देश से भ्रष्टाचार सिर्फ कानून में संशोधन से नहीं खत्म होगा

Corruption from the country will not end only by amending the law

केन्द्र सरकार ने भ्रष्टाचार रोकने के लिए कानून संशोधन करके सरकारी मशीनरी को नए नाखून देने का काम किया है। इसके तहत अब रिश्वत लेने के साथ ही देने वाला भी दोषी माना जाएगा।

केन्द्र सरकार ने भ्रष्टाचार रोकने के लिए कानून संशोधन करके सरकारी मशीनरी को नए नाखून देने का काम किया है। इसके तहत अब रिश्वत लेने के साथ ही देने वाला भी दोषी माना जाएगा। इसके पीछे दलील यह दी गई है कि अब नौकरशाह बगैर डरे आसानी से निर्णय कर सकेंगे। उन्हें भ्रष्टाचार के मामलों में फांसना आसान नहीं होगा। 

इस संशोधन के जरिए केन्द्र सरकार ने जमीनी सच्चाई को जाने−परखे बगैर ही नौकरशाही को अभयदान दिलाने का काम किया है। विभिन्न सरकारी विभाग आकंठ तक भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं। नए कानून से नौकरशाह और निर्भय होंगे। ऐसा नहीं है कि इससे सरकारी कामकाज में सफाई आ जाएगी, बल्कि अब भ्रष्टाचार की शिकायत करने वाले को भी जेल जाने का भय सताएगा। नए कानून से राजनेताओं और अफसरों के भ्रष्टाचार का गठजोड़ और मजबूत होगा। इससे जायज काम में रोड़े अटकाने वाले भ्रष्ट अधिकारी−कर्मचारी की नीयत उजागर करना भी अब आसान नहीं होगा। 

कानून में यह संशोधन सरकार ने नौकरशाही के दबाव में किया है। मौजूदा कानून से नौकरशाही के हाथ मजबूत करने के बावजूद सरकार यह दावा नहीं कर सकी कि इससे सरकारी विभागों में जीरो भ्रष्टाचार होगा। यह ठीक उसी तरह है जैसे बलात्कार के मामलों में फांसी तक प्रावधान करने के बावजूद वारदातों में कमी नहीं आ रही है। स्मार्ट सिटी और साफ−सफाई की रेटिंग की तरह किसी भी सरकारी एजेंसी ने यह जानने या सर्वे करने का प्रयास नहीं किया कि आखिर विभागों में भ्रष्टाचार क्यों हैं। किन विभागों में सर्वाधिक है। नौकरशाही को निर्भय करने से पहले इसकी गहन जांच−पड़ताल होनी चाहिए थी। सर्वे में जिन विभागों में भ्रष्टाचार पाया जाता, उनके अफसरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होती। इसके विपरीत मौजूदा भ्रष्टाचार की जिम्मेदारी तय करने के बजाए अफसरों को इससे बचाने के लिए एक सुरक्षा कवच थमा दिया गया। 

किसी भी राजनीतिक दल की सत्ता रही हो पर केंद्र और राज्य सरकारें आज तक इस बात का दावा नहीं कर सकीं कि एक भी सरकारी विभाग सौ फीसदी भ्रष्टाचार से मुक्त है। जन सम्पर्क वाले तकरीबन सभी विभागों में भ्रष्टाचार मौजूद है। भ्रष्टाचार के मामलों में सरकारें और राजनीतिक दल बेशक अपनी जिम्मेदारी से भागती रहे हों किन्तु निजी और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने उन्हें आईना दिखाने का काम किया है। सीएमएस इंडिया की 2018 में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक शिक्षा, चिकित्सा, पानी, बिजली, राजस्व, पुलिस, परिवहन, बैंक जैसे सरकारी विभाग और पीडीएस−मनरेगा जैसी सरकारी योजनाओं में भारी भ्रष्टाचार है। राज्यों पर किए गए इस सर्वे में तेलंगाना और आंध्रप्रदेश भ्रष्टाचार में सबसे ऊपर रहा। इसी तरह पंजाब, गुजरात, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, दिल्ली और बिहार में जमकर भ्रष्टाचार होना पाया गया। देश का एक भी राज्य ऐसा नहीं मिला जोकि भ्रष्टाचार से अछूता रहा हो। ऐसी रिपोर्टों को सत्तारूढ़ दल गंभीरता से नहीं लेते। 

इसके विपरीत विभिन्न सत्तारूढ़ दल ऐसी रिपोर्टों को खारिज करने के लिए पूरी ताकत लगाते नजर आते हैं। इसी तरह ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की वर्ष 2017 में जारी रिपोर्ट में भ्रष्टाचार में भारत की रैंक 81वीं रही। इससे पहले वर्ष 2016 में 79वीं थी। एक साल में दो रैंक बढ़ गई। केन्द्र और राज्य सरकारों ने रैंक में दो फीसदी इजाफा होने पर भी भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई अभियान नहीं छेड़ा। विभागों के जिम्मेदार नौकरशाहों से पूछताछ तक नहीं की कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छवि धूमिल करने वाली ऐसी रिपोर्ट कैसे आई है। सत्तारूढ़ दल और सरकारें रेटिंग एजेंसियों की ऐसी रिपोर्टों पर चर्चा करने तक से मुंह चुराती हैं। सरकार चाहे केन्द्र की हो या राज्यों की, भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने का दंभ खूब भरती हैं। सभी राजनीतिक दल एक−दूसरे पर भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने का आरोप लगाते नहीं थकते। 

सवाल यह भी है कि जिस विभाग का कार्मिक भ्रष्टाचार में पकड़ा जाता है, उस विभाग के वरिष्ठ अफसरों के खिलाफ र्कारवाई क्यों नहीं की जाती। यह निश्चित है कि यदि विभागों के अफसर कर्मठ और ईमानदार हों तो कोई भी कार्मिक भ्रष्ट होने का दुस्साहस नहीं कर सकता। अफसरों की शह पर अधीनस्थ कार्मिकों के हौसले बुलंद होते हैं। सरकारी विभागों में लालफीताशाही और भ्रष्टाचार किस कदर पसरा हुआ, इसकी बानगी देश की अधीनस्थ अदालतें और उच्च न्यायालयों में देखी जा सकती हैं। इनमें सरकारी कार्यशैली के खिलाफ लाखों मुकदमे विचाराधीन हैं। 

आश्चर्य की बात तो यह है कि राज्यों के उच्च न्यायालय एक नहीं कई बार सरकारी कामकाज के भ्रष्ट और लचर तरीकों पर नाराजगी जता चुके हैं। इनमें ज्यादातर मामलों ऐसे रहे जिनमें आम लोगों को अपने निजी काम कराने के लिए अदालतों की शरण लेनी पड़ी। इससे जाहिर है कि जिन मामलों में रिश्वत का लेन−देन नहीं हुआ, उनमें लोगों के काम नहीं हो सके और उन्होंने अदालत से गुहार लगाने को विवश होना पड़ा। व्यर्थ के मुकदमों के बढ़ते बोझ से न्यायालयों की तल्ख टिप्पणियों के बावजूद सरकारों की नींद नहीं खुली। 

जनहित के हजारों मामलों में अवमानना के मामले चल रहे हैं। सरकारों ने इन पर ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी। आम लोगों की दुख−तकलीफों और अदालत की अवमानना के मामले बढ़ते ही जा रहे हैं, किन्तु सरकारी रवैये में कोई सुधार नजर नहीं आता। आजादी के बाद से नौकरशाही अंग्रेजी मानसिकता से मुक्त नहीं हो सकी। सरकारी विभागों में आसानी से काम होना तो दूर बल्कि अफसरों के व्यवहार में भी सामंती सोच दिखाई देती है। 

यदि ऐसा नहीं होता तो आम लोग अपने काम कराने के लिए अदालतों से आदेश नहीं कराते। सवाल यही है कि आखिर भ्रष्टाचार के कानून में संशोधन करने से आम लोगों का कितना भला होगा। क्या लोगों की हालत में कोई सुधार आएगा। क्या रेटिंग देने वाली एजेंसियों में भ्रष्टाचार नीचे आ जाएगा। क्या इस कानूनी संशोधन के बाद सरकार सच्चाई का सामना करते हुए इसके असर का सर्वे कराने का साहस दिखाएगी। आखिर सत्तारूढ़ राजनीतिक दल कब तक इस सच्चाई से भागते रहेंगे कि देश में भारी भ्रष्टाचार है, सरकार चाहे किसी भी राजनीतिक दल की हो। ऐसा है भी इसलिए कि इसकी शुरूआत ही चुनाव से होती है। जिसका सही हिसाब−किताब देने से राजनीतिक दल बचते रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो भ्रष्टाचार की शुरुआती और असली जड़ चुनाव हैं। जब तक इसका समूल खात्मा नहीं होगा, सरकार चाहे कितने ही संशोधन कर ले, भ्रष्टाचार कायम रहेगा।

-योगेन्द्र योगी

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