महाभियोग और अविश्वास जताने का खेल कांग्रेस को पड़ सकता है भारी

no trust motion and impeachment can be overwhelming to Congress

कांग्रेस के आचरण से लगता है कि उसे संभवतः अब किसी पर विश्वास नहीं रहा। कांग्रेस का आरोप है कि लोकतंत्र को कमजोर किया जा रहा है और संवैधानिक संस्थानों का महत्व घटाया जा रहा है।

प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस देने वाली कांग्रेस के आचरण से लगता है कि उसे संभवतः अब किसी पर विश्वास नहीं रहा। कांग्रेस का आरोप है कि लोकतंत्र को कमजोर किया जा रहा है और संवैधानिक संस्थानों का महत्व घटाया जा रहा है। प्रधान न्यायाधीश पर आरोप लगाने से पहले कांग्रेस चुनाव आयोग पर अविश्वास प्रकट करने के अलावा सेना की सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल उठा चुकी है इसके अलावा आरबीआई और पीएमओ तो उसके निशाने पर रहते ही हैं। लोकसभा में मात्र 46 सांसद होने के बावजूद कांग्रेस संसद के बजट सत्र में सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस भी ले जाई। कांग्रेस देश की मुख्य विपक्षी पार्टी है और उससे अपेक्षा की जाती है कि उसका जो भी कदम उठे वह संस्थानों को कमजोर करने वाला नहीं हो। यह सही है कि पार्टी को अपना राजनीतिक भविष्य भी देखना है लेकिन इसके चलते राष्ट्रीय हितों की अनदेखी नहीं की जा सकती। देश पर सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली पार्टी के पिछले चार सालों के आचरण को देखेंगे तो पाएंगे कि अधिकतर कदम बिना सोचे-समझे और पार्टी में बिना पूर्ण सहमति के उठाये गये और इन कदमों ने कांग्रेस को पीछे धकेलने का काम किया।

आखिर राहुल किन सलाहकारों से घिरे हुए हैं?

महाभियोग प्रस्ताव के नोटिस की ही बात करें तो लगता है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपनी 'किचन कैबिनेट' के इशारों पर चल रहे हैं और इस मुद्दे पर उन्होंने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से चर्चा करना भी जरूरी नहीं समझा। महाभियोग प्रस्ताव पर जिस तरह पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, पूर्व वित्त और गृह मंत्री पी. चिदम्बरम, पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद, पूर्व कानून मंत्री अश्विनी कुमार और वरिष्ठ कांग्रेस सांसद और अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने दूरी बनाई है वह दर्शाता है कि पार्टी में इस मुद्दे को लेकर दोफाड़ है। डॉ. मनमोहन सिंह ने तो साफ कह दिया है कि महाभियोग लाना कांग्रेस की संस्कृति नहीं है। वहीं अश्विनी कुमार कह रहे हैं कि मुझे किसी बात से असहमति जताने का पूरा अधिकार है तो खुर्शीद का कहना है कि देश में इससे भी बड़ी समस्यायें हैं जिन पर ध्यान देने की जरूरत है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर कपिल सिब्बल को ही क्यों इस प्रस्ताव की जरूरत महसूस हुई? यह भी सवाल उठता है कि क्यों आजाद भारत के इतिहास में पहली बार देश के प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने के मुद्दे पर कांग्रेस अध्यक्ष ने पार्टी में पूर्ण विचार-विमर्श नहीं किया? 

सत्ता में रहने के दौरान कांग्रेस का रुख कुछ और था

हैरत की बात है कि प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस देने वाली कांग्रेस ने 25 साल पहले सत्ता में रहते हुए ऐसी ही कार्यवाही का विरोध किया था। पहले तीन मौकों पर उस वक्त महाभियोग प्रस्ताव लाए गए थे जब कांग्रेस केंद्र की सत्ता में थी। मई 1993 में जब पहली बार उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति वी रामास्वामी पर महाभियोग चलाया गया तो वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में कपिल सिब्बल ने ही लोकसभा में बनाई गयी विशेष बार से उनका बचाव किया था। कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों द्वारा मतदान से अनुपस्थित रहने की वजह से यह प्रस्ताव गिर गया था। उस वक्त केंद्र में पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार थी। न्यायमूर्ति रामास्वामी के अलावा वर्ष 2011 में जब कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सौमित्र सेन के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाया गया तो भी कांग्रेस की ही सरकार थी। सिक्किम उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में न्यायमूर्ति पीडी दिनाकरण के खिलाफ भी इसी तरह की कार्यवाही में पहली नजर में पर्याप्त सामग्री मिली थी लेकिन उन्हें पद से हटाने के लिये संसद में कार्यवाही शुरू होने से पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया थ।

वर्तमान मामला क्या है

कांग्रेस और छह अन्य विपक्षी दलों ने प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा पर कदाचार और पद के दुरुपयोग का आरोप लगाते हुए उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस दिया है। राज्यसभा के सभापति एम. वेंकैया नायडू को महाभियोग का नोटिस देने के बाद इन दलों ने कहा कि संविधान और न्यायपालिका की रक्षा के लिए उनको भारी मन से यह कदम उठाना पड़ा है। विपक्षी दलों ने यह भी बताया कि उन्होंने नोटिस में क्या कहा है। लेकिन इसको लेकर तब विवाद शुरू हो गया जब यह बात सामने आई कि जब तक सभापति प्रस्ताव पर कोई फैसला नहीं ले लेते तब तक इसमें लिखी बातों को सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए।

राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप

महाभियोग प्रस्ताव की आलोचना करते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि कांग्रेस और उसके मित्रों ने महाभियोग को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना शुरू किया है और महाभियोग प्रस्ताव से स्पष्ट है कि न्यायाधीश लोया मामले में याचिका बदले की भावना से न्यायाधीशों को डराने के लिये दायर की गई। जबकि कांग्रेस नेताओं का कहना है कि इस कदम के पीछे कोई राजनीतिक उद्देश्य नहीं है तथा इसका न्यायाधीश बीएच लोया मामले में सुनाये गये फैसले और रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में हो रही सुनवाई से कोई संबंध नहीं है। 

प्रस्ताव में प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ पांच आरोपों का उल्लेख किया गया है जिनके आधार पर विपक्षी दलों ने यह नोटिस दिया है। 

पहला आरोप- ''यह प्रसाद एजुकेशनल ट्रस्ट से संबंधित हैं। इस मामले में संबंधित व्यक्तियों को गैरकानूनी लाभ दिया गया। इस मामले को प्रधान न्यायाधीश ने जिस तरह से देखा उसे लेकर सवाल है। यह रिकॉर्ड पर है कि सीबीआई ने प्राथमिकी दर्ज की है। इस मामले में बिचौलियों के बीच रिकॉर्ड की गयी बातचीत का ब्यौरा भी है।'' प्रस्ताव के अनुसार इस मामले में सीबीआई ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति नारायण शुक्ला के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने की इजाजत मांगी और प्रधान न्यायाधीश के साथ साक्ष्य साझा किये। लेकिन उन्होंने जांच की इजाजत देने से इनकार कर दिया। इस मामले की गहन जांच होनी चाहिए।

दूसरा आरोप- ''यह उस रिट याचिका को प्रधान न्यायाधीश द्वारा देखे जाने के प्रशासनिक और न्यायिक पहलू के संदर्भ में है जो प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट के मामले में जांच की मांग करते हुए दायर की गई थी। 

तीसरा आरोप- कांग्रेस और दूसरे दलों का तीसरा आरोप भी इसी मामले से जुड़ा है। उन्होंने कहा कि यह परंपरा रही है कि जब प्रधान न्यायाधीश संविधान पीठ में होते हैं तो किसी मामले को शीर्ष अदालत के दूसरे वरिष्ठतम न्यायाधीश के पास भेजा जाता है। इस मामले में ऐसा नहीं करने दिया गया। 

चौथा आरोप- प्रधान न्यायाधीश पर चौथा आरोप गलत हलफनामा देकर जमीन हासिल करने का लगाया है। प्रस्ताव में पार्टियों ने कहा कि न्यायमूर्ति मिश्रा ने वकील रहते हुए गलत हलफनामा देकर जमीन ली और 2012 में उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश बनने के बाद उन्होंने जमीन वापस की, जबकि उक्त जमीन का आवंटन वर्ष 1985 में ही रद्द कर दिया गया था। 

पांचवां आरोप- इन दलों का पांचवां आरोप है कि प्रधान न्यायाधीश ने उच्चतम न्यायालय में कुछ महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील मामलों को विभिन्न पीठ को आवंटित करने में अपने पद एवं अधिकारों का दुरुपयोग किया।

न्यायाधीशों को हटाने की है जटिल प्रक्रिया

संविधान में उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को हटाने की बेहद जटिल प्रक्रिया है। इन अदालतों के न्यायाधीशों को सिर्फ साबित कदाचार या असमर्थता के आधार पर ही हटाया जा सकता है। संविधान के अनुच्छेद 124 :4: और न्यायाधीश जांच अधिनियम, 1968 और उससे संबंधित नियमावली में इस बारे में समूची प्रक्रिया की विस्तार से चर्चा है। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने की प्रक्रिया का उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 124 :4: में है, जबकि किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने के प्रावधान का उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 217 :1: : ख : में है।

अब क्या होगा? 

अब मामला राज्यसभा के सभापति एम. वेंकैया नायडू के पास है और वह इस पर विमर्श की प्रक्रिया पूरी करने के बाद ही कोई निर्णय लेंगे। यदि यह प्रस्ताव स्वीकार किया जाता है तो भी इसका गिरना तय है। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस को आंकड़ों के इस खेल का पता नहीं है लेकिन उसके बावजूद पार्टी ने एक अप्रत्याशित कदम उठाकर विपक्ष की हार तय कर दी है। कांग्रेस का यह कदम किसी भी दृष्टि से सही निर्णय नहीं कहा जा सकता। पार्टी ने अपने साथ राकांपा, माकपा, भाकपा, सपा, बसपा और इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के लिए भी मुश्किलें पैदा कर दी हैं। वह तो तृणमूल कांग्रेस और द्रमुक का नेतृत्व चालाक निकला और शुरू में महाभियोग प्रस्ताव के समर्थन में दिखने के बाद ऐन मौके पर इससे दूर हो गये। कांग्रेस के कुछ नेताओं ने अपनी पार्टी के लिए ओडिशा में भी मुश्किलें पैदा कर दी हैं क्योंकि वहां अगले वर्ष होने वाले चुनावों के लिए पार्टी की तैयारियों को धक्का पहुँचा है। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ओडिशा से ही हैं और वहां सत्तारुढ़ बीजू जनता दल ने कांग्रेस के कदम को 'एंटी ओडिया' बताते हुए पार्टी की आलोचना शुरू कर दी है। 

-नीरज कुमार दुबे

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