ये क्या कालाधन वापस लाएंगे जो अपनी विदेशी फंडिंग को छिपा रहे हैं

Lok Sabha Passes Amendment Exempting Scrutiny Of Foreign Poll Funding

यह जगजाहिर है कि भाजपा और कांग्रेस को ही विदेशों से सर्वाधिक चंदा मिला और 2014 में दिल्ली हाईकोर्ट इन दोनों ही पार्टियों को फॉरेन कंट्रीब्यूशन रेग्युलेशन एक्ट (FCRA) के उल्लंघन का दोषी करार दे चुका है।

कालाधन रखने वालों पर शिंकजा कसने और कालाधन वापस लाने का वादा करने वाली मोदी सरकार शायद अपने वादे को भूल गयी है। लोकसभा चुनावों के समय भाजपा ने भले कांग्रेस पर हजारों करोड़ रुपये के घोटाले करने का आरोप लगाया था लेकिन आज शायद दोनों ही पार्टियों ने अंदर ही अंदर सुलह कर ली है एक दूसरे के कालाधन को छिपाने के लिए। इसकी बानगी हाल ही में लोकसभा में वित्त विधेयक को हंगामे के बीच पारित करने के दौरान देखने को मिली। इस बार का बजट बिना किसी चर्चा के 25 मिनट में पारित कर दिया गया और वित्त विधेयक में 21 संशोधन किये गये जिनमें विदेशी चंदा (विनियमन) अधिनियम 2010 भी शामिल था। इस संशोधन के चलते 1976 के बाद से अब तक राजनीतिक दलों द्वारा विदेशों से लिये गये चंदों के मामलों की जांच नहीं की जा सकती।

भाजपा और कांग्रेस ही हैं नियमों के उल्लंघन की दोषी

यह जगजाहिर है कि भाजपा और कांग्रेस को ही विदेशों से सर्वाधिक चंदा मिला और 2014 में दिल्ली हाईकोर्ट इन दोनों ही पार्टियों को फॉरेन कंट्रीब्यूशन रेग्युलेशन एक्ट (FCRA) के उल्लंघन का दोषी करार दे चुका है। उस समय दोनों पार्टियों ने फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी और 2016 में कानून में एक संशोधन के जरिये दोनों पार्टियां जांच के खतरे से बाहर आ गयी थीं। हालांकि मामले में कानूनी पेंच यह था कि 2016 में किया गया संशोधन 2010 से लागू होता। दोनों पार्टियों को इस बात का डर सता रहा था कि 2010 से पहले का कोई मामला यदि अदालत में पहुँच गया तो फिर मुश्किल हो जायेगी। शायद इसीलिए अंदरखाने कोई मिलीभगत हुई और हंगामे के बीच विदेशी चंदा (विनियमन) अधिनियम 2010 में संशोधन को पारित कर दिया गया। अब इन दोनों पार्टियों को 1976 से मिले विदेशी चंदों के मामलों की कोई जाँच नहीं हो पायेगी। गौरतलब है कि FCRA कानून 1976 में ही बना था।

अपनों को मलाई दूसरों पर कड़ाई

सामाजिक संस्थाओं को यदि विदेशों से कोई आर्थिक मदद लेनी होती है तो FCRA के तहत मंजूरी लेने के लिए कड़े नियम हैं और उन हासिल की गई आर्थिक मदद पर लगातार निगाह भी रखी जाती है कि वह पैसा कहाँ खर्च हो रहा है। यह भी देखा जाता है कि वह आर्थिक मदद किसी ऐसे व्यक्ति या संगठन को तो नहीं हस्तांतरित की गई जिसे FCRA मंजूरी हासिल नहीं है। यही नहीं आपको बहुत से ऐसे संगठन शिकायत करते हुए मिल जाएंगे जिनको FCRA मंजूरी के लिए आवेदन किये तीन से चार साल हो गये हैं लेकिन फाइल लटकी हुई है। अभी पिछले साल नवंबर में ही केंद्र सरकार ने टैक्स रिटर्न नहीं दाखिल करने पर 11,319 NGO की FCRA मान्यता खत्म कर दी थी। केंद्र सरकार के इस फैसले से विदेशी चंदा प्राप्त करने की अनुमति वाले गैर-लाभकारी संगठनों की संख्या 20,500 रह गयी है जो वर्ष 2010 में FCRA के तहत पंजीकृत 42,500 संगठनों की आधी भी नहीं है। साल 2015 में भी गृह मंत्रालय ने 10,000 गैर सरकारी संगठनों के FCRA पंजीकरण रद्द कर दिये थे। लेकिन जब बड़े राजनीतिक दलों की विदेशी फंडिंग पर जाँच की आंच आई तो कानून में ही संशोधन कर दिया गया।

पारदर्शिता की बात करते हैं लेकिन खुद को पारदर्शी नहीं बनाते

सरकारी कामों में पारदर्शिता लाने के दावे और वादे करने वाले हमारे राजनीतिक दल आखिर क्यों अपने दल के संचालन से जुड़े मामलों में पारदर्शिता नहीं लाना चाहते? क्यों विदेशी फंडिंग के स्रोतों को बताना नहीं चाहते? क्यों नहीं राजनीतिक दल आरटीआई के दायरे में आना चाहते? आखिर क्यों नहीं चुनावों से संबंधित रणनीतिक निर्णयों को छोड़कर, राजनीतिक दलों के सभी प्रशासनिक फैसले और उनको मिलने वाली फंडिंग सार्वजनिक होनी चाहिए? सवाल एक और भी है कि यह बीड़ा उठाएगा कौन? जब हमाम में सभी नंगे हैं तो पहल करे कौन? अन्ना हजारे के आंदोलन से उपजी आम आदमी पार्टी ने इस सवाल को बड़ी गंभीरता से उठाया था तो लोगों को आस जगी थी लेकिन जब खुद आम आदमी पार्टी को मिलने वाली फंडिंग संदेह के घेरे में आ गयी तो लोगों की आखिरी उम्मीद भी टूट गयी। कुछ सर्वेक्षणों में यह बात उभर कर आई थी कि राजनीतिक दलों की आय का सिर्फ 20 प्रतिशत धन ही चंदे से आता है, ऐसे में यह सवाल तो उठेगा ही कि बाकी का पैसा कहां से आता है? राजनीतिक दलों की होने वाली बड़ी-बड़ी रैलियों, जनसभाओं, 3डी जनसभाओं, सोशल मीडिया पर होने वाले प्रचार के लिए आखिर पैसा कहां से आता है? क्या वाकई चुनाव में भ्रष्टाचार का पैसा और कालाधन ही लगता है?

अगला कदम क्या होगा?

देश की दोनों बड़ी पार्टियों ने मिलकर अपने कालेधन को छिपा लिया तो अब अगला संभावित कदम क्या होगा? क्या अब कानून बनाकर या अध्यादेश लाकर अपने दागी नेताओं को बचाया जायेगा? संप्रग सरकार भी दागी नेताओं को चुनाव लड़ने से रोकने के खिलाफ अध्यादेश लाकर विवाद में फँस चुकी है। हो सकता है कि भाजपा सरकार भी कुछ ऐसा ही अध्यादेश या कानून लेकर आ जाये क्योंकि राजनीतिक दलों की चिंता बढ़ाते हुए हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने दोषी नेताओं को राजनीतिक दल चलाने और उनका नेतृत्व करने से रोकने की मांग करने संबंधी जनहित याचिका पर सरकार और निर्वाचन आयोग से जवाब मांगा है। अभी दागी नेता चुनाव नहीं लड़ सकते हैं लेकिन पार्टी के पदों को सुशोभित कर सकते हैं। यदि अदालत ने दागी नेताओं को पार्टी पद लेने से भी रोक दिया तो कांग्रेस और भाजपा सहित अनेकों पार्टियों के सभी बड़े पद सूने हो जाएंगे। हो सकता है कि सरकार या बड़े राजनीतिक दल इस पर भी मिलकर कुछ आगे का रास्ता निकाल लें।


हंगामे में अपने अलावा जनता के भी काम करा लें

संसद में लगातार हंगामा भी शायद प्रायोजित ही है ताकि पार्टियों के लाभ से जुड़े मामले जनता की नजरों में आने से बच जाएं। यहां सवाल यह भी है कि संसद में हंगामे के बीच जब राजनीतिक दल अपने फायदे वाले काम करा लेने में सफल हो रहे हैं तो जनता के काम क्यों लटकने चाहिए? क्यों नहीं इसी हंगामे के बीच महिला आरक्षण विधेयक पास करा लिया जाता? क्यों नहीं इसी हंगामे के बीच दिल्ली को सीलिंग से राहत दिलाने वाला विधेयक पारित करा लिया जाता? क्यों नहीं इसी हंगामे के बीच राज्यसभा में तीन तलाक विरोधी विधेयक पारित करा लिया जाता? क्यों नहीं इसी हंगामे के बीच जनहित से जुड़े अन्य विधेयक पारित करा लिये जाते? जब सवा सौ करोड़ भारतीयों के जीवन से जुड़े बजट को बिना चर्चा के पारित कराया जा सकता है तो और विधेयकों पर चर्चा के लिए सदन व्यवस्थित होने का इंतजार क्यों किया जा रहा है?

बहरहाल, 2014 में सत्ता में आई नरेंद्र मोदी सरकार ने 27 मई 2014 को कैबिनेट की पहली बैठक में कालेधन की जाँच के लिए एसआईटी के गठन की घोषणा की तो लगा था कि यह सरकार कालाधन मुद्दे पर गंभीर है और विदेशों में जमा कालाधन वापस लेकर आयेगी। यही नहीं नोटबंदी को भी सरकार ने कालाधन के खिलाफ करारी चोट बताया था। साथ ही कालाधन को सफेद करने की स्कीम भी निकाली थी ताकि गरीब जनता का भला हो। लेकिन इन सभी कवायदों का हश्र क्या हुआ? या तो ये कदम सही नीयत से नहीं उठाये गये या फिर इन्हें लागू करने में बड़ी खामियां रहीं। तभी तो नोटबंदी के बाद रिजर्व बैंक के पास वापस उतने ही पैसे पहुँच गये जितने पहले चलन में थे और कालाधन रखने वाले किसी बड़े नाम पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। यही नहीं कई बड़े नाम देश में वित्तीय घोटाले कर विदेश भागने में सफल भी हो गये और अब पार्टियों ने खुद का 'कालाधन' ही छिपा लिया तो ऐसे में कालाधन के खिलाफ और कालाधन रखने वालों के खिलाफ शिकंजा कसने और कड़ी कार्रवाई करने के दावों और वादों को एक और जुमला नहीं तो और क्या माना जाये?

-नीरज कुमार दुबे

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