गठबंधन का संभावित हश्र भांप साइडलाइन हो गयीं प्रियंका!

प्रियंका ने गठबंधन कराने में अहम भूमिका का निर्वाह किया, तो फिर इससे अपने को अलग क्यों कर लिया। कहीं ऐसा तो कि उन्हें गठबंधन की विफलता की आशंका है। इसलिये वह इसके साथ अपनी प्रतिष्ठा नहीं जोड़ना चाहतीं।

उत्तर प्रदेश में सपा−बसपा गठबन्धन को स्वाभाविक, नैसर्गिक, सैद्धांतिक आदि रूप में पेश किया जा रहा है। इसके नेता राहुल गांधी व अखिलेश यादव की नई−नई दोस्ती के बारे में तो कहना क्या। ऐसे दिखाया जा रहा है जैसे ना जाने कब के बिछुड़े चुनावी भीड़ में मिल गये हों। इसके पहले एक−दूसरे को जानते−पहचानते ही नहीं थे। लेकिन जब मिले तो दोस्ती के मायने समझ आये। कहा गया कि दोनों युवा मिलकर प्रदेश को बहुत आगे ले जायेंगे। यह घोषणा भी ये लोग खुद कर रहे हैं। अच्छा हुआ कि कहने का तरीका बदला, गठबन्धन के पहले यह एक दूसरे को 'लड़का' कहते थे। इसमें उम्र की भावना कम तंज ज्यादा होता है। लड़का कहने का प्रचलित तात्पर्य यह होता है कि उसमें परिपक्वता व अनुभव की कमी होती है। इस दौर से सभी लोग गुजरते हैं अब राहुल व अखिलेश एक दूसरे को युवा बता रहे हैं।

इनका गठबंधन आसानी से नहीं हुआ था और ना ही इनकी दोस्ती स्वाभाविक थी। यदि ऐसा होता तो '27 साल यूपी बेहाल' व खटिया सभाओं का आयोजन नहीं किया जाता। जब यह अभियान समाप्त हुआ, तब अगले चरण के रूप में गठबंधन की बात शुरू हुई, सब लोग जानते हैं कि 'सत्तइस साल यूपी बेहाल' अभियान व खटिया सभा की पटकथा एक चर्चित चुनावी प्रबंधक ने लिखी थी। इस पटकथा में राहुल को नायक बनाया गया था। खटिया सभाओं के माध्यम से उन्होंने खूब मेहनत की। केन्द्र पर ज्यादा हमला बोला, लेकिन 27 साल में सपा ने सर्वाधिक शासन किया इसलिये संवाद में उसे भी शामिल किया गया।

इस समय तक दोनों युवा नेता शाश्वत दोस्ती को पहचान नहीं सके थे। एक दूसरे पर तंज भी कसते थे, ऐसे में एक प्रश्न उठता है क्या कारण है कि '27 साल यूपी बेहाल' में राहुल गांधी को ही सबसे आगे रखा गया। उस समय तक प्रियंका गांधी का नाम नहीं लिया जा रहा था। इसके पीछे कहीं कोई रहस्य तो नहीं था। कहीं ऐसा तो नहीं कि पर्दे के पीछे कोई अन्य खिचड़ी पक रही थी। इसके बाद गठबंधन की बात चली। इसमें राहुल की भूमिका तलाशना मुश्किल था। कभी लगता था कि गठबंधन हो जायेगा। कुछ घंटों के बाद खबर आती कि गठबंधन की संभावना समाप्त हो गयी है। दिल्ली से लेकर लखनऊ तक बैठकों का दौर जारी था। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राज बब्बर ने ऐलान किया कि कांग्रेस सभी सीटों पर चुनाव लड़ेगी। इसके जवाब में प्रभारी गुलाम नबी आजाद ने कहा कि सुबह तक इंतजार करें, उनकी उम्मीद कायम थी।

दोस्ती पर असमंजस की इस अवधि में राहुल का नाम नहीं था। चर्चा थी कि प्रियंका व पीके के प्रतिनिधि ही मोर्चा संभाले हैं। अन्ततः गठबंधन हो गया इसके बाद ना प्रियंका का नाम आ रहा है, न गठबंधन के दूसरे सूत्रधार का। प्रारम्भ में कहा गया कि प्रियंका गांधी गठबंधन के पक्ष में प्रचार करेंगी। वह डिंपल यादव के साथ मंच साझा करेंगी। ऐसे में कई सवाल उठते हैं- प्रियंका ने गठबंधन कराने में अहम भूमिका का निर्वाह किया, तो फिर इससे अपने को अलग क्यों कर लिया। कहीं ऐसा तो कि उन्हें गठबंधन की विफलता की आशंका है। इसलिये वह इसके साथ अपनी प्रतिष्ठा नहीं जोड़ना चाहतीं। अपनी साख वह लोकसभा चुनाव तक बचा कर रखना चाहती हैं। यदि प्रियंका को यह आशंका सही है तो उ0प्र0 की विफलता का ठीकरा राहुल के सिर पर आयेगा। वैसे भी राहुल का चुनावी रिकार्ड बेहद खराब रहा है इस बार तो ज्यादा फजीहत होगी।

यह बात भी नजरअंदाज नहीं की जा सकती कि पीके बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के करीबी हैं। उनकी सरकार में उनको मंत्री पद का दर्जा मिला है। सपा से उनकी नाराजगी जगजाहिर है। मुलायम सिंह यादव बिहार चुनाव से ठीक पहले महागठबंधन से अलग हो गये थे और साथ ही उन्होंने अपने प्रत्याशी भी चुनाव में उतारे थे। चर्चा है कि सपा−कांग्रेस गठबंधन में उनकी अपरोक्ष भूमिका थी। सपा एक सौ पांच सीटों पर चुनाव नहीं लड़ रही है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति कमजोर रही है उससे गठबंधन का फायदा कम नुकसान अवश्य हो सकता है। बिहार की स्थिति अलग थी वहां राजद और जदयू ने राहुल गांधी को गठबंधन के चुनाव प्रचार में शामिल नहीं किया था। नीतीश कुमार और लालू यादव ने राहुल के साथ मंच साझा करने से इंकार कर दिया था। लेकिन उत्तर प्रदेश में राहुल व अखिलेश मंच भी साझा कर रहे हैं, व अनेक रोड शो में भी साथ रहे हैं। यह गठबंधन बिहार जैसा नहीं है।

- डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

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