अपराधियों को दूर रखने का अदालती सुझाव नहीं मान सकते राजनीतिक दल

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सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव लड़ने वाले आपराधिक छवि के नेताओं के लिए अपराधों का विवरण सार्वजनिक करना अनिवार्य कर दिया है। मीडिया के माध्यम से ऐसे उम्मीदवारों को अपने काले कारनामों का विवरण देना होगा।

सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव लड़ने वाले आपराधिक छवि के नेताओं के लिए अपराधों का विवरण सार्वजनिक करना अनिवार्य कर दिया है। मीडिया के माध्यम से ऐसे उम्मीदवारों को अपने काले कारनामों का विवरण देना होगा। इससे अब आम मतदाताओं को पता चल सकेगा कि उनका प्रतिनिधित्व करने वाले प्रत्याशी की छवि कैसी है। सुप्रीम कोर्ट की मंशा यही है कि जब तक संसद−विधानसभाओं में ऐसे उम्मीदवारों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने का कानून नहीं बन जाता, तब तक चुनाव के दौरान मतदाताओं को अपराधों की जानकारी होते रहनी चाहिए। इससे कम से कम प्रत्याशियों का चुनाव करते समय मतदाताओं को पता रहेगा कि उस पर कितने और कैसे अपराधों के आरोप लगे हैं। इससे स्वच्छ छवि का उम्मीदवार चुनने में भी आसानी होगी। 

प्रत्याशियों के अपराधों की जानकारी सार्वजनिक कराने के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद मतदाताओं को यह शिकायत नहीं रहेगी कि जानकारी के अभाव में गलत प्रत्याशी का चयन कर लिया। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के जरिए अपराध और चुनाव के बीच में एक दीवार खड़ी कर दी है। हालांकि अपराधी किस्म के नेता कम शातिर नहीं हैं। बाहुबल और धनबल के प्रभाव से सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का असर मतदाताओं पर पड़ने से रोकने के लिए ऐसे नेता पुरजोर कोशिश करेंगे। आश्चर्य की बात तो यह कि लोकतंत्र और देश को बचाने की दुहाई देने वाले तमाम राजनीतिक दलों के लिए गंभीर आरोपियों का चुनाव लड़ना मुद्दा ही नहीं रहा। 

इस मामले में सभी दल एक−दूसरे कोई आईना दिखाते रहे हैं। सभी यह कह कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते रहे हैं कि दूसरी पार्टी में भी अपराधी हैं। राजनीतिक दलों का काम दूसरों की गंदगी को दिखाने तक सीमित रहा है। अपने दामन पर लगे दाग उन्हें कभी दिखाई ही नहीं देते। दरअसल राजनीतिक दलों का पूरा जोर चुनाव जीतना भर रहा है। इसके लिए प्रत्याशियों की पात्रता और शुचिता से किसी का वास्ता नहीं है। उम्मीदवारों पर बेशक कितने ही आपराधिक आरोप क्यों न लगे हों। इससे किसी का सरोकार नहीं है। चुनाव में टिकट काटने का आधार अपराध कभी नहीं रहा। यही वजह रही कि कांग्रेस, भाजपा सहित क्षेत्रीय दलों ने माफिया और गैंगस्टरों तक को चुनाव लड़ाने से परहेज नहीं बरता। जिनके खिलाफ, हत्या, बलात्कार, डकैती और अपरहण जैसे मुकदमों का अम्बार लगा हुआ है। 

बिहार और उत्तर प्रदेश तो इस मामले में सबसे बदनाम और आगे रहे हैं। कमोबेश देश का शायद ही ऐस कोई राज्य या राजनीतिक दल होगा, जिसमें दागी जनप्रतिनिधि नहीं हों। सत्ता की खातिर राजनीतिक दल दागियों को जनप्रतिनिधि बनवाने तक ही सीमित नहीं रहे। देश का और लोकतंत्र का इससे बड़ा अपमान और क्या होगा कि जातिगत, क्षेत्रीय और धार्मिक समीकरणों के मद्देनजर ऐसे आपराधिक आरोपों वाले जनप्रतिनिधियों को मंत्री की कुर्सियां तक दी गईं। बेशर्मी की हद तो यह है कि राजनीतिक दल अपराधी की पैरवी करने तक को उतारू हो जाते हैं। उनके अपराधों के लिए विपक्षी दलों पर रंजिश वश झूठे मुकदमे दर्ज करवाए जाने के आरोप लगाए जाते हैं।

एक−दूसरे पर बात−बेबात बरसने वाले राजनीतिक दलों के लिए अपराधियों को टिकट नहीं दिए जाना कभी मुद्दा नहीं रहा। इसके विपरीत हर चुनाव में बढ़−चढ़ कर टिकट दिए जाते रहे हैं। ऐसे मामलों में किसी भी दल को शर्म, अपमान और राष्ट्रवाद नजर नहीं आता। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में संसद से कानून बनाने का आग्रह किया है, ताकि दागियों को चुने लड़ने से रोका जा सके। इसके बाद भी इस बात की संभावना क्षीण है कि सत्तारुढ़ भाजपा और विपक्षी दल इस पर सहमत हो सकेंगे। कारण साफ है कि यह सुप्रीम कोर्ट का सुझाव है, निर्देश नहीं। वैसे भी सुप्रीम कोर्ट संसदीय मामलों में सीधे दखलंदाजी से बचता रहा है। यदि संसद में यह कानून बन जाता है तो सभी दलों को अपने जिताऊ अपराधी नेताओं के टिकट काटने पड़ेंगे। इसके लिए शायद ही कोई दल आसानी से तैयार होगा। राजनीतिक दल अपने क्षुद्र स्वार्थों के लिए सुप्रीम कोर्ट के ऐसे सुझावों को और निर्णयों को पूर्व में भी दरकिनार करते रहे हैं, जिसमें वोट बैंक के खिसकने का खतरा हो। मामला चाहे शाहबानो का रहा हो या एससी-एसटी एक्ट में संशोधन का। 

ऐसे मामलों में सभी दलों ने अपनी रोटी सेंकने का काम किया है। राजनीतिक दलों की यह प्रवृत्ति बन गई है कि किसी भी सूरत में सत्ता प्राप्त करनी है, उससे भले ही देश का कितना ही नुकसान क्यों न हो। देश की चुनाव प्रक्रिया में सुधारों की मांग अर्से से उठती रही है। चुनाव आयोग कई बार ऐसा प्रयास कर चुका है। चूंकि आयोग के पास अपराधी उम्मीदवारों को रोकने के लिए कोई कानून हथियार नहीं है, इसलिए आयोग बेबस रहा है। आयोग ने मौजूदा और पूववर्ती सरकारों से कई बार गुहार लगाई है। चुनाव सुधारों में प्रमुख मांग आपराधिक आरोपों वाले नेताओं को चुनाव से दूर रखने की रही है। 

देश में परिपक्व होती लोकतांत्रिक प्रक्रिया की मजबूती के लिए यह जरूरी भी है कि दागियों के चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगाई जाए। संसद और विधान सभाओं में गंभीर किस्म के अपराधियों की मौजूदगी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि लोकतंत्र किस दिशा में जा रहा है। गंभीर अपराधों के आरोपों के जनप्रतिनिधियों से देशहित की उम्मीद रखना बेमानी है। ऐसे दागदार जनप्रतिनिधि सत्ता में आने पर उसका दुरूपयोग गवाहों को डराने−धमकाने और सबूतों को मिटाने के लिए करते हैं। सत्ता की मौजूदगी उनके अपराधों के लिए ढाल का काम करती है। सुप्रीम कोर्ट ने अपराधियों के चुनाव लड़ने में बाधा उत्पन्न करके अपनी नैतिक बल्कि राष्ट्रीय जिम्मेदारी पूरी की है। ऐसे तत्वों को चुनावों से दूर रखने के लिए राजनीतिक दल क्या कवायद करते हैं, देखना यही है।

-योगेन्द्र योगी

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