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'शाहीन बाग' के जैसा नजर आ रहा है पंजाब के किसानों का यह आंदोलन
- राकेश सैन
- नवंबर 28, 2020 11:54
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राजनीतिक दल समस्या हल करने की बजाय बयानबाजी करके इसे और उलझाते जा रहे हैं। चूंकि पंजाब में लगभग एक साल बाद विधानसभा चुनावों का बिगुल बज जाना है, इसलिए कोई भी इस आंदोलन का लाभ लेने से पीछे हटने के लिए तैयार दिखाई नहीं दे रहा है।
पिछले साल नागरिकता संशोधन अधिनियम (सी.ए.ए.) को लेकर हुए शाहीन बाग आंदोलन और केंद्र सरकार द्वारा पारित कृषि सुधार अधिनियम को लेकर पंजाब सहित उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में हो रहे किसान आंदोलन के बीच की समानता को उर्दू शायर फैज के शब्दों में यूं बयां किया जा सकता है कि- 'वो बात सारे फसाने में जिसका जिक्र न था, वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है।' सीएए में देश के किसी नागरिक का जिक्र न था परंतु भ्रम फैलाने वालों ने इसे मुसलमानों का विरोधी बताया और भोले-भाले लोगों को सड़कों पर उतार दिया। अब उसी तर्ज पर कृषि सुधार अधिनियम को लेकर भ्रम फैलाया जा रहा है, इसमें न तो फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) को समाप्त करने की बात कही गई है और न ही मंडी व्यवस्था खत्म करने की परंतु इसके बावजूद आंदोलनकारी इस मुद्दे को जीवन मरन का प्रश्न बनाए हुए हैं।
अधिनियम के अस्तित्व में आने के बाद से ही पंजाब में चला आ रहा किसान आंदोलन बीच में मद्धम पड़ने के बाद किसानों के 'दिल्ली चलो' के आह्वान के बाद फिर जोर पकड़ रहा है। जैसी आशंका जताई जा रही थी वही हुआ, आंदोलन के चलते पिछले लगभग दो महीनों से परेशान चले आ रहे लोगों को किसानों के अड़ियल रवैये से मुश्किलें और बढ़ गई हैं। आंदोलनकारियों को सीमा पर रोके जाने के बाद हरियाणा पुलिस से किसानों की कई जगह झड़प हुई। ज्यादातर जगहों पर किसानों को रोकने की तमाम कोशिशें बेकार साबित हुईं। लंबे जाम और किसानों के आक्रामक रुख को देखते हुए पुलिस ने ज्यादा सख्ती नहीं की और उन्हें आगे बढ़ने दिया, लेकिन संगरूर के खनौरी और बठिंडा के डबवाली बैरियर पर किसान हरियाणा में प्रवेश नहीं कर सके। इन दोनों जगहों पर किसानों ने सड़क पर धरना लगा दिया। साफ-सी बात है कि आने वाले दिनों में आम लोगों की परेशानी और बढ़ने वाली है, क्योंकि किसान पूरी तैयारी के साथ दोनों जगहों पर डटे हैं। उनकी संख्या भी हजारों में है। चाहे कुछ मार्गों पर रेल यातायात कुछ शुरू हुआ है परंतु यह पूरी तरह बहाल नहीं हो पाया है। अब सड़क मार्ग भी बाधित होने के कारण समस्या और बढ़ गई है। इसके साथ ही सरकार और किसानों के बीच टकराव भी बढ़ता जा रहा है। इसके पीछे राजनीति भी कम जिम्मेदार नहीं है। राजनीतिक दल समस्या हल करने की बजाय बयानबाजी करके इसे और उलझाते जा रहे हैं। किसानों को अलग-अलग राजनीतिक दलों का समर्थन हासिल है। चूंकि पंजाब में लगभग एक साल बाद विधानसभा चुनावों का बिगुल बज जाना है, इसलिए कोई भी इस आंदोलन का लाभ लेने से पीछे हटने के लिए तैयार दिखाई नहीं दे रहा है।
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केंद्र सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि कानूनों को लेकर जो विरोध हो रहा है वह साधारण लोगों के लिए तो क्या कृषि विशेषज्ञों व प्रगतिशील किसानों के लिए भी समझ से बाहर की बात है। कुछ राजनीतिक दल व विघ्नसंतोषी शक्तियां अपने निजी स्वार्थों के लिए किसानों को भड़का कर न केवल अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं बल्कि ऐसा करके वह किसानों का बड़ा नुकसान भी करने जा रहे हैं। कितना हास्यास्पद है कि पंजाब के राजनीतिक दल उन्हीं कानूनों का विरोध कर रहे हैं जो राज्य में पहले से ही मौजूद हैं और उनकी ही सरकारों के समय में इन कानूनों को लागू किया गया था। इन कानूनों को लागू करते समय इन दलों ने इन्हें किसान हितैषी बताया था और आज वे किसानों के नाम पर ही इसका विरोध कर रहे हैं। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह किसानों के इसी आक्रोश का राजनीतिक लाभ उठाने के उद्देश्य से पंजाब विधानसभा में केंद्र के कृषि कानूनों को निरस्त भी कर चुके हैं और अपनी ओर से नए कानून भी पारित करवा चुके परंतु उनका यह दांवपेंच असफल हो गया क्योंकि प्रदर्शनकारी किसानों ने पंजाब सरकार के कृषि कानूनों को भी अस्वीकार कर दिया है।
संघर्ष के पीछे की राजनीति समझने के लिए हमें वर्ष 2006 में जाना होगा। उस समय पंजाब में कांग्रेस सरकार ने कृषि उत्पाद मंडी अधिनियम (एग्रीकल्चरल प्रोड्यूस मार्किट एमेंडमेंट एक्ट) के जरिए राज्य में निजी कंपनियों को खरीददारी की अनुमति दी थी। कानून में निजी यार्डों को भी अनुमति मिली थी। किसानों को भी छूट दी गई कि वह कहीं भी अपने उत्पाद बेच सकता है। साल 2019 के आम चुनावों में कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणापत्र में इन्हीं प्रकार के कानून बनाने का वायदा किया था जिसका वह आज विरोध कर रही है। अब चलते हैं साल 2013 में, जब राज्य में अकाली दल बादल व भारतीय जनता पार्टी गठजोड़ की स. प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व में सरकार सत्तारुढ़ थी। बादल सरकार ने इस दौरान अनुबंध कृषि (कांट्रेक्ट फार्मिंग) की अनुमति देते हुए कानून बनाया। कृषि विशेषज्ञ और अर्थशास्त्री स. सरदारा सिंह जौहल अब पूछते हैं कि अब जब केंद्र ने इन दोनों कानूनों को मिला कर नया कानून बनाया है तो कांग्रेस व अकाली दल इसका विरोध किस आधार पर कर रहे हैं।
पंजाब में चल रहे कथित किसान आंदोलन का संचालन अढ़ाई दर्जन से अधिक किसान यूनियनें कर रही हैं। कहने को तो भारतीय किसान यूनियन किसानों के संगठन हैं परंतु इनकी वामपंथी सोच जगजाहिर है। दिल्ली में चले शाहीन बाग आंदोलन में किसान यूनियन के लोग हिस्सा ले चुके हैं, केवल इतना ही नहीं देश में जब भी नक्सली घटना या दुर्घटना घटती है तो भारतीय किसान यूनियनें इस पर अपना समर्थन या विरोध प्रकट करती हैं। इस किसान आंदोलन को भड़काने के लिए गीतकारों से जो गीत गवाए जा रहे हैं उनकी भाषा विशुद्ध रूप से विषाक्त नक्सलवादी चाशनी से लिपटी हुई है। ऊपर से रही सही कसर खालिस्तानियों व कट्टरवादियों ने पूरी कर दी। प्रदेश में चल रहे कथित किसान आंदोलन में कई स्थानों पर खालिस्तान को लेकर भी नारेबाजी हो चुकी है। सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर एक नहीं बल्कि भारी संख्या में पेज ऐसे चल रहे हैं जो इस आंदोलन को खालिस्तान से जोड़ कर देख रहे हैं और युवाओं को भटकाने का काम कर रहे हैं।
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सच्चाई तो यह है कि केंद्र के नए कृषि अधिनियम अंतत: किसानों के लिए लाभकारी साबित होने वाले हैं। इनके अंतर्गत ऑनलाइन मार्किट भी लाई गई है, जिसमें किसान अपनी फसल को इसके माध्यम से कहीं भी अपनी मर्जी से बेच सकेगा। इस कानून में राज्य सरकारों को भी अनुमति दी गई है कि वह सोसायटी बना कर माल की खरीददारी कर सकती हैं और आगे बेच भी सकती हैं। पंजाब में सहकारी क्षेत्र के वेरका मिल्क प्लांट इसके उदाहरण हैं। नए कानून के अनुसार, किसानों व खरीददारों में कोई झगड़ा होता है तो उपमंडल अधिकारी को एक निश्चित अवधि में इसका निपटारा करवाना होगा। इससे किसान अदालतों के चक्कर काटने से बचेगा। हैरत की बात यह है कि किसानों को नए कानून के इस लाभ के बारे में कोई भी नहीं जानकारी दे रहा। एक और हैरान करने वाला तथ्य है कि केंद्र सरकार ने हाल ही में पंजाब में धान की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर की है परंतु इसके बावजूद एमएसपी को लेकर प्रदर्शनकारियों में धुंधलका छंटने का नाम नहीं ले रहा और उन बातों को लेकर विरोध हो रहा है जिनका जिक्र तक नए कृषि कानूनों में नहीं है।
-राकेश सैन
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- डॉ. नीलम महेंद्र
- जनवरी 23, 2021 12:41
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स्वदेशी "भारत ड्रोन" जो पूर्वी लद्दाख के पास एलएसी की निगरानी के लिए रखा जा रहा है उसे राडार की पकड़ में लाना असंभव है। डीआरडीओ के चंडीगढ़ स्थित प्रयोगशाला में विकसित यह ड्रोन दुनिया का सबसे चालक, मुस्तैद, फुर्तीला और हल्का सर्विलांस ड्रोन है।
अहिंसा के मंत्र से दुनिया को अवगत कराने वाला भारत आज एक बार फिर विश्व के मानचित्र पर मजबूती के साथ उभर रहा है। बिना हथियार उठाए आज़ादी हासिल करने वाला गाँधी का यह देश आज आत्मनिर्भर भारत के मंत्र के सहारे हथियारों का निर्यातक बनने की ओर अग्रसर है। वो भारत जो कल तक दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा हथियार आयातक देश था वो आज मध्य पूर्व, दक्षिण पूर्व, एशिया और लैटिन अमेरिकी देशों को आकाश मिसाइल, ब्रह्मोस मिसाइल, तटीय निगरानी प्रणाली, रडार और एयर प्लेटफार्म जैसे सुरक्षा उपकरण और हथियार निर्यात करने की दिशा में बढ़ गया है।
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आज हमारे देश की अनेक सरकारी कंपनियां विश्व स्तर के हथियार बना रही हैं और भारत विश्व के 42 देशों को रक्षा सामग्री निर्यात कर रहा है। आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मेक इन इंडिया से आगे बढ़ते हुए मेक फ़ॉर वर्ल्ड की नीति पर आगे चलते हुए केंद्र सरकार ने 2024 तक 35000 करोड़ रुपए का सालाना रक्षा निर्यात का लक्ष्य रखा है। सरकारी आंकड़ों से इतर अगर जमीनी हकीकत की बात करें, तो 2016-17 में भारत का रक्षा निर्यात 1521 करोड़ था जो साल 2018-19 में 10745 करोड़ तक पहुंच गया है। यानी करीब 700 प्रतिशत की बढ़ोतरी।
दरसअल आज़ादी के बाद से ही भारत अपनी सीमाओं की रक्षा हेतु उपयोग में आने वाली आवश्यक सैन्य सामग्री के लिए रूस, अमेरिका, इजराइल और फ्रांस जैसे देशों पर निर्भर था। इसके अलावा चीन और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों के चलते पिछले कुछ वर्षों में भारत रक्षा के क्षेत्र में सर्वाधिक खर्च करने वाला विश्व का तीसरा देश बन गया था। एक रिपोर्ट के अनुसार 2019 में अमेरिका और चीन के बाद भारत रक्षा क्षेत्र में सर्वाधिक खर्च कर रहा था।
देखा जाए तो चीन के साथ हुए हालिया सीमा विवाद और पाकिस्तान की ओर से लगातार आतंकवादी घुसपैठ की कोशिशों के चलते यह जरूरी भी था। लेकिन आज के भारत की खास बात यह है कि सेना की इन जरूरतों को अब देश में ही पूरा किया जाएगा। इसके लिए सरकार ने बीते कुछ समय में ठोस निर्णय लिए जिनके सकारात्मक परिणाम अब सामने भी आने लगे हैं। सबसे महत्वपूर्ण निर्णय था तीनों सेनाओं के प्रमुख चीफ ऑफ डिफेन्स स्टाफ के पद का सृजन करना। हालांकि इस पद के निर्माण की सिफारिश 2001 में ही की गई थी लेकिन यह 2019 में अस्तित्व में आ पाया। इसका सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि तीनों सेनाओं में एक समन्वय स्थापित हुआ जिससे तीनों सेनाओं की आवश्यकताओं को स्ट्रीमलाइन करके उसके अनुसार रूपरेखा बनाने का रास्ता प्रशस्त हो गया। दूसरा प्रभावशाली कदम था रक्षा क्षेत्र में एफडीआई की लिमिट 49 प्रतिशत से बढ़ाकर 74 करना। लेकिन तीसरा सबसे बड़ा कदम जो सरकार ने उठाया वो था सेना के कुछ सामान (101 आइटम की लिस्ट) के आयात पर 2020-24 तक प्रतिबंध लगाना। परिणामस्वरूप इन वस्तुओं की आपूर्ति भारत में निर्मित वस्तुओं से ही की जा सकती थी।
यह भारतीय डिफेंस इंडस्ट्री के लिए एक प्रकार से अवसर था अपनी निर्माण क्षमताओं को विकसित करने का। यह देश के लिए गर्व का विषय है कि इस इंडस्ट्री ने मौके का भरपूर सदुपयोग करते हुए अनेक विश्व स्तरीय स्वदेशी रक्षा एवं सैन्य उपकरणों का सफलतापूर्वक निर्माण करके आत्मनिर्भर भारत के लक्ष्य के प्रति ठोस कदम बढ़ाया है। इन उपकरणों के नाम और काम दोनों भारत के गौरवशाली अतीत का स्मरण कराते हैं।
स्वदेशी "भारत ड्रोन" जो पूर्वी लद्दाख के पास एलएसी की निगरानी के लिए रखा जा रहा है उसे राडार की पकड़ में लाना असंभव है। डीआरडीओ के चंडीगढ़ स्थित प्रयोगशाला में विकसित यह ड्रोन दुनिया का सबसे चालक, मुस्तैद, फुर्तीला और हल्का सर्विलांस ड्रोन है। चूंकि यह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से लैस है, यह दोस्तों और दुश्मनों में अंतर करके उसके अनुरूप प्रतिक्रिया करता है। इसी प्रकार स्वदेशी एन्टी सबमरीन युद्धपोत आईइनएस कवरत्ती को भी नौसेना में शामिल किया गया है। यह भी राडार के पकड़ में नहीं आता। इसी प्रकार अर्जुन टैंक, पिनाक रॉकेट लांच सिस्टम, आकाश, नाग मिसाइल, तेजस विमान, ध्रुव हेलिकॉप्टर, अग्नि बैलिस्टिक मिसाइल, अस्त्र मिसाइल, अस्मि पिस्टल हमारे देश में तैयार किए गए कुछ ऐसे शस्त्र हैं जिन्होंने हमें रूस, अमेरिका, फ्रांस जैसे देशों के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया है। इस सफलता से उत्साहित भारत की भविष्य की योजनाएं रक्षा क्षेत्र में विश्व में मजबूत मौजूदगी दर्ज कराने की है।
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इसी कड़ी में देश में अपाचे लड़ाकू हेलीकॉप्टर से लेकर राइफल्स बनाने की तैयारी की जा रही है। लेकिन इन हथियारों के अलावा जो सबसे महत्वपूर्ण पहलू है, हमारे सैनिकों की सुरक्षा। इसके लिए बुलेट प्रूफ जैकेट से लेकर ऐसे जूते जो सैनिकों के पैरों को घायल होने से बचाएं, इनका उत्पादन भी देश में हो रहा है। इतना ही नहीं डीआरडीओ ने पूर्वी लद्दाख और सियाचीन की जमा देने वाली सर्दी जैसे दुर्गम इलाकों में तैनात हमारे जवानों के लिए स्पेस हीटिंग डिवाइस तैयार किया है जो माइनस 40 डिग्री के तापमान में भी उनके बंकर को गर्म रखेगा। दरअसल इस प्रकार के कदम ना सिर्फ देश की अर्थव्यवस्था को गति देते हैं बल्कि सेना और देश दोनों के मनोबल को भी ऊँचा करते हैं।
इस प्रकार के कदम तब और भी जरूरी हो जाते हैं जब ग्लोबल फायर पॉवर इंडेक्स 2021 की रिपोर्ट में यह बात सामने आती है कि कोरोना काल में पाकिस्तान जैसा देश जो रक्षा क्षेत्र में खर्च करने के मामले में बीते साल 15वें पायदान पर था आज चीन की मदद से 10वें पायदान पर आ गया है। इतना ही नहीं वो चीन के साथ राफेल को मार गिराने का साझा युद्ध अभ्यास भी करता है। समझा जा सकता है कि इन परिस्थितियों में भारत का सैन्य रूप से सक्षम होना कितना आवश्यक है। क्योंकि संसार का विरोधाभासी नियम यह है कि शक्ति सम्पन्न व्यक्ति ही शांति कायम करा पाता है दुर्बल तो हिंसा का शिकार हो जाता है। इसे हमारे शास्त्रों में कुछ ऐसे कहा गया है "क्षमा वीरस्य भूषनम"। और आज का सच यह है कि विश्व का हर देश आधुनिक हथियारों के साथ विश्व शान्ति की बात करता है। यही कारण है कि कल तक जो भारत अहिंसा परमो धर्मः के पथ पर चलता था "आज अहिंसा परमो धर्मः, धर्म हिंसा तथैव चः।" को अंगीकार कर रहा है।
-डॉ. नीलम महेंद्र
(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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- डॉ. वेदप्रताप वैदिक
- जनवरी 22, 2021 11:34
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भारतीयों टीकों का इस्तेमाल अपने पड़ोसी देशों में भी जमकर होगा। पाकिस्तान के अलावा दक्षेस के सभी राष्ट्र आस लगाए बैठे हैं कि भारतीय टीका उनका उद्धार करेगा। वह सस्ता भी है और उसे सहेजना भी आसान है। भारत इन पड़ोसी देशों को लगभग एक करोड़ टीके शीघ्र देने वाला है।
कोरोना टीकाकरण अभियान भारत में शुरू हो चुका है। यह अभियान नहीं, युद्ध है। युद्ध से भी बड़ी तैयारी इस अभियान के लिए भारत सरकार और हमारे वैज्ञानिकों की है। यह दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण होगा। 30 करोड़ से ज्यादा लोगों को यह टीका जुलाई तक लगा दिया जाएगा। 30 करोड़ से ज्यादा जनसंख्या वाले देश भारत के अलावा सारी दुनिया में सिर्फ दो हैं- अमेरिका और चीन, लेकिन इन दोनों के मुकाबले भारत में कोरोना काफी कम फैला है, क्योंकि भारत के खान-पान में ही जबर्दस्त रोग-प्रतिरोधक क्षमता है। कोरोना से युद्ध में भारत को इसलिए भी गर्व होना चाहिए कि सबसे पहले वह अपने उन 3 करोड़ लोगों को यह टीका मुफ्त लगा रहा है, जो स्वास्थ्य और सेवाकर्मी हैं और उनमें से कइयों ने जन-सेवा करते हुए अपना बलिदान किया है।
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यों तो अलग-अलग संक्रामक बीमारियों के लिए टीके बनाने में भारत दुनिया का सबसे अग्रगण्य राष्ट्र है लेकिन आजकल बने उसके दो टीकों पर तरह-तरह के संदेह किए जा रहे हैं और उन्हें लेकर राजनीतिक फुटबाल भी खेला जा रहा है। यदि विपक्षी नेता इन दो भारतीयों टीकों- कोवेक्सीन और कोविशील्ड की प्रामाणिकता पर संदेह न करें तो वे विपक्षी ही क्या हुए? उनका संदेह लाभप्रद है। वह सरकार और वैज्ञानिकों को अधिक सावधान बनाएगा। पिछले तीन दिनों में चार लाख लोगों को ये टीक लगा दिए गए हैं। मुश्किल से 500 लोगों को थोड़ी-बहुत तकलीफ हुई है। वह भी अपने आप ठीक हो गई है। चार-पांच लोगों के मरने की खबर भी है लेकिन डॉक्टरों का कहना है कि उसका कारण टीका नहीं है। वे लोग पहले से ही गंभीर रोगों से ग्रस्त थे।
लेकिन अफवाहें आग की तरह फैलती हैं। टीकाकरण के तीसरे दिन टीका लगाने वालों की संख्या काफी घट गई है। यह ठीक नहीं है। यदि टीके की प्रामाणिकता संदेहास्पद होती तो आप ही बताइए कि ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस के निदेशक को क्या इसका पता नहीं होता ? उन्होंने आगे होकर यह टीका पहले ही दिन क्यों लगवाया ? नीति आयोग के सदस्य (स्वास्थ्य) और पुणे के सीरम इंस्टीट्यूट के कर्ता-धर्ता ने पहले ही दिन टीका लगवाया, यह किस बात का प्रमाण है ? क्या यह इसका प्रमाण नहीं है कि देश के सर्वोच्च स्वास्थ्यकर्मियों ने अपने आपको टीके की कसौटी पर कस कर दिखा दिया ?
कुछ विपक्षी नेता पूछते हैं कि यह टीका राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने सबसे पहले क्यों नहीं लगवाया ? मेरी अपनी राय थी कि वे यदि सबसे पहले लगवाते तो देश के करोड़ों लोगों को प्रेरणा मिलती, जैसे कि अमेरिका के नेता जो बाइडन, पोप और ब्रिटेन की महारानी ने लगाया था लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह विचार भी तर्कसंगत है कि नेताओं की बारी बाद में आएगी, पहले स्वास्थ्यकर्मियों को मौका मिलना चाहिए। किसी भी बात का फायदा उठाने में नेतागण हमेशा सबके आगे रहते हैं, इस दृष्टि से मोदी की सोच ठीक है लेकिन सिर्फ वे स्वयं और राष्ट्रपति टीका सबसे पहले लेते तो देश के करोड़ों लोगों के मन में इस टीके के प्रति उत्साह जागृत हो जाता। इसके लिए अभी भी मौका है।
वैसे स्वास्थ्यकर्मियों के बाद यदि नेताओं को यह टीका लगे तो वह इस दृष्टि से उचित होगा कि नेता लोग सबसे अधिक जन-सम्पर्क में रहते हैं। उन्हें कोरोना का शिकार होने में देर नहीं लगती। इसके अलावा देश की पंचायतें, नगर निगम, विधानसभाएँ और संसद का जो काम ढीला पड़ गया है, उसमें भी गति आ जाएगी। यदि कृषि-कानूनों पर संसद लंबी बहस करती तो क्या सरकार को इस किसान आंदोलन के दिन देखने पड़ते ?
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सरकार के सामने यह भी बड़ा प्रश्न है कि 140 करोड़ लोगों में अब सबसे पहले किन-किन लोगों को यह टीका दिया जाए? स्वास्थ्यकर्मियों के बाद अब यह टीका उन लोगों को दिया जाएगा, जिनकी उम्र 50 साल से ज्यादा है, क्योंकि उन्हें कोरोना का खतरा ज्यादा होता है। यदि इन लोगों को यह टीका मुफ्त या कम कीमत पर दिया जाए तो ज्यादा अच्छा है, क्योंकि इस वर्ग में मजदूर, किसान, ग्रामीण और गरीब लोगों की संख्या ज्यादा है। यों भी ये भारतीय टीके दुनिया के सबसे सस्ते टीके हैं। विदेशी टीकों की कीमत 5 से 10 हजार रु. तक है जबकि हमारे टीके दो सौ से तीन सौ रु. तक में ही मिल जाएंगे। सरकार चाहे तो इन्हीं टीकों को निजी अस्पतालों को हजार-डेढ़ हजार रु. में बेचकर उस पैसे का इस्तेमाल मुफ्त टीके बांटने में कर सकती है।
वैसे भी पिछले दो-तीन हफ्तों में देश के लगभग सभी प्रदेशों से उत्साहजनक खबरें आ रही हैं। जिन अस्पतालों में इस महामारी के मरीजों के लिए विशेष बिस्तर लगवाए गए थे, वे अब खाली पड़े रहते हैं। जो निजी डॉक्टर और नर्सें पहले अपने अस्पतालों में आने से घबराते थे, वे अब आने लगे हैं। अब स्कूल-कॉलेज भी खुलने लगे हैं। सड़कों और बाजा़रों में भी चहल-पहल बढ़ गई है। हो सकता है कि भारत का काम 30 करोड़ टीकों से ही चल जाए।
इन भारतीयों टीकों का इस्तेमाल अपने पड़ौसी देशों में भी जमकर होगा। पाकिस्तान के अलावा दक्षेस के सभी राष्ट्र आस लगाए बैठे हैं कि भारतीय टीका उनका उद्धार करेगा। वह सस्ता भी है और उसे सहेजना भी आसान है। भारत इन पड़ौसी देशों को लगभग एक करोड़ टीके शीघ्र देने वाला है। भारत के इन दोनों टीकों ने दुनिया में धूम मचा दी है। दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील भी इन्हें मंगा रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि पाकिस्तान भी एक-दो दिन में इसकी मांग करने लगे। यह भी हो सकता है कि वह काबुल या दुबई से होकर इन्हें मंगवा ले। कोरोना का यह टीका दुनिया में भारत की छवि को चमकाए बिना नहीं रहेगा।
कोरोना-युद्ध में भारत सबसे बड़ी विश्वशक्ति बनकर उभरेगा। उसके आम लोगों की सावधानियां, उसकी भोजन-पद्धति, उसके आयुर्वेदिक काढ़े, उसके टीके और उसके स्वास्थ्य-कर्मियों की साहसिक सेवाओं ने कोरोना महामारी को मात देने की पूरी तैयारी कर रखी है।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
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- नीरज कुमार दुबे
- जनवरी 21, 2021 14:34
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बाइडेन के सामने चुनौतियाँ बहुत बड़ी-बड़ी हैं लेकिन वह उन पर खरा उतरने का माद्दा रखते हैं। इसको दो उदाहरणों के जरिये समझते हैं। पहला- जो बाइडेन बराक ओबामा के कार्यकाल में आठ साल तक अमेरिकी उपराष्ट्रपति रह चुके हैं इसलिए प्रशासन की बारीकियों को बेहद करीब से जानते हैं।
अमेरिका में ट्रंप युग का समापन और बाइडेन युग की शुरुआत धूमधड़ाके के साथ हुई है। अमेरिका ने ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया ने डोनाल्ड ट्रंप जैसे सनकी नेता से 'लोकतंत्र की ताकत' के बलबूते ही निजात पाई है। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में भले जो बाइडेन की जीत हुई थी लेकिन वहाँ चुनावों से पहले ही यह दिख रहा था कि अमेरिकी जनता अपनी उस गलती को सुधारने के लिए आतुर है जो उसने 2016 के राष्ट्रपति चुनावों के वक्त कर दी थी। चार साल के अपने कार्यकाल में डोनाल्ड ट्रंप ने जिस सनकीपने से अमेरिका को चलाया उसने दुनिया के इस सबसे समृद्ध और विकसित देश को वर्षों पीछे धकेल दिया। ट्रंप ने अपने मनमाने फैसलों की बदौलत अमेरिका को दुनिया में अलग-थलग तो कर ही दिया था साथ ही अपने कार्यकाल के पहले दिन से लेकर अंतिम समय तक मंत्रियों व अधिकारियों को अचानक ही बर्खास्त कर देने, अधिकारियों पर गलत कार्य के लिए दबाव बनाने, चुनावों में हार नहीं मानने, असत्य बोलने का रिकॉर्ड बनाने, राष्ट्रपति चुनावों में विजेता को औपचारिक रूप से बधाई नहीं देने, सोशल मीडिया पर अमेरिकी राष्ट्रपति को प्रतिबंधित कर दिये जाने, दो-दो महाभियोग झेलने वाला पहला अमेरिकी राष्ट्रपति बनने, लोकतंत्र पर भीड़तंत्र के जरिये कब्जा करने का नाकाम प्रयास करने का जो इतिहास अपने नाम पर दर्ज करवाया है वह अमेरिका के लिए सदैव शर्म का विषय बना रहेगा।
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बाइडेन के समक्ष कई बड़ी चुनौतियाँ
बाइडेन ने बतौर अमेरिकी राष्ट्रपति अपने पहले भाषण में लोकतंत्र की सर्वोच्चता कायम रखने सहित जो भी बातें कही हैं, उन पर उन्हें खरा उतरना ही होगा क्योंकि उनकी ताजपोशी कोई सामान्य स्थिति में नहीं हुई है। बाइडेन को कमान ऐसे समय मिली है जब दुनियाभर में विश्व का सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका मखौल का विषय बना हुआ है। बाइडेन को कमान ऐसे समय मिली है जब अमेरिका यूनाइटेड नहीं डिवाइडेड स्टेट्स नजर आ रहा है। बाइडेन को कमान ऐसे समय मिली है जब दुनियाभर में कोरोना के मामले उतार पर हैं लेकिन अमेरिका में महामारी अपने चरम पर बरकरार है। बाइडेन को कमान ऐसे समय मिली है जब विश्व के अन्य देशों की मदद करने वाले अमेरिका की अर्थव्यवस्था डांवाडोल है। बाइडेन को कमान ऐसे समय मिली है जब दुनियाभर में नये-नये वैश्विक मंच बन रहे हैं और अमेरिका पुराने वैश्विक मंचों से कट चुका है।
बाइडेन के सामने चुनौतियाँ बहुत बड़ी-बड़ी हैं लेकिन वह उन पर खरा उतरने का माद्दा रखते हैं। इसको दो उदाहरणों के जरिये समझते हैं। पहला- जो बाइडेन बराक ओबामा के कार्यकाल में आठ साल तक अमेरिकी उपराष्ट्रपति रह चुके हैं इसलिए प्रशासन की बारीकियों को बेहद करीब से जानते हैं। यही नहीं जरा 3 नवंबर 2020 के बाद के हालात से अब तक के घटनाक्रम पर गौर करिये। राष्ट्रपति चुनाव परिणाम आने के बाद से डोनाल्ड ट्रंप इस बात पर अड़े हुए थे कि चुनाव में धांधली हुई है और वह इसे स्वीकार नहीं करेंगे। ट्रंप ने यह भी कहा कि वह परिणामों को अदालत में चुनौती देंगे। ट्रंप ने यह भी कहा कि वह बाइडेन को व्हाइट हाउस में घुसने नहीं देंगे। ट्रंप रोजाना बाइडेन के खिलाफ अनर्गल बातें तो करते ही रहे साथ ही चुनाव परिणामों को भी नकारते रहे जबकि राज्यों के चुनाव अधिकारी ट्रंप की टीम द्वारा दर्ज कराई गयी आपत्तियों को सुबूतों के अभाव में खारिज करते रहे। ट्रंप ने इलेक्टोरल कॉलेज की गिनती में भी बाधा डलवाने के कथित प्रयास किये लेकिन बाइडेन एक मंझे हुए राजनीतिज्ञ की तरह धैर्य से सारी स्थितियों का सामना करते रहे। वह ट्रंप पर आक्रामक नहीं हुए क्योंकि उन्हें लोकतंत्र की ताकत पर भरोसा था, उन्हें अमेरिकी संविधान पर भरोसा था। ट्रंप के गुस्से का जवाब बाइडेन ने जिस प्यार से दिया है उसी प्यार से उन्हें ट्रंप समर्थकों का दिल भी जीतना होगा क्योंकि जाते-जाते भी ट्रंप विभाजन की रेखा खींच गये हैं।
कमला हैरिस का विश्वास
इसके अलावा कमला देवी हैरिस ने अमेरिकी उपराष्ट्रपति बन कर जो इतिहास रचा है उससे ना सिर्फ सभी भारतीय बल्कि दुनियाभर में बसे भारतवंशी भी गौरवान्वित हुए हैं। महिला, अश्वेत, विदेशी मूल आदि तमाम बाधक तत्वों पर विजय पाते हुए कमला देवी हैरिस ने जो कर दिखाया है वह अभूतपूर्व है। कमला हैरिस ने पदभार ग्रहण करते हुए जिस आत्मविश्वास का प्रदर्शन किया है वह बेहतर भविष्य की झलक दिखाता है। मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने जिस प्रकार नस्ली एवं आर्थिक न्याय के लिए लड़ाई लड़ी उस कड़ी को निश्चित रूप से कमला हैरिस आगे ले जाएंगी।
मीडिया को भी आत्ममंथन करने की जरूरत है
डोनाल्ड ट्रंप जैसे व्यक्ति सर्वोच्च पद तक यदि पहुँचते हैं तो उसमें मीडिया का भी बड़ा हाथ होता है। वैसे बतौर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के मीडिया के साथ सहज रिश्ते शुरुआत से ही नहीं रहे और सोशल मीडिया कंपनियों ने तो ट्रंप पर प्रतिबंध लगा कर नया इतिहास ही रच दिया। लेकिन इस समय वाहवाही लूट रही इन अमेरिकी मीडिया कंपनियों से यह भी पूछा जाना चाहिए कि ट्रंप का इतना बड़ा कद बनाया किसने था। 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों के दौरान मीडिया विभाजित नजर आ रहा था और खुले तौर पर एक वर्ग हिलेरी क्लिंटन और एक वर्ग डोनाल्ड ट्रंप के साथ नजर आ रहा था। अचानक से एक अराजनीतिक व्यक्ति को ना सिर्फ मीडिया ने अपने सिर पर बैठा लिया था बल्कि अमेरिका की बड़ी पार्टी ने भी उन्हें नेता के रूप में स्थापित करने में मदद कर दी जिसका अंजाम पूरी दुनिया ने भुगता। डोनाल्ड ट्रंप प्रकरण से दुनियाभर के मीडिया को सबक लेने की जरूरत है। जैसे मीडिया जनता के बीच यह जागरूकता फैलाता है कि सोच समझकर अपना वोट दें या सही प्रत्याशी को ही चुनें, इसी प्रकार मीडिया को भी नेता बनने के आकांक्षी लोगों की कवरेज के समय बहुत सोच समझकर काम करना चाहिए। क्योंकि किसी को भी रातोंरात 'बड़ा' बना देने का अंजाम कई बार बहुत बुरा होता है।
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बहरहाल, जो बाइडेन ने अपने कार्यकाल के पहले दिन जिन 15 कार्यकारी आदेशों पर हस्ताक्षर किये उनसे साफ हो गया है कि वह अपना पूरा ध्यान अमेरिकी जनता से किये गये वादों को पूरा करने में लगाने वाले हैं। बाइडेन के शुरुआती फैसलों की बात करें तो उन्होंने 100 दिन मास्क लगाने, पेरिस जलवायु समझौते में अमेरिका के फिर से शामिल होने, डब्ल्यूएचओ में अमेरिका की वापसी, मुस्लिम देशों के लोगों की अमेरिका यात्रा पर लगे प्रतिबंध को हटाने सहित मैक्सिको सीमा पर दीवार निर्माण पर तत्काल रोक लगाना आदि शामिल हैं। उम्मीद है आने वाले दिनों में बाइडेन विदेश और राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित ट्रंप प्रशासन के कई बड़े फैसलों को पलटेंगे या उनमें संशोधन करेंगे। हालांकि बाइडेन को यह भी ध्यान रखना होगा कि सिर्फ ट्रंप के फैसलों को पलटने से काम नहीं चलेगा बल्कि अमेरिका के माहौल को पूरी तरह बदलना होगा। वैसे सच की रक्षा करने और झूठ को हराने का जो आह्वान बाइडेन ने किया है उसमें पूरी दुनिया को शामिल होने की जरूरत है।
-नीरज कुमार दुबे
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