तो वह मेडिकल और पैरामैडिकल स्टाफ के रवैये से तंग आकर मौत तक मांगने लगता है।

-अजय कुमार

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