रोहिंग्या शरणार्थी भारत के वर्तमान और भविष्य के लिए घातक

Rohingya refugees are dangerous to Indias present and future
विजय कुमार । Oct 16 2017 12:08PM

इन दिनों भारत में इस विषय पर चर्चा गरम है कि बर्मा से आये रोहिंग्या मुसलमानों को शरण दें या नहीं? कुछ सेक्यूलरवादी पुरोधा इसके समर्थन में न्यायालय में भी गये हैं।

इन दिनों भारत में इस विषय पर चर्चा गरम है कि बर्मा से आये रोहिंग्या मुसलमानों को शरण दें या नहीं? कुछ सेक्यूलरवादी पुरोधा इसके समर्थन में न्यायालय में भी गये हैं। इनका तर्क है कि भारत में सदा से ही शरणागत-रक्षा की परम्परा रही है। अतः इस बार भी इसका पालन होना चाहिए। भारतीय साहित्य में राजा शिबि की कथा आती है। एक बार वे दरबार में बैठे थे कि एक भयभीत कबूतर आकर उनकी गोद में छिप गया। उसके पीछे एक बाज भी आ गया। बाज ने राजा से कबूतर वापस मांगा। राजा ने यह कहकर मनाकर दिया कि शरणागत की रक्षा मेरा धर्म है। बाज ने कहा कि कबूतर उसका आहार है और उसका आहार छीनना भी अधर्म है। राजा ने उसे किसी और पशु-पक्षी का मांस देना चाहा, तो बाज ने कहा कि इस कबूतर को बचाने के लिए किसी और को मारना भी तो अधर्म ही है।

राजा बड़े असमंजस में पड़ गया। अंततः सहमति इस पर हुई कि राजा कबूतर के भार के बराबर अपना मांस दे दे। अतः तराजू के एक पलड़े में कबूतर और दूसरे में राजा अपना मांस रखने लगा; पर आधे से अधिक शरीर का मांस चढ़ने पर भी कबूतर वाला पलड़ा नीचे रहा। इस पर राजा स्वयं पलड़े में बैठ गये। ऐसा होते ही पलड़ा झुक गया। अब कबूतर और बाज भी अपने असली रूप में प्रकट हो गये। वे राजा की परीक्षा लेने आये इंद्र और अग्निदेव थे। ऐसी ही कथा श्रीराम के पूर्वज राजा दिलीप की भी है, जिन्होंने नंदिनी गाय की रक्षा के लिए सिंह के सामने स्वयं को प्रस्तुत कर दिया था।

शरणागत की रक्षा के कुछ ताजे प्रसंग और भी हैं। दो अक्तूबर 1996 को ग्राम सामतसर (चुरू, राजस्थान) के निहालचन्द बिश्नोई ने शिकारियों की गोली से घायल एक शरणागत हिरण की प्राणरक्षा में अपनी जान दे दी। 1999 में राष्ट्रपति महोदय ने उन्हें मरणोपरान्त ‘शौर्य चक्र’ से सम्मानित किया। जनसत्ता 1.5.2004 के अनुसार जिला जैसलमेर, राजस्थान के हरिसिंह राजपुरोहित ने शिकारियों से तीतर को बचाने के लिए अपने प्राण दे दिये। इंडिया टुडे 6.6.2005 के अनुसार जिला सुरेन्द्रनगर (गुजरात) के मुली कस्बे में गत 600 साल से वीर सोधा परमारों की याद में मेला होता है। यहां शरणागत घायल तीतर की रक्षार्थ सोधा और चाबड़ों में युद्ध हुआ था। इसमें 200 सोधा और 400 चाबड़ मारे गये थे। 

ये प्रसंग बताते हैं कि भारत में शरणागत की रक्षा की सुदीर्घ परम्परा है; पर इसका पालन विदेशी और विधर्मी के साथ करें या नहीं, यह भी विचारणीय है। क्योंकि यहां प्रश्न देश-रक्षा का भी है, जिसके सामने निजी प्रतिज्ञा या सम्मान बहुत छोटी चीज है। कुछ लोगों ने देश की बजाय निजी, जातीय या क्षेत्रीय सम्मान को महत्व दिया, जिससे आगे चलकर बहुत हानि हुई। वीर सावरकर ने इसे ही ‘सद्गुण विकृति’ कहा है। 

पंडित चंद्रशेखर पाठक कृत ‘पृथ्वीराज’ के अनुसार पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गौरी के चचेरे भाई ‘मीर हुसेन’ को शरण दी थी। गौरी और मीर हुसेन दोनों एक वेश्या ‘चित्ररेखा’ के आशिक थे। मीर हुसेन इसे गजनी से भगाकर ले आया। उसकी याचना पर नागौर के जंगल में शिकार खेल रहे पृथ्वीराज ने उसे शरण दे दी। साथ ही हिसार और हांसी की जागीर देकर उसे दरबार में अपने दाहिने हाथ की ओर बैठने का सम्मान भी दिया। पता लगने पर मो. गौरी ने इन्हें वापस मांगा; पर पृथ्वीराज नहीं माने। इसका दुष्परिणाम क्या हुआ, यह सबको पता है। कहते हैं कि पृथ्वीराज और गौरी के बैर का यही मुख्य कारण था।

ऐसे ही रणथंभौर के शासक हमीरदेव ने भी अलाउद्दीन खिलजी के एक विद्रोही सेनानायक मीर मोहम्मद शाह और उसके कुछ साथियों को शरण दे दी। शाह कुछ समय पहले ही मुसलमान बना था तथा अलाउद्दीन से उसके मतभेद का कारण गुजरात की लूट का बंटवारा था। इससे अलाउद्दीन और हमीरदेव में युद्ध हुआ। हमीरदेव, उनका पूरा परिवार, सेना और राज्य बलि चढ़ गया; पर वे पीछे नहीं हटे। तभी से ये कहावत प्रसिद्ध है - 

सिंह गमन, सत्पुरुष वचन, कदली फले इक बार

तिरया तेल, हमीर हठ, चढ़े न दूजी बार।

मेड़ता के शासक राव जयमल एक समय अकबर के मित्र थे। कई युद्धों में दोनों ने एक-दूसरे का साथ दिया; पर जब जयमल ने अकबर के एक विद्रोही सेनापति सर्फुद्दीन को शरण दी, तो उनके संबंध बिगड़ गये। अतः अकबर ने मेड़ता पर हमला कर जयमल को भागने पर मजबूर कर दिया। जयमल को मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह ने शरण देकर बदनौर की जागीर प्रदान की। इससे अकबर मेवाड़ पर चढ़ गया। इस युद्ध में जयमल मारा गया। उसके पुत्र कुंवर शार्दूल सिंह ने भी सर्फुद्दीन की रक्षा में वीरगति पायी, जब वह उसे नागौर से मेड़ता ला रहा था। कहते हैं कि तभी से अकबर के मन में मेवाड़ राज्य के प्रति स्थायी शत्रुता के बीज पड़े, जो महाराणा प्रताप के काल में भी जारी रही।

इन प्रसंगों का निष्कर्ष बस इतना ही है कि यदि हिन्दू राजाओं ने शरण देते समय विदेशी और विधर्मियों की मानसिकता का ध्यान रखा होता, तो उन्हें और भारत को दुर्दिन नहीं देखने पड़ते। ‘‘लम्हों ने खता की और सदियों ने सजा पायी..’’ ऐसी ही गलतियों के लिए कहा गया है। इस संदर्भ में रोहिंग्या समस्या पर विचार करें, तो स्पष्ट हो जाता है कि इन्हें शरण देना भारत के वर्तमान और भविष्य दोनों के लिए घातक है।

-विजय कुमार

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