असंतुलित आर्थिक नीतियां बढ़ा रही हैं अमीरी गरीबी की खाई

Indian Economy
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आंकड़ों के मुताबिक 5 साल पहले रियल एस्टेट की कुल बिक्री में अफोर्डेबल हाउसिंग की हिस्सेदारी 40 प्रतिशत थी, जो अब घटकर महज 18 प्रतिशत रह गई है। इस महीने पेश हुए बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने मध्यम वर्ग की जेब ढीली करने के लिए टैक्स में छूट दी।

देश के लगभग 100 करोड़ भारतीयों के पास इतनी आय नहीं है कि वे विवेकाधीन वस्तुओं पर कुछ भी खर्च कर सकें। अर्थात वे किसी भी प्रकार से किसी भी वस्तु पर अतिरिक्त खर्च करने में असमर्थ हैं। लोग जरूरत के अलावा सामान या सुविधाएं नहीं खरीद सकते। वहीं, देश के केवल 10 फीसदी लोग, अर्थात 13-14 करोड़ लोग देश की अर्थव्यवस्था को चला रहे हैं, क्योंकि ये लोग ही सबसे ज्यादा खर्च करते हैं और देश की तरक्की में बड़ा रोल निभाते हैं। केंद्र सरकार एक तरफ देश में तरक्की का नया मॉडल पेश करते हुए विकसित भारत की तरफ बढ़ते कदमों का आंकड़ा पेश करती है, वहीं गरीबी और अमीरी की बढ़ती खाई ने इस मॉडल पर सवालिया निशान लगा दिए हैं। ब्लूम वेंचर्स की इंडस वैली की वार्षिक रिपोर्ट 2025 भारत की आर्थिक विषमता की यह तस्वीर पेश करती है। इस रिपोर्ट का सरकार द्वारा किसी तरह प्रतिवाद नहीं किए जाने से साफ जाहिर है कि देश की आर्थिक सेहत एक तरफा जा रही है। अमीरी और गरीबी की खाई का चौड़ा होना जारी है। रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि भारत का उपभोक्ता बाजार बड़े स्तर पर विस्तार नहीं कर रहा है, बल्कि एक ही जगह गहरा होता जा रहा है। इसका मतलब यह है कि भले ही अमीर लोगों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हो रही है, लेकिन जो लोग पहले से ही अमीर हैं, वे और भी अमीर हो रहे हैं।

आंकड़ों के अनुसार शीर्ष 10 प्रतिशत भारतीयों (10 सबसे अमीर भारतीय) के पास अब कुल नेशनल आय का 57.7 प्रतिशत हिस्सा है, जो पहले 1990 में 34 प्रतिशत था, जबकि निचले स्तर पर यह हिस्सा पहले के 22.2 प्रतिशत से घटकर 15 प्रतिशत रह गया है। इसके अलावा, 30 करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्होंने हाल फिलहाल खर्च करना शुरू किया है। ये लोग भी अपने खर्च को लेकर बहुत सावधान हैं। खर्च करने वाला वर्ग बढ़ नहीं रहा!   

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आंकड़ों के मुताबिक 5 साल पहले रियल एस्टेट की कुल बिक्री में अफोर्डेबल हाउसिंग की हिस्सेदारी 40 प्रतिशत थी, जो अब घटकर महज 18 प्रतिशत रह गई है। इस महीने पेश हुए बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने मध्यम वर्ग की जेब ढीली करने के लिए टैक्स में छूट दी। 12 लाख रुपये तक कमाई करने वालों को अब इनकम टैक्स नहीं देना होगा जिससे 92 प्रतिशत वेतनभोगी लोगों को राहत मिलेगी। इसके बावजूद भारत की खपत चीन से 13 साल पीछे है। वर्ष 2023 में भारत में प्रति व्यक्ति खर्च 1,493 डॉलर था, जबकि चीन में वर्ष 2010 में ही ये 1,597 डॉलर था। माइक्रोफाइनेंस सेक्टर में भी हालात ठीक नहीं हैं। माइक्रोफाइनेंस सेक्टर में बढ़ता कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है। दिसंबर 2024 तक इस सेक्टर के नॉन-परफॉर्मिंग असेट्स (एनपीए) 50,000 करोड़ रुपये तक पहुंच गया। ये अब तक का सबसे ऊंचा स्तर है और कुल लोन का 13 प्रतिशत है। अमीर-गरीब के बीच की खाई भारत में कभी छिपी नहीं रही है। यह खाई और चौड़ी हो गई है। माइक्रोफाइनेंस का मतलब है गरीब परिवारों को बिना गारंटी के लोन देना। इन परिवारों की सालाना कमाई 3 लाख रुपये से कम होती है। ज्यादातर महिलाएं इन लोन का इस्तेमाल करती हैं। लेकिन ज्यादा लोन देने की होड़ में हालात बिगड़ गए हैं। बंधन बैंक, इंडसइंड, आईडीएफसी फस्र्ट जैसे बैंकों के एनपीए बढ़ गए हैं। बंधन बैंक के 56,120 करोड़ रुपये के लोन में से 7.3 प्रतिशत एनपीए हो चुके हैं। एनपीए वो कर्ज है जिसकी कोई भी किश्त 180 दिनों तक चुकाने में लेनदार असफल हो जाता है। इसके बाद बैंकों को इस तरह के लोन को एनपीए में डालना होता है। हालांकि इस लोन की वसूली की कोशिश जारी रहती है और कई बार ये पूरा या आंशिक तौर पर वापस मिल जाता है।   

आंकड़ों के मुताबिक 91 से 180 दिन का बकाया लोन कुल आउटस्टैंडिंग का 3.3 फीसदी है, जबकि 180 दिन से ज्यादा बकाया लोन 9.7 प्रतिशत है। माइक्रोफाइनेंस को लेकर अब संस्थान भी सतर्कता बरत रहे हैं। क्योंकि उन्हें एनपीए अभी और बढऩे की आशंका है। भारतीय रिजर्व बैंक ने लोन पर रिस्क वेट घटाया इसी बीच बिजनेस लोन पर जोखिम वेट 125 प्रतिशत से घटाकर 75 प्रतिशत कर दिया है, जिससे बैंकों को राहत मिलेगी। छोटे बैंकों को हो रहे नुकसान को देखते हुए इस नियम में बदलाव से इन्हें फायदा मिल सकता है। देश में बढ़ती आर्थिक असमानता की तरफ पूर्व में चेतावनी मिल चुकी है। 12 अप्रैल 2024 को पेरिस स्थित शोध संगठन वल्र्ड इनइक्वेलिटी लैब की ओर जारी एक शोधपत्र में बताया गया था कि देश के शीर्ष एक फीसद तबके की आमदनी और संपत्ति में हिस्सेदारी अपनी ऐतिहासिक ऊंचाई पर पहुंच गई है और यह दुनिया में सबसे ज्यादा है। शोधपत्र के निष्कर्षों में कहा गया है कि साल 2023 तक सबसे अमीर एक फीसद भारतीयों के पास देश की आय का 22.6 फीसद और संपत्ति का 40 फीसद हिस्सा था। इनकम ऐंड वेल्थ इनइक्वेलिटी इन इंडिया, 1922-2023 द राइज ऑफ बिल्यनेर राज शीर्षक वाले शोधपत्र के अनुसार आजादी के बाद से 1980 के दशक की शुरुआत तक गैर-बराबरी में कमी आई थी लेकिन इसके बाद इसमें बढ़ोतरी शुरू हो गई और 2000 के दशक की शुरुआत में यह बहुत तेज गति से बढ़ी। देश के शीर्ष एक फीसद लोगों ने 2022-23 में औसतन 53 लाख रुपए कमाए, जो औसत भारतीय की आय से 23 गुना अधिक है जिसने 2.3 लाख रुपए की आय सृजित की। देश के निचले पायदान के 50 फीसद और बीच के 40 फीसद लोगों की औसत आय क्रमश 71, 000 रु. (राष्ट्रीय औसत का 0.3 फीसद) और 1,65,000 रु. (राष्ट्रीय औसत का 0.7 फीसद) रही  सबसे अमीर 9,223 लोगों (9.2 करोड़ वयस्क भारतीयों में से) ने औसतन 48 करोड़ रुपए कमाए (औसत भारतीय आय से 2,069 गुना)। भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद निजी उद्यम में वृद्धि और पूंजी बाजार की वृद्धि ने शीर्ष के कुछ ही लोगों के हाथों में संपत्ति का सिमटना बढ़ाया है। उदारीकरण के बाद से सेवा की अगुआई में हुई आर्थिक वृद्धि के भी असमानताकारी असर हुए। इस पूरे हालात से साफ है कि भारत की खपत ग्रोथ संतुलित नहीं है। एक तरफ जहां अमीर और अमीर हो रहे हैं, वहीं गरीब और गरीब जिसके लिए आने वाले समय में सरकार को बड़े कदम उठाने होंगे जिससे आर्थिक असमानता कम हो सके।

- योगेन्द्र योगी

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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