दंगा शिल्पियों की बेमेल घी-चावल की खिचड़ी खाकर लोगों ने सोचना समझना छोड़ दिया है

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राकेश सैन । Mar 4 2020 3:01PM

दिल्ली की जिहादी हिंसा व केरल या बंगाल में मार्क्सवादियों द्वारा समय-समय पर दिखाई जाने वाली क्रूरता प्रमाण है कि दोनों मानसिकताएं किस प्रकार उन लोगों से निपटती हैं जिन्हें अपना शत्रु मानती हैं। सौभाग्य से आज देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था है।

फाल्गुन मास है, अमराइयां फूट रही हैं तो नन्हीं कोपलें सिर उठाती हुईं कुदरत के शीतनिद्रा से जागने का संदेश दे रही हैं। महीना है रंग, उमंग व चंग-मृदंग का परन्तु इन दिनों दिल्ली में जो हुआ उससे फाग खून में रंगा दिखने लगा। चार दर्जन के आसपास लोग मौत के घाट उतार दिए गए, साढ़े तीन सौ से ज्यादा घायल हुए तथा करोड़ों की संपत्ति स्वाह हुई। 22 फरवरी को हालात तब बिगड़ने लगे जब शाहीनबाग की तरह कई स्थानों पर धरने के समाचार आने लगे। दंगों को अगर कट्टर जिहादी चलचित्र मानें तो सवाल है कि इस पटकथा का लेखक, निर्माता और निर्देशक कौन है? इन दंगों की पृष्ठभूमि उस समय तैयार हुई जब नागरिकता संशोधन अधिनियम को लेकर समाज के एक वर्ग की अज्ञानता व भय को हथियार बना कर निहित स्वार्थपूर्ति की जाने लगी। राष्ट्रपति के अभिभाषण से लेकर गृहमन्त्री व प्रधानमन्त्री तक के वक्तव्यों से बार-बार स्पष्ट किया गया कि न तो किसी की नागरिकता छीनी जा रही है और न ही अभी नैशनल सिटीजन रजिस्टर लाया जा रहा है परन्तु दंगा शिल्पियों ने बेमेल घी-चावल की ऐसी खिचड़ी एक वर्ग विशेष को परोसी कि सड़कों पर उतरे लोगों ने सोचना-समझना मानो छोड़-सा दिया। प्रदर्शनों की आड़ में साम्प्रदायिकता का मवाद भरा गया जो फूटा तो देश की आत्मा घायल हो गई। दुखद है कि देश में जिहादी रोग का पोषण धर्मनिरपेक्षता के नाम पर होता रहा है और इस काम में वामपंथी सदैव आगे रहे।

वर्तमान में भी स्वरा भास्कर, जावेद अख्तर, अनुराग कश्यप, नसीरुद्दीन शाह, तीस्ता शीतलवाड़, कम्युनिस्ट पार्टियों और मीडिया में लाल सलाम वालों का ‘इको सिस्टम’ इस कट्टरपंथ को न केवल पोषित करता बल्कि बचाव करता भी दिखाई दे रहा है। देश विभाजन के समय भी इसी तरह वामपन्थियों ने मुस्लिम लीग का मस्तिष्क बन कर काम किया। उस समय के सबसे कद्दावर कम्युनिस्ट नेता पीसी जोशी अपने पत्र में मुस्लिम लीग के बारे लिखते हैं:-

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‘हम मुस्लिम लीग के चरित्र में बदलाव देखने और स्वीकार करने वाले सबसे पहले थे। जब लीग ने अपने उद्देश्य के रूप में पूर्ण स्वतन्त्रता को स्वीकार किया और अपने बैनर तले मुस्लिम जनता की रैली करना शुरू की हमने अपनी पार्टी के भीतर चर्चाओं की एक श्रृंखला आयोजित की और 1941-1942 में इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यह (लीग) एक साम्राज्यवाद-विरोधी संगठन बन गया, जिसमें मुस्लिमों की स्वतन्त्रता का आग्रह था। पाकिस्तान की मांग आत्मनिर्णय की मांग थी। एक धारणा बनी हुई है कि लीग एक साम्प्रदायिक संगठन है और श्री जिन्ना प्रो-ब्रिटिश, लेकिन वास्तविकता क्या है ? श्री जिन्ना स्वतन्त्रता प्रेमी हैं।’

-(कांग्रेस एंड दी कम्युनिस्ट, पीसी जोशी, पीपुल्स पब्लिशिंग हाऊस बॉम्बे, पृष्ठ 5)

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने न केवल मुस्लिम लीग का समर्थन किया, बल्कि अपने लोगों जैसे सज्जाद जहीर, अब्दुल्ला मलिक और डेनियल लतीफी को लीग में शामिल किया। डेनियल लतीफी ने 1945-1946 के चुनावों में पंजाब मुस्लिम लीग का घोषणापत्र लिखा था। लीग का पूरा चुनाव अभियान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा पंजाब में मंचित किया गया। 

-(जहीर, सज्जाद, लाइट ऑन लीग यूनियनिस्ट कम्फर्ट, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, बॉम्बे, जुलाई, 1944, पृष्ठ 26-33)

कम्युनिस्टों ने भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन को पूंजीपति और फासीवादी ताकतों से जोड़ा और ब्रिटिश प्रयासों का समर्थन किया। उन्होंने भारत को अंग्रेजों द्वारा डोमिनियन स्टेट बनाये रखने के लिए चुनाव लड़ा और अंग्रेजों के साथ खड़े रहे। कम्युनिस्टों ने ब्रिटिश शासन को प्रस्ताव दिया था कि भारत बहुराष्ट्र देश है और इसका स्थानीय आकांक्षाओं के आधार पर विभाजन होना चाहिए। इसीलिए उन्होंने जिन्ना के दो राष्ट्र सिद्धांत का समर्थन किया और पाकिस्तान के प्रसव में दाई की भूमिका निभाई। वाम नेताओं ने जुलूस और प्रदर्शनों का आयोजन करके पाकिस्तानी आन्दोलन को समर्थन दिया। ईएमएस नम्बूदरीपाद और ए.के. गोपालन ने मुस्लिमों के साथ जुलूस का नेतृत्व किया, पाकिस्तान और मोप्लिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाए। ख्वाजा अहमद अब्बास, जो स्वयं वाममार्गी थे, उनका कहना था कि सीपीआई ने भारत को मार डाला, क्योंकि इन्होंने मुस्लिम अलगाववाद को वैचारिक आधार दिया। पाकिस्तान बना लेकिन सीपीआई को सर्वहारा की तानाशाही स्थापित करने का मौका नहीं मिला। पाकिस्तान ने कामरेड डॉ. अशरफ और सज्जाद जहीर को जेल में बन्द कर दिया और दस साल जेल में रहने के बाद भारत लौटे।

-(मुस्लिम पालिसी इन इण्डिया, हामिद दलवई, हिन्द पाकेट बुक्स)

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साल 1919-20 में सोवियत संघ के पक्ष में पठानों को लड़ने के लिए वामपन्थी नेता एमएन रॉय मास्को से ताशकन्द तक एक ट्रेन भर के हथियार ले गए। इन्हीं हथियारों से पठानों ने अपने इलाकों से पंजाबी हिन्दू-सिखों का सफाया किया। 1948 में आजाद भारत के विरूद्ध वामपन्थियों ने हैदराबाद के धर्मांध निजाम और रजाकारों से हाथ मिलाकर सशस्त्र विद्रोह किया। कोई पूछ सकता है कि जिहादी मानसिकता व वामपन्थ के बीच कुएं और मेंढक का रिश्ता क्यों है? इसका जवाब है कि दोनों की ही विघटनकारी मानसिकताएं हैं। जिहादी ‘गजवा-ए-हिन्द’ यानि पूरे भारत को दीन के अधीन लाने के मुगालते में हैं और वामपन्थी भारत को कई राष्ट्रीयताओं का समूह मानते हैं और इस आधार पर विघटन के प्रयास में रहते हैं। दोनों ही क्रूर व हिंसात्मक साधनों में विश्वास रखते वाले हैं। वामपन्थियों के आदर्श पुरुष माओ ज्येत्सुंग का मानना था कि ताकत बन्दूक की नली से निकलती है और जिहादी तत्व जन्म से ही तलवार पर अमन का पैगाम लिख कर घूमते रहे हैं। दिल्ली की जिहादी हिंसा व केरल या बंगाल में मार्क्सवादियों द्वारा समय-समय पर दिखाई जाने वाली क्रूरता प्रमाण है कि दोनों मानसिकताएं किस प्रकार उन लोगों से निपटती हैं जिन्हें अपना शत्रु मानती हैं। सौभाग्य से आज देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था है और विघटनकारी शक्तियों से कानून की ताकत के साथ-साथ इन्हें वैचारिक धरातल पर परास्त करके ही निपटा जा सकता है। इस काम के लिए देश समाज के हर वर्ग को आगे आना होगा। कट्टरवादियों को बताना होगा कि दुनिया को आज दारा शिकोह, रहीम, रसखान, डॉ. ए.पी.जे. अबदुल कलाम के इस्लाम की जरूरत है न कि औरंगजेब, गजनी, गौरी या खिलजी जैसे पागलपन की।

पग-पग नफरत, पग-पग विषधर।

आस्तीन नहीं है जिनकी, 

उनको भी डस लेते विषधर।

आओ मिलकर प्रेमरंग से, 

सबके मन का जहर बुझाएं।

कष्ट मिटाएं मानवता के, 

आओ गीत फाग के गाएं।

-राकेश सैन

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