किताबें कभी बूढ़ी नहीं होतीं, इनके संरक्षण के और प्रयास करने की जरूरत

Books are never old, protect it

हमें किताबों को बचाना ही होगा। कई बार पुरानी किताबों को हाथ में लेते हुए लगता है जैसे हम किसी बूढ़े व्यक्ति का हाथ थाम रहे हैं जो अपनी आयु से ज़्यादा अपनी समझ, ज्ञान आदि से वयोवृद्ध हो चुका है। सच मानिए किताबें कभी बूढ़ी नहीं होतीं।

किताबों के पन्ने बेशक पीले पड़ जाएं। उसके धागे बेशक कमजोर हो जाएं। बाइंडिंग बेशक टूटने सी लगें। लेकिन किताबें हमेशा हमेशा ही ताज़ातरीन होती हैं। पुरानी किताबों की खुशबू हमें रोमांच से भरने के लिए काफी हुआ करती हैं। किताबें और किताबों की दुनिया पर नज़र डालें तो किताबों की दुनिया गुलज़ार नज़र आती हैं। न तो किताबों के रचनाकारों ने लिखना बंद किया और न उसे छापने वाले ही पीछे हटे। लाख तकनीक छपाई और लिखाई की दुनिया में आ चुकी हैं। इस पर भी बहसें हुईं कि तकनीक, पामटॉप, गेगाबाईट्स और किंडल पर जब किताबें आ जाएंगी तब छपी हुई किताबें इतिहास का हिस्सा हो जाएंगी। लेकिन जानकार मानते हैं कि आज भी लाखों की संख्या में किताबें लिखी, छापी और पढ़ी जा रही हैं।

हर साल विश्वपुस्तक मेला इसका गवाह है कि दुनिया भर में पन्नों पर किताबें लिखी और छप रही हैं। बल्कि लेखक और प्रकाशक उत्साह के साथ लिखित और मुद्रित किताबों को छाप भी रहे हैं। यही कारण है कि आज की तारीख में हजारों और लाखों की संख्या में किताबें बाजार में आ रही हैं और पाठक भी बतौर उन किताबों को पढ़ रहे हैं। एक सवाल ज़रूर यहां उठ सकता है कि किस प्रकार की किताबें आज ज़्यादा पढ़ी और लिखी जा रही हैं। यदि आधुनिक किताबों की दुनिया पर नज़र दौड़ाएं तो पाएंगे कि कविता, कहानी, उपन्यास, मिथकीय घटनाओं पर आधारित चरित्र प्रधान किताबों की बाढ़ सी आ गई है। यही वज़ह है कि अमीश त्रिवेदी, देवदत्त पटनायक जैसे नव लेखक हिन्दी में भी अपने पाठक वर्ग खड़े करने में सफल हुए हैं।

किताबों के कंटेंट और लेखक की ओर से कंटेंट के साथ बरताव काफी हद तक तय करता है कि किताबों की आयु क्या होगी? कितनी होगी और यह किताब क्या कालजयी हो पाएंगी, क्योंकि आज भी हम उन किताबों को भूल नहीं सके हैं जिन्हें पढ़ कर हमारी समाज और सांस्कृतिक समझ बनती है। जिन किताबों को पढ़कर हमें समाज के विकास और सामाजिक−आर्थिक, सांस्कृतिक गति का पता चलता है उन किताबों की तलाश आज भी की जाती है। धीरे धीरे किताबों के फार्म बदल रहे हैं। लिखने वाले भी आधुनिक तकनीक के मार्फत किताबें लिख और छपवा रहे हैं। किताबों की दुनिया कभी पुरानी नहीं पड़ी है। किताबें हमेशा ही हमारी संस्कृति और इतिहास का अभिन्न हिस्सा रही हैं। यही कारण है कि राष्ट्रीय स्तर पर किताबों को सुरक्षित और संरक्षित करने के अभियान चलाए गए। देशभर में छपने वाली किताबों की कोलकाता के राष्ट्रीय पुस्तकालय में कॉपी रखी जाती है।

खुदा बक्श ऑरिएंटल लाइब्रेरी, पटना का महत्व बेहद महत्वपूर्ण है। इस लाइब्रेरी में ऐसी ऐसी किताबों की पांडुलिपियां उपलब्ध हैं कि जो आज की तारीख में विश्व में कहीं भी नहीं हैं। साथ ही देश के विभिन्न राज्यों में महलों, किलों, राजदरबारों में भी किताबों को संग्रहित करने की परंपरा रही है। यह इस बात की ओर इशारा है कि हमारा लगाव किताबों से आज का नहीं है। हमने जब से लिखना शुरू किया हमने विभिन्न माध्यमों में अपनी समझ, ज्ञान, अनुभवों को लिखकर संरक्षित करना शुरू किया। भारत की बात करें तो भोजपत्रों, ताड़पत्रों, मिट्टी की पट्टियों जिसे क्ले टैबलेट्स के नाम से जानते हैं आदि पर लिखना शुरू किया। इतना ही नहीं बल्कि अशोक के स्तम्भ में धम्म हम लिखित रूप में देख सकते हैं। वहीं दूसरी ओर वैश्विक स्तर पर पेपाइरस आदि पर लिख रहे थे। लिखने के बाद कुछ पत्रों को जमीन में दबा दिया जाता था ताकि यदि हड़प्पा मोहनजोदड़ो जैसी घटना घटती है कि कभी तो खुदाई में वे क्ले टैबलेट्स, लौह पत्रों, चर्म पत्र आदि मिल सकेंगे। इन्हें पढ़ कर हमें अपनी संस्कृति, इतिहास आदि के बारे में जानकारी मिल सकेंगी। इस रूप में हमारे बीच लिखित, मुद्रित सामग्रियां हमेशा ही रही हैं। यह तो हमारी तकनीक और समझ की सीमा है कि आज तक हम खुदाई से प्राप्त पठन सामग्रियों को पढ़ने और अर्थ निकाल पाने में सफल नहीं हो पाए हैं।

चर्म पत्रों, ताड़ पत्रों, मिट्टी की पटि्टयों, भोजपत्रों आदि पर हमारा लेखन हो रहा था। जैसे जैसे हमारे पास प्रकाशन, मुद्रण की तकनीक आई हमने उसे छापना शुरू किया। आज की तारीखी हक़ीकत है कि हमारे पास ऐसी ऐसी मशीनें आ चुकी हैं जो एक घंटे तो लाखों पन्नों को छाप सकने में समर्थ हैं। यदि अखबारों की दुनिया देखें तो एक घंटे तो लाखों प्रतियां छप जाती हैं। द हिन्दू ने तो सेटेलाइट के जरिए अखबारों का प्रकाशन अस्सी के दशक में शुरू कर चुका था। उसी तर्ज पर अब पलक छपकते ही किताबों का प्रकाशन भी हो रहा है। कागजों की दुनिया भी दिलचस्प है कभी वक़्त था जब किताबों की छपाई एक बड़ी मेहनत और परिश्रम की मांग करती थी। एक एक अक्षर को सजाना, ब्लॉक बनाना आदि लेकिन आज की तारीख में वही श्रमसाध्य काम इतने आसान हो गए हैं कि किताबों की छपाई, गूंथना आदि काम एक से दो दिन को संपन्न हो जाता है। 

आज किताबों को स्थानांतरित करने वाले माध्यमों की कमी नहीं है। तमाम सोशल मीडिया से लेकर प्रकाशन जगत का आसान बनाने के लिए प्रकाशकों के पास अत्याधुनिक संसाधन मौजूद हैं जहां लाखों की संख्या में किताबें छप रही हैं। नए माध्यम में छपना जितना आसान हो चुका है उतना ही कठिन किताबों की गुणवत्ता को बरकरार रखना भी हो चुका है। आज जो लेखक है उसके पास छपने और छपवाने के कई माध्यम हैं जहां कई बार बिना पैसे खर्च किए लाखों लाख पाठकों तक पहुंचने का माध्यम हाथ में है। लेकिन फिर क्या वज़ह है कि लेखक किसी प्रतिष्ठित प्रकाशक के यहां छपना चाहता है। यह एक विचारणीय प्रश्न है। ऐसा इसलिए क्योंकि अभी अभी कुछ प्रकाशन संस्थानों में संपादकीय टीम पांडुलिपि को पढ़ने, समीक्षा करने में ज़रा भी लापरवाही नहीं बरततीं। ऐसे में किताबों की गुणवत्ता बनी रहती है। वरना आज की तारीख में पांच दस हजार से लेकर बीस तीस हजार में सौ दो सौ कापियां छापने वाले प्रकाशक भी बाजार में हैं। इनके यहां नए लेखकों की भीड़ लगी होती है। वे भी लेखक समाज, स्वजनों, परिजनों में लेखक कहलाने लगें की चाहत में कुछ भी खर्च करने में पीछे नहीं रहते। इस मौके का फायदा कौन नहीं उठाना चाहेगा। प्रकाशक भी कविता, कहानी, उपन्यास आदि को छापने के लिए चढ़ावे के साथ छाप रहे हैं।

किताबें अगर बूढ़ी होतीं, किताबें अगर नहीं पढ़ी जातीं तो लिखने और छापने वाला कब का इतिहास बन चुका होता। किताबें सच्चे मायने में कभी वृद्ध नहीं होतीं। ये हमेशा ही नवा नवा और युवा होती हैं। जिल्द पुराने पड़ जाने, पीले पन्नों से किताबों की उम्र नहीं लगाई जा सकती बल्कि कौन सी किताब पढ़ी जा सकती है इससे उस किताब की उपयोगिता और प्रासंगिकता की पहचान होती है। हाल ही में मुझे 1908 में लाहौर से प्रकाशित हिन्दी की पाठ्यपुस्तक हाथ लगी। हालांकि उसके पन्ने पीले पड़ चुक थे। सावधानी से न पलटी जाए तो पन्ने टूट रहे थे किन्तु उस किताब को हाथ में लेकर ऐसा महसूस हुआ गोया अविभाजित भारत की भाषायी थाती हाथ में ले रहा हूं। अनारकली, प्रकाशन से प्रकाशित उस हिन्दी की पाठ्य पुस्तक में उर्दू, अंग्रेजी आदि भी शामिल की गई थी। आज ऐसी हजारों किताबें संरक्षित करने की मांग करती हैं।

दिल्ली में नेशनल आरकाईव ऑफ इंडिया ऐसे रेयर बुक्स को संरक्षित करने की योजना पर काम कर रहा है। न केवल किताबों को बल्कि पुरानी पांडुलिपियों को कैसे बचाया जा सके इस पर कई संस्थाएं काम कर रही हैं। हमें किताबों को बचाना ही होगा। कई बार पुरानी किताबों को हाथ में लेते हुए लगता है जैसे हम किसी बूढ़े व्यक्ति का हाथ थाम रहे हैं जो अपनी आयु से ज़्यादा अपनी समझ, ज्ञान आदि से वयोवृद्ध हो चुका है। सच मानिए किताबें कभी बूढ़ी नहीं होतीं।

-कौशलेंद्र प्रपन्न 

(भाषा एवं शिक्षा पैडागोजी एक्सपर्ट)

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