किस दल में कितना अनुशासन है, यह टिकट वितरण के बाद सबको दिख गया

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बोए बीज बबूल के तो आम कहां से खाएं'', देश के पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों में राजनीतिक दलों की यही हालत हो गई है। प्रमुख राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों का देश सेवा, राष्ट्रीय एकता−अखंडता और राष्ट्रवाद के सिद्धान्तों का मुखौटा उतर गया है।

'बोए बीज बबूल के तो आम कहां से खाएं', देश के पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों में राजनीतिक दलों की यही हालत हो गई है। प्रमुख राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों का देश सेवा, राष्ट्रीय एकता−अखंडता और राष्ट्रवाद के सिद्धान्तों का मुखौटा उतर गया है। राजनीतिक दलों में टिकटों को लेकर घमासान मचा हुआ है। जिन राज्यों में टिकटों की घोषणा हो चुकी है, उनमें पार्टी के संभावित दावेदार बगावत पर उतारू हैं। राष्ट्रीय हों या क्षेत्रीय, सभी राजनीतिक दलों को बगावत की मुसीबत से जूझना पड़ रहा है। इस मामले में कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दलों का तो इतिहास ही दागदार रहा है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि भारतीय जनता पार्टी जैसी कैडरबेस और अनुशासित मानी जाने वाली पार्टी को भी अन्य दलों की तरह इसी तरह की मुसीबत का सामना करना पड़ रहा है।

टिकट से वंचित दावेदार अधिकृत प्रत्याशियों के सामने ताल ठोंक रहे हैं। सभी दल डैमेज कंट्रोल की कवायद में लगे हुए हैं। टिकट वितरण की समस्या सभी दलों के लिए पहाड़ जैसी हो गई है। भाजपा, कांग्रेस सहित अन्य दलों ने प्रत्याशियों के चयन के लिए अलग−अलग फार्मूले निकाले, किन्तु दावेदारों की भीड़ के सामने सब फेल हो गए। अनुशासन और पार्टी लाइन की धज्जियां उड़ गईं। कई क्षेत्रों में अधिकृत प्रत्याशियों के सामने एक पार्टी के कई−कई दावेदार खड़े हो गए। पार्टियों के लाख समझाने के बावजूद दावेदार शक्ति प्रदर्शन में पीछे नहीं रहे।

राज्य मुख्यालयों से लेकर दिल्ली में पार्टी मुख्यालयों पर दावेदारों और उनके समर्थकों के जमावड़े ने पार्टियों के कर्ताधर्ताओं की नींद हराम कर दी। हालात यह हो गए कि टिकट वितरण की प्रणाली को ही गुप्त नहीं रखा गया बल्कि वरिष्ठ नेता स्थान बदल−बदल कर बैठक करने को विवश हो गए। प्रदेशों की राजधानियों में भी यही आलम रहा। दावेदार प्रदेश कार्यालयों और मुख्यमंत्री आवासों पर टिकटों के लिए जोर−आजमाइश में जुटे हुए हैं। टिकट वितरण में लुकाछिपी के इस खेल में पार्टियों के आलाकमान और उनके सिपहसलार कोई रिस्क नहीं लेना चाहते। प्रत्याशियों की छवि के साथ उनके जातिगत समीकरण, धर्म, सम्प्रदाय, भौगोलिक क्षेत्र, अनुभव और धन का दमखम आंकने पर मंथन चल रहा है।

टिकट वितरण में इन सबके अलावा प्रदेश स्तर पर पार्टियों में बनी खेमेबंदी की अहम् भूमिका है। प्रदेश स्तर के नेता अपने ज्यादा से ज्यादा समर्थकों को टिकट दिलाने में तुले हुए हैं। कारण भी साफ है इससे उनकी मुख्यमंत्री की दावेदारी मजबूत होगी। चुनाव के बाद यदि मुख्यमंत्री के नाम के चयन को लेकर कोई विवाद उत्पन्न हुआ तो नेताओं की जीते हुए समर्थक ही राह आसान करेंगे। इन तमाम समीकरणों के चलते ही टिकटों को लेकर संग्राम की स्थित बिनी हुई है। टिकट वितरण में पार्टी के प्रति निष्ठावान, ईमानदार और कर्मठ कार्यकर्ताओं का नामों−निशां तो दूर−दूर तक नहीं है।

कमोबेश यह स्थिति मुख्य प्रतिद्वंद्वी दल भाजपा और कांग्रेस दोनों में बनी हुई है। ऐसे कार्यकर्ता या छोटे पदाधिकारियों के हाथ हर बार की तरह इस बार भी निराशा ही हाथ लगी है। सवाल यह है कि आखिर इतने सारे दावेदार टिकट की चाहत क्यों रखते हैं। टिकटों के मामले में राजनीतिक दलों का अनुशासन कहां गायब हो जाता है। विधायक बनने का इतना लालच क्यों हैं। कहने को सभी दावेदार और राजनीतिक दल समाज और देश सेवा के लिए जनप्रतिनिधि बनने की दलील देते हैं। हकीकत इसके विपरीत है। राजनीति ऐसी मलाई की कढ़ाई बन गई, जिसे देख कर सब अपना स्वार्थ पूरा करना चाहते हैं।

सेवा का रास्ता महज राजनीति नहीं है। सेवा के दूसरे रास्ते भी हैं। किन्तु दूसरे रास्तों पर मलाई नहीं है। टिकट के दावेदारों ने बरसों तक अपने क्षेत्र के विधायक, सांसद और मंत्रियों की सेवा की है। उन्हें इस बात का अंदाजा है कि जनप्रतिनिधि चुने जाने के बाद हैसीयत कैसे बदल जाती है। मौजूदा राजनीतिक दौर में व्याप्त भ्रष्टाचार, बेईमानी, पक्षपात, भाई−भतीजावाद जैसी बुराइयों के घातक रोग लगे हुए हैं। ऐसे जनप्रतिनिधियों और मंत्रियों की संख्या उंगलियों पर गिनने लायक ही बची है, जिनमें वाकई देश सेवा का जज्बा बचा हो। यही वजह है कि आम लोगों और मतदाताओं की नजर में नेताओं की प्रतिकूल छवि बनी हुई है।

पार्टियों के नेताओं को लगता है कि एक बार चुनाव जीत गए तो कई पीढ़ियों का इंतजाम हो जाएगा। इससे न केवल भविष्य में परिवार के सदस्यों को राजनीति की विरासत थाली में तैयार मिलेगी, बल्कि धन−सम्पदा का भी पक्का इंतजाम हो जाएगा। टिकट को लेकर चल रही मची आपाधापी का यही कारण है। इस हालत के लिए जिम्मेदार पार्टियों के वरिष्ठ नेता है। पक्षपातपूर्ण तरीके से टिकटों का वितरण किसी से छिपा नहीं रहता। सबके अपने−अपने गुट बने हुए हैं। ऐसे में जायज दावेदारों के सब्र का पैमाना छलकना वाजिब है। कहने को सभी दल अनुशासन की दुहाई देते हैं, किन्तु इसकी तलवार आसानी से म्यान से बाहर नहीं निकलती। उल्टे सत्ता पाने के चक्कर में खिलाफत करने वाले उम्मीदवारों की मान−मनोव्वल वरिष्ठ नेताओं से करवाई जाती है। यहां तक पार्टी की सरकार बनने पर उन्हें निगमों−बोर्डों का चेयरमैन बनाने का लालच दिया जाता है।

यह परिपाटी सालों से चली आ रही है। यही वजह है कि सभी राजनीतिक दल टिकट वितरण के मामले में अनुशासन की चिंदियां उड़ाते नजर आते हैं। ऐसी राजनीतिक अराजकता ही देश को खोखला कर रही है। जब नींव ही खोखली होगी तो उस पर बनने वाली राजनीतिक इमारत भी जर्जर हालत में होगी। ऐसे में देश के भले की उम्मीद करना बेमानी है। शुरुआती स्तर पर ही दिखावटी नीति और प्रक्रिया में घपलेबाजी का पाठ पढ़ने वाले दावेदारों से आर्दशवादी नेता बनने की उम्मीद नहीं की जा सकती। यही वजह है कि देश के हर कोने से जनप्रतिनिधि बने नेताओं के काले कारनामों की खबरें आती रहती हैं। यह निश्चित है कि जब तक मौका देख कर कायदे बदलते रहेंगे, तब तक राजनीतिक दलों के प्यालों में तूफान आते रहेंगे। चुनावों के मौकों पर राजनीतिक दल तमाशा बने रहेंगे और देश में लोकतंत्र कमजोर होता रहेगा।

-योगेन्द्र योगी

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