ताली-थाली और लॉकडाउन से सब कुछ ठहर जाने के 68 दिन

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ANI

22 मार्च को 14 घंटे का जनता कर्फ्यू और 22 मार्च को ही सायंकाल ताली, थाली, घंटी बजाने के प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी के आह्ववान को भरपूर समर्थन मिला पर लोग उस समय तक कोरोना की भयावहता को लेकर इतने गंभीर नहीं दिखे।

कोरोना के कारण देश दुनिया में सब कुछ थम जाने का दौर आज तो ना भूतो ना भविष्यती जैसा लग रहा है पर जिन्होंने कोरोना की भयावहता से गुजरने वालों के लिए आज भी यह किसी इतिहास की अब तक की किसी त्रासद घटना से कम नहीं है। जब रक्त बीज की बात की जाती है तो कपोल कल्पना से कम नहीं लगती पर जिन्होंने कोरोना का नजदीक से देखा और भुगता है वह जानते हैं कि राक्षस रक्त बीज से कम नहीं था कोरोना वायरस। रक्त बीज में भी तो यही है कि उसके रक्त की बूंद जहां भी गिरेगी वहीं नया राक्षस पैदा हो जाएगा। लगभग यही कुछ देखा है देश दुनिया के लोगों ने कोरोना काल में। गरीब हो या अमीर, साधन संपन्न हो या साधन विहीन, झोपड़ी वासी हो या महल में निवास करने वाला, लगभग सभी कोरोना के उस दौर में घर की चार दीवारी में बंद हो कर रह गए। कोविड 19 से दुनिया में सब कुछ थमा कर रख दिया। हालात ही ऐसे थे। संपर्क ही जान लेवा बन रहा था। सेनेटाइजर, मास्क, डिस्टेंस, चार दीवारी, क्वरंटाइन और बस यही कुछ देखने सुनने को मिलता था तो अस्पतालों में कोरोना के कारण होने वाली क्या अपने क्या पराये की मौत। हालात लगभग सारी दुनिया में ऐसे ही रहे। 2019 में चीन से सारी दुनिया को अपने आगोश में लेने वाले कोरोना का हमारे देश में चीन के बुहान से केरल के रास्ते 30 जनवरी, 20 को प्रवेश हुआ और 24 मार्च 2020 जिस दिन से लॉकडाउन की शुरुआत हुई उस दिन तक कोरोना पोजेटिव के 519 मामलें सामने आ चुके थे और 19 लोग कोरोना के कारण अपनी जान गंवा चुके थे। 

कोरोना के जनता कर्फ्यू और लॉकडाउन को चार साल पूरे होने जा रहे हैं पर 24 मार्च को लॉकडाउन का दिन याद करके आज भी सिहरन उठ जाती है। 22 मार्च को 14 घंटे का जनता कर्फ्यू और 22 मार्च को ही सायंकाल ताली, थाली, घंटी बजाने के प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी के आह्ववान को भरपूर समर्थन मिला पर लोग उस समय तक कोरोना की भयावहता को लेकर इतने गंभीर नहीं दिखे। लोगों ने ताली थाली के आह्वान का मखौल भी उड़ाया और हालात की भयावहता को समझ नहीं पाये। इसे पोंगा पंथी और ना जाने क्या क्या कहा जाने लगा। इसके बाद ज्योंही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देशवासियों से मुखातिब होते हुए 25 मार्च से 14 अप्रैल तक के देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की तो एक बार तो सब सकते में ही आ गये ।पर जिस तरह से लॉकडाउन के बावजूद कोरोना के मामलें दिन दूने रात चौगुने होने लगे और कोरोना पीड़ित अपनों से ही दूर होते गए तब इसकी भयावहता को समझा जाने लगा। सरकार ने बार बार सेनेटाइजर के उपयोग, मास्क के लगातार उपयोग और दूरी का संदेश दिया उसका असर आज समझ में आने लगा है। सरकार एसओपी जारी कर हालात को काबू में करने में जुट गई। चिकित्सकों, चिकित्साकर्मियों, पेरा मेडिकल स्टॉफ ने जान की वाजी लगा कर सेवा में जुट गए। हालात यहां तक देखे गए कि सेवा में लगे लोग में मौत का ग्रास बनने लगे। दूसरी लहर आते आते तो हालात यहां तक बदतर हो गए कि अस्पतालों में जीवन रक्षक वेंटिलेटर और ऑक्सीजन की उपलब्धता की दिक्कत आ गई। यह सब तो एक और वहीं दूर दराज में रहने वाले लोग जो भी साधन मिला यहां तक कि पैदल ही परिवार के साथ काम धंधा छोड़कर अपने गांव की और रुख करने लगे और हजारों किलोमीटर पैदल ही निकल पड़े। सरकार के सामने इन लोगों के लिए यात्रा के दौरान खाने पीने ठहरने और नियत स्थान तक पहुंचाने की समस्या हो गई वह अलग। इसी तरह से विदेशों में अध्ययन कर रहे या रह रहे लोगों को सुरक्षित लाना भी सरकार के सामने किसी चुनौती से कम नहीं था। अखबारों में आक्सीजन की कमी, वेंटिलेटर के अभाव में अस्पताल परिसर या सड़क पर ही दम तोड़ते लोगों, अंतिम क्रिया तक में शामिल नहीं होने तक का दुख जैसे कई अनुभव इस दौरान देखने को मिले। बीस-पचास आदमियों में शादी की कल्पना को भी इसी दौरान साकार होते देखा गया। शुरुआती दौर में तो कोरोना वैक्सिन की बात करना ही दूर की बात थी तो बाद में वैक्सिन के पहले दौर के दौरान जिस तरह से वैक्सिन को भी राजनीति की भेंट चढ़ाने के प्रयास हमने देखे हैं। खैर यह दूसरी बात है कि देशवासियों को निःशुल्क कोरोना वैक्सिनेशन की दो डोज और दुनिया के देशों को वैक्सिन उपलब्ध कराने की हमारी पहल को सारी दुनिया ने सराहा।

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खैर यह तो तस्वीर का एक पहलू रहा। दरअसल मुद्दे की बात यह है कि आज भले ही हम लॉकडाउन की चार साल की बात कर रहे हैं पर 68 दिन का यह लॉकडाउन ही कोरोना में सही मायने में जीवनदायी सिद्ध हो सका। 25 मार्च से 14 अप्रैल, फिर 15 अप्रैल से 3 मई, उसके बाद 4 मई से 17 मई और फिर 18 मई, 20 से 31 मई, 20 तक के 68 दिन घर की चार दीवारी में बंद रहकर गुजारने का अलग ही अनुभव रहा है। वर्क फ्रॉम होम से लेकर ऑनलाइन स्टडी तक का यह दौर रहा और आज भी भले ही कम हो गया हो पर ऑनलाइन स्टडी व वर्क फ्रॉम होम कमोबेस चल रहा है। हांलाकि कोरोना काल को भी लोगों ने भुनाने में कोई कमी नहीं छोड़ी, वेंटिलेटर बेड और आक्सीजन सिलेण्डर, कंसरट्रेटर, ऑक्सीजन बेड और दवाओं की कालाबाजारी भी खूब देखने को मिली। खैर मानवता के दुश्मन तो हर युग में रहते आये हैं। ऐसा नहीं है कि लॉकडाउन का दौर हमने ही देखा हो अपितु दुनिया के अधिकांश देशों में लॉकडाउन रहा और लॉकडाउन के माध्यम से ही कोरोना के फैलाव को रोकने के प्रयास सफल हो सके। भूलना नहीं चाहिए कि इंग्लेण्ड के तत्कालीन प्रधानमंत्री को कोरोना प्रोटोकाल की पालना में कोताही के कारण ही भले ही उन्होंने लाख सफाई दी, अपनी प्रधानमंत्री की कुर्सी से हाथ धोना पड़ा। कोरोना प्रभावित की सूचना पर जिस तरह से उस घर से प्रभावित को अस्पताल ले जाते थे व घर के बाहर नोटिस चस्पा करने और अलग थलग होने के हालात कितने त्रासद होते थे यह कल्पना का विषय ही है। मामूली बुखार व संभावना पर ही घर में ही अलग थलग क्वारंटाइन होने को भुगतने वाले ही जानते हैं। दिन रात मौत का भय उस व्यक्ति या परिवार से पूछा जाए जो इन हालातों से गुजरे हैं।

एक बात साफ हो जानी चाहिए कि कोरोना के कारण 30 जनवरी, 2020 से 5 मार्च, 24 तक भारत में ही 3 करोड़ 37 लाख 66 हजार 707 मामलें सामने आ चुके हैं और 4 लाख 48 हजार 339 अपनों को खो चुके हैं। यह कोई छोटा मोटा आंकड़ा नहीं है। इसके अलावा सरकार के जनता कर्फ्यू व उसके बाद 68 दिन के लॉक डाउन नहीं होता तो कोरोना से प्रभावित होने वाले और इसके कारण होने वाली मौतों की संख्या अकल्पनीय होती। सरकार की सख्ती, लोगों की अवेयरनेस के बावजूद भी जो कोरोना काल के हालात देखें उसको याद करके ही सिहरन होने लगती है। ऐसे में यह कहने में दो राय नहीं होनी चाहिए कि कोरोना रुपी रक्त बीज का असर कम करने में अन्य के साथ ही लॉकडाउन की प्रमुख भूमिका रही है। आने वाली पीढ़ियों को भले ही यह अतिशयोक्तिपूर्ण लगे पर जिन्होंने देखा, भोगा और अपनों को खोया है वे कोरोना को भूल ही नहीं सकते। ताली-थाली की भले ही मजाक में लिया जाए पर यह और लॉकडाउन ने जिंदगियां बचाने में बड़ी भूमिका निभाई है।

- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

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