कश्मीर में शांति के लिए वाजपेयी की राह पर आना ही पड़ा मोदी को

Modi Kashmir Policy is on Vajpayee track
मनोज झा । Oct 27 2017 12:54PM

हुर्रियत कॉन्फ्रेंस में शामिल कट्टरपंथी गुट की हमेशा से मांग रही है सरकार बातचीत में पाकिस्तान को भी शामिल करे और हुर्रियत की इसी जिद के चलते बात आगे नहीं बढ़ती।

आखिर कश्मीर को लेकर मोदी सरकार की क्या नीति है? एक तरफ घाटी में आतंकियों का सफाया करने के लिए सेना ऑपरेशन ऑल आउट चला रही है तो दूसरी तरफ उसने सभी पक्षों से बातचीत के लिए पूर्व आईबी चीफ दिनेश्वर शर्मा को वार्ताकार नियुक्त किया है। सवाल उठता है कि आखिर कश्मीर में बातचीत किसके साथ होगी? अगर सभी पक्षों में हुर्रियत के लोग भी शामिल हैं तो फिर करीब 3 साल तक उनसे दूरी बनाकर क्यों रखी गई।

कश्मीर में शांति बहाल करने के लिए पहली बार किसी वार्ताकार की नियुक्ति नहीं की गई है...इससे पहले वाजपेयी की सरकार भी ये फॉर्मूला अपना चुकी है...लेकिन नतीजा कुछ भी नहीं निकला। वाजपेयी सरकार ने 2001 में घाटी में शांति बहाली के लिए केसी पंत को वार्ताकार नियुक्त किया था लेकिन हुर्रियत का कोई भी नेता उनसे मिलने को तैयार नहीं हुआ...जिसके बाद एक साल बाद ही बिना किसी सफलता के उस पहल को बंद कर दिया गया।

उससे बाद राम जेठमलानी की कमिटी का भी कुछ ऐसा ही हाल हुआ...2003 में एनएन वोहरा को वार्ताकार बनाया गया लेकिन अलगवावदियों की ओर से बातचीत को लेकर किसी तरह का उत्साह नहीं दिखा। 2010 में मनमोहन सरकार ने तीन सदस्यीय कमिटी बनाई थी जिसमें वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर, राधा कुमार और एमएम कुरैशी शामिल थे...तीन वार्ताकारों के पैनल ने अपने सुझावों के साथ केंद्र सरकार को रिपोर्ट भी सौंप दी लेकिन उस रिपोर्ट पर कोई अमल नहीं हुआ।

अब जबकि एक बार फिर से कश्मीर के लिए वार्ताकार नियुक्त किया गया है हर कोई यही जानना चाहता है कि इसका नतीजा क्या निकलेगा? केंद्र में अब तक जिसकी भी सरकार रही है किसी ने भी हुर्रियत को कश्मीर का नुमाइंदा नहीं माना। लेकिन सच्चाई यही है कि बातचीत में अलगाववादियों को शामिल किए बिना कोई नतीजा भी नहीं निकला सकता। प्रधानमंत्री बनने के बाद हुर्रियत को लेकर अब तक मोदी सरकार ने कड़ा रुख अपनाया हुआ था लेकिन अब उसका कश्मीर के लिए वार्ताकार नियुक्त करना इस बात का संकेत है कि केंद्र घाटी में शांति बहाली के लिए नरम रुख अपनाने को तैयार है।

कश्मीर में सेना को खुली छूट देने के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी ने 15 अगस्त पर अपने भाषण में कहा था कि कश्मीर की समस्या गोली और गाली से नहीं सुलझने वाली, कश्मीर के लोगों को गले लगाने से ही समस्या का समाधान निकलेगा। वैसे सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने कश्मीरियों का दिल जीतने के लिए अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी। कश्मीर में आई बाढ़ में मोदी सरकार की ओर से कई गई पहल उसी कड़ी का हिस्सा था। 2015 के नवंबर महीने में जब मोदी श्रीनगर पहुंचे तो उन्होंने जम्मू-कश्मीर के लिए 80 हजार करोड़ रुपये के पैकेज का एलान कर सभी को चौंका दिया। श्रीनगर के शेर-ए-कश्‍मीर स्‍टेडियम में जनसभा में मोदी ने घाटी के लोगों से कहा कि ये तो बस शुरुआत है हमने आपके लिए दिल्ली का खजाना खोल दिया है। मोदी ने अपने भाषण में कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत वाला वाजपेयी सरकार का नारा भी दोहराया।

बीजेपी ने पीडीपी के साथ मिलकर जब जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने का फैसला किया तो हर कोई हैरान था...लेकिन तमाम आलोचनाओं के बाद भी बीजेपी ने अलगाववादियों से सहानुभूति रखने वाली पीडीपी के साथ हाथ मिला लिया। महबूबा सरकार ने जैसे ही अलगाववादियों पर लचीलापन दिखाया घाटी में पत्थरबाजी और हिंसा की घटनाएं सामने आने लगीं। पत्थरबाजी की घटना को लेकर एक समय बीजेपी और पीडीपी के बीच टकराव भी देखने को मिला...लेकिन बाद में सब कुछ ठीक हो गया।

राज्य में पीडीपी-गठबंधन सरकार के ढाई साल पूरे हो गए हैं...उधर केंद्र में मोदी सरकार का साढ़े तीन साल बीत चुका है लेकिन कश्मीर को लेकर हालात जस के तस हैं। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद कहा जाने लगा था कि आतंकवादियों की कमर टूट जाएगी...लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वैसे आर्मी चीफ बिपिन रावत ने साफ कर दिया है कि वार्ताकार नियुक्त होने के बाद भी आर्मी का ऑपरेशन जारी रहेगा। 

कश्मीर समस्या का हल निकालने के लिए मोदी सरकार ने वार्ताकार तो नियुक्त कर दिया है लेकिन इसका कोई नतीजा निकलेगा इसकी उम्मीद काफी कम है। हुर्रियत कॉन्फ्रेंस में शामिल कट्टरपंथी गुट की हमेशा से मांग रही है सरकार बातचीत में पाकिस्तान को भी शामिल करे और हुर्रियत की इसी जिद के चलते बात आगे नहीं बढ़ती। अब देखना है मोदी सरकार को अपनी पहल में कितनी कामयाब होती है।

मनोज झा

(लेखक एक टीवी चैनल में वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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