नई श्रम संहिताएँ सुधार की दिशा में बड़ा कदम, मगर इनकी सफलता सही क्रियान्वयन पर निर्भर करेगी

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देखा जाये तो यह सुधार भारत के श्रम परिदृश्य को भविष्य-तैयार और अधिक न्यायसंगत बना सकता है। लेकिन यदि इनका क्रियान्वयन कमजोर रहा, तो यह वही कहानी दोहराएगा— यानि बड़े वादों के नीचे दबा हुआ श्रमिक का वास्तविक संघर्ष।

21 नवंबर 2025 से लागू हुई चार नई श्रम संहिताएँ— वेतन संहिता, औद्योगिक संबंध संहिता, सामाजिक सुरक्षा संहिता और व्यावसायिक सुरक्षा एवं स्वास्थ्य संहिता, सिर्फ़ कानूनों का पुनर्गठन भर नहीं हैं, बल्कि यह आधुनिक अर्थव्यवस्था की जरूरतों को पहचानने वाला ढाँचा है। सरकार इसे आज़ादी के बाद का सबसे बड़ा श्रम सुधार बता रही है, जबकि ट्रेड यूनियनें इसे श्रमिक-अधिकारों पर तलवार मान रही हैं। परंतु सच यह है कि इन संहिताओं के भीतर अवसर और जोखिम दोनों छिपे हुए हैं और वास्तविक फर्क इनकी जमीनी क्रियान्वयन-क्षमता ही तय करेगी।

सबसे पहले, इन संहिताओं का सबसे सकारात्मक तत्व यह है कि वे भारत की श्रम व्यवस्था को एकीकृत, सरल और दस्तावेज़ी बनाती हैं। नियुक्ति पत्र अनिवार्य होना, न्यूनतम वेतन का सार्वभौमिक अधिकार, गिग और प्लेटफॉर्म कर्मियों को सामाजिक सुरक्षा से जोड़ना तथा 40 वर्ष से अधिक उम्र के श्रमिकों के लिए मुफ्त स्वास्थ्य परीक्षण, ये ऐसे कदम हैं जिन्हें लंबे समय से औपचारिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनने की प्रतीक्षा कर रहे करोड़ों कर्मचारियों को एक नई पहचान देते हैं। यह कानूनी ढांचा न केवल श्रमिकों की आर्थिक सुरक्षा बढ़ा सकता है, बल्कि पारदर्शिता और उत्तरदायित्व भी मजबूत कर सकता है।

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लेकिन, यह तस्वीर का सिर्फ़ एक भाग है। दूसरी ओर, इन संहिताओं में नियोक्ता-पक्षीय प्रावधान भी हैं— विशेषकर छंटनी की मंजूरी सीमा को 100 से बढ़ाकर 300 कर्मचारियों तक ले जाना। इसे “उद्योग-अनुकूल लचीलेपन” के नाम पर प्रस्तुत किया गया है, लेकिन इसका अर्थ है कि हज़ारों इकाइयाँ अब बिना सरकारी अनुमति के बड़े पैमाने पर छंटनी कर सकेंगी। यह संभावना वास्तविक चिंता पैदा करती है कि कहीं श्रम-बाज़ार में स्थायित्व के बदले अस्थिरता न बढ़ जाए। इसी प्रकार, कार्य-घंटों में बढ़ोतरी और औद्योगिक विवादों में उच्चतर अनुपालन-सीमा श्रमिकों को दबाव में डाल सकती है।

नई संहिताएँ महिलाओं के लिए सुरक्षित रात्रिकालीन कार्य की अनुमति देती हैं। यानि यह एक सराहनीय बदलाव है। पर यह तभी प्रभावी होगा जब सुरक्षा-प्रबंध, परिवहन और निगरानी-तंत्र उतनी ही गंभीरता से लागू हो। अन्यथा, “सहमति आधारित रात्रि-कार्य” कागज़ पर सशक्तिकरण और ज़मीनी स्तर पर अतिरिक्त जोखिम बनकर रह सकता है। समान वेतन और समान अवसर का अधिकार तभी सार्थक होगा जब निजी व सरकारी दोनों क्षेत्र व्यावहारिक उपायों में निवेश करें।

सामाजिक सुरक्षा संहिता में गिग और प्लेटफॉर्म कर्मियों को औपचारिक ढाँचे से जोड़ना ऐतिहासिक है— किन्तु इसका परिणाम पूरी तरह इस बात पर निर्भर करेगा कि योगदान का मॉडल कैसा बनेगा, नियमन कितना पारदर्शी होगा और अधिकारियों की जवाबदेही कैसे तय होगी। यदि सामाजिक सुरक्षा कोष के स्रोत स्पष्ट न हों, तो यह कदम एक बार फिर प्रतीकात्मकता में बदलने का जोखिम रखता है।

औद्योगिक संबंध संहिता में त्वरित विवाद-निपटान, रिस्किलिंग फंड और निश्चित अवधि के रोजगार को औपचारिक मान्यता जैसे सुधार उद्योगों के लिए सकारात्मक माने जा सकते हैं। परन्तु इन सबके बीच यह भी ज़रूरी है कि श्रमिकों और ट्रेड यूनियनों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिले, और “संवाद-तंत्र” महज औपचारिक न होकर वास्तविक भागीदारी पर आधारित हो।

मुद्दा यह नहीं कि संहिताएँ अच्छी हैं या बुरी। मुद्दा यह है कि क्या भारत उस संस्थागत क्षमता, नियामकीय मजबूती और राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ इस परिवर्तन को जमीन पर उतारने को तैयार है। पुराने श्रम कानूनों की सबसे बड़ी विफलता उनकी जटिलता नहीं, बल्कि उनका कमजोर क्रियान्वयन था। यदि नई संहिताएँ भी इसी राह पर चलीं, तो सुधार सिर्फ़ स्लोगन बनकर रह जाएगा।

बहरहाल, इन संहिताओं का वादा एक ऐसे श्रम बाज़ार का है जो पारदर्शी भी हो, उद्योग-अनुकूल भी और श्रमिकों के लिये सुरक्षात्मक भी। पर यह संतुलन केवल नियमों से नहीं, बल्कि विश्वसनीय निगरानी, निष्पक्ष प्रवर्तन और श्रमिकों के हितों को केंद्र में रखकर ही संभव होगा। यदि सरकार इस दिशा में सुसंगत और संवेदनशील कदम उठाती है, तो यह सुधार भारत के श्रम परिदृश्य को भविष्य-तैयार और अधिक न्यायसंगत बना सकता है। लेकिन यदि इनका क्रियान्वयन कमजोर रहा, तो यह वही कहानी दोहराएगा— यानि बड़े वादों के नीचे दबा हुआ श्रमिक का वास्तविक संघर्ष।

-नीरज कुमार दुबे

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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