CBSE परीक्षा के अंकों पर उठे रहे सवालों के असल जिम्मेदार कौन?

50% Class 12 CBSE students who asked for re-evaluation got more marks

मई का अंतिम पखवाड़ा व जून का पहला सप्ताह कितना गरम होता है। कभी अनुमान लगाएं तो पाएंगे कि पूरा बाज़ार, परिवार, परिवेश हमें ताकीद करता है कि हां गांव, कस्बा, शहर और महानगर में परीक्षा का मौसम है। और है तनाव का माहौल।

मई का अंतिम पखवाड़ा व जून का पहला सप्ताह कितना गरम होता है। कभी अनुमान लगाएं तो पाएंगे कि पूरा बाज़ार, परिवार, परिवेश हमें ताकीद करता है कि हां गांव, कस्बा, शहर और महानगर में परीक्षा का मौसम है। और है तनाव का माहौल। जिधर नज़र दौड़ाएं वहीं परीक्षा का भय पसरा होगा। घरों में टीवी मनोरंजन, नाते−रिश्तेदारों की आवाजाही सब बंद। आखिर किसके लिए? उस परीक्षा के लिए जहां अंकों पर किसी की योग्यता तय की जाती है। वह अंक जिसमें काफी बड़ी गड़बड़ी से मुंह नहीं फेर सकते। मूल्यांकन और पुनर्मूल्यांकन में अंकों में बड़े फांक को देखकर एकबारगी महसूस होता है हमारे लाखों किशोर−किशोरियां किस तरह के जाल में फंसे हुए हैं।

दसवीं और बारहवीं की परीक्षा का जिम्मा हालांकि राज्य स्तर पर विभिन्न परीक्षा समितियों, बोर्ड के जिम्मे है लेकिन इसके साथ ही केंद्रीय माध्यमिक परीक्षा बोर्ड की अहमियत इससे कम नहीं हो जाती। देशभर में हज़ारों और लाखों की संख्या में सीबीएसई के तहत परीक्षा आयोजित होने वाले मेले में बच्चे भाग लेते हैं। इसी उम्मीद में कि इसे बोर्ड की मान्यताओं पर कहीं भी किसी भी स्तर पर प्रश्न नहीं खड़ा किया जा सकता। एकबार के लिए राज्य परीक्षा बोर्ड के अंकों पर सवालिया निशान तो लगते ही रहे हैं कि फलां राज्य में तो अंक मुक्त हाथ से बांटे जाते हैं आदि आदि। वहीं हाल ही में केंद्रीय माध्यमिक परीक्षा बोर्ड के अंकों और मूल्यांकन पर देश भर में विभिन्न धड़ों से सवाल खड़े किए गए। यह एकदम अप्रत्याशित भी नहीं। सीबीएसई के अध्यक्ष ने भी स्वीकार किया है कि हां पुनर्मूल्यांकन में आए अंतर कहीं न कहीं हमारी व्यवस्था की खामी है।

सिर्फ यह स्वीकार कर लेने से परीक्षा और मूल्यांकन की खामियों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता क्योंकि आज की तारीख में हक़ीकत यह है कि हम किसी की भी दक्षता, कौशल और योग्यता को उसे हासिल अंकों से ही आंका करते हैं। उसने परीक्षा कैसे और किस स्तर पर सफलता प्राप्त की। इसके पीछे से परिश्रम और मेहनत को आंकने की बजाए छात्र तीन घंटे में किस शिद्दत से, कितना दक्षता से अपने आप को लिख कर अभिव्यक्त कर पाता है हमारा सारा का सारा ध्यान लेखन और पुनर्लेखन कौशल पर केंद्रित हो चुका है। संभव है कोई बच्चा उस खास वक़्त व घंटे में किसी किस्म के दबाव भावनात्मक, संवेदनात्मक व अन्य बाहरी दबावों में आकर लिखकर प्रस्तुत करने में पिछड़ गया हो। लेकिन इसके यह मायने बिलकुल नहीं हैं कि उसके अंदर इल्मी तालीमी नहीं हो सकती।

बच्चों के सतत् मूल्यांकन के लिए परीक्षा को समय समय पर पुनर्परिभाषित करने और पुनर्निर्माण की कोशिश होती रही है। परीक्षा की प्रकृति को समझे बगैर हम मूल्यांकन को दुरुस्त नहीं कर सकते। पीछे शिक्षा और परीक्षा का इतिहास बताता है कि परीक्षा के बारे में राष्ट्रीय शिक्षा नीति, राष्ट्रीय शिक्षा आयोगों, कोठारी आयोग से लेकर जेएस वर्मा समिति ने भी अपने शैक्षिक अनुभवों के आधार पर परीक्षा में तब्दीली लाने की वकालत की है। इतनी संस्तुतियों और सिफारिशों के बावजूद क्या वजह है कि लगातार परीक्षा और शिक्षा के साथ दोयम दर्ज़े का बरताव किया जाता है? क्या कारण है कि परीक्षा और शिक्षा हमेशा राजनीतिक निशाने पर रही हैं ? दरअसल शिक्षा और परीक्षा शुरू से ही राजनीति हित साधने में मकूल ज़रिया रही हैं। इसका प्रयोग किया ही जाता रहा है। शिक्षा और परीक्षा वह सॉफ्ट टॉरगेट हैं जिनके मार्फत हम बच्चों की मनोजगत् को आसानी से छू और बदल सकते हैं। यही कारण है कि शिक्षा में कभी कोई खास वर्ग, विचार ठूंसा जाती है तो दूसरा वर्ग जब सत्ता में आता है तब वह पुराने एजेंडे को बदल कर अपना हित साधता है। हमने कभी गंभीरता से मंथन ही नहीं किया कि इन उपक्रमों में सबसे ज़्यादा हानि हमारे बच्चों और देश की बुनावट को उठानी पड़ती है।

सतत् मूल्यांकन जिसे सीसीई के नाम से हम सभी जानते हैं। यह सीसीई अपने आप में मुकम्मल था। फिर कहां गड़बड़ी रह गई कि हमें इसे उलटने की आवश्यकता महसूस होने लगी। यदि हम ठहर कर विमर्श कर सकें तो पाएंगे कि सतत् मूल्यांकन को यदि अच्छे और योजनाबद्ध तरीके से स्कूलों में उतारा और संचालित किया जाता तो कोई वज़ह नहीं कि यह सफल न होता। दरअसल शिकायत मोड में हम किसी भी प्रोजेक्ट या प्रोग्राम के बेहतर पहलु को कहीं पीछे छोड़ देते हैं। आलोचना के क्रम में हम भूल जाते हैं कि इस प्रोजेक्ट व मूल्यांकन की प्रक्रिया से दूरगामी क्या प्रभाव होने वाले हैं। इन्हीं शिकायतों और बेहतर समझ की कमी की शिकार हुई सतत् मूल्यांकन पद्धति। जिस परीक्षा को हमने 2006 में केब की सिफारिशों पर शुरू किया उसमें भी बड़ी खामी यही रही कि हमने पूरे मूल्यांकन की बुनियाद को ही अंकीय और बहुवैकल्पिक सवालों के कंधे पर बैठा दिया।

इससे हुआ यह कि बच्चे बहुवैकल्पिक सवालों के जवाब देकर अंक तो लाने लगे। इनके पास होने की संख्या भी बढ़ी। साथ ही 90 और 98 फीसदी अंक आसानी से हासिल होने लगे। इससे कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में नामांकन के स्तर और चुनौतियों में गहरी खाई बन गई। एक बड़ा हिस्सा जो नब्बे से नीचे था उन्हें मुख्यधारा के शिक्षा संस्थानों में दाखिले नहीं मिले। ऐसे लाखों बच्चों को निजी विश्वविद्यालयों व कॉलेजों में लाखों रुपए देकर महंगी शिक्षा लेनी पड़ रही है।

केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के हालिया बारहवीं की परीक्षा में पुनर्मूल्यांकन के दौरान पाया कि 66,876 आवेदित प्रतिभागियों में से 4632 बच्चों के अंकों में अंतर पाए गए। प्रतिशत में बात करें तो यह 6.9 होता है। यदि कुल बच्चों की उत्तर पुस्तिकाओं की नज़र से देखा जाए तो यह 0.075 फीसदी बनता है। बात फीसदी की नहीं बल्कि सवाल यह है कि बच्चों को इस प्रकार की व्यवस्थागत खामियों का हरज़ाना क्यों भुगतना पड़े। इस तर्क के आधार पर इस जिम्मेदारी से पीछे नहीं भाग सकते कि यह महज मानवीय भूल है, या संख्या कम है। अंतरराष्ट्रीय मानकों के हवाले से बात करें तो उत्तर पुस्तिकाओं को जांचने में यदि दो व्यक्ति की भूमिका है तो उसके मूल्यांकन में 5 से 7 फीसदी तक का अंतर हो सकता है।

-कौशलेंद्र प्रपन्न

(शिक्षा एवं भाषा पैडागोजी विशेषज्ञ)

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