गांवों में रुपये पैसे की जरुरत पूरी करने में आज भी रिश्तों की डोर अधिक मजबूत

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ANI

नाबार्ड की रिपोर्ट को ही आधार मानकर चले तो सितंबर, 24 में जुटाये आंकड़ों के अनुसार 17.6 फीसदी लोग अपनी रुपये पैसे की तात्कालीक जरुरतों को पूरा करने के लिए गैर संस्थागत स्रोतों पर निर्भर है।

नाबार्ड की हाल ही मार्च, 25 में जारी रिपोर्ट से जहां इस बात का संतोष होता है कि ग्रामीण क्षेत्र में संस्थागत ऋण प्रवाह का दायरा बढ़ा हैं वहीं यह भी चिंता चिंताजनक हालात सामने आये हैं कि गैरसंस्थागत स्रोतों से जरुरत के समय कर्ज प्राप्त करने वाले ग्रामीणों में से करीब साढ़े सात फीसदी लोगों को 50 फीसदी से भी अधिक ब्याजदर से कर्ज चुकाना पड़ रहा है। इससे यह साफ हो जाता है कि एक बार गैर संस्थागत स्रोत से कर्जदार बने तो फिर कर्ज के मकड़जाल से निकलना असंभव नहीं तो बहुत ही मुश्किल भरा होगा। नाबार्ड की रिपोर्ट को ही आधार मानकर चले तो सितंबर, 24 में जुटाये आंकड़ों के अनुसार 17.6 फीसदी लोग अपनी रुपये पैसे की तात्कालीक जरुरतों को पूरा करने के लिए गैर संस्थागत स्रोतों पर निर्भर है। हालाकि इसमें करीब साढ़े तीन फीसदी का सुधार है पहले 21.1 प्रतिशत ग्रामीण अपनी ऋण जरुरतों को पूरा करने के लिए गैर संस्थागत स्रोतों पर निर्भर थे। फिर भी हमारी ग्रामीण संस्कृति की इस खूबी की सराहना करनी पड़ेगी कि आज भी 31.7 प्रतिशत रिश्तेदार या परिचित ऐसे हैं जो दुःखदर्द में भागीदार बनते हैं और ऐसे समय में उपलब्ध कराये गये रुपये पैसे पर किसी तरह का ब्याज नहीं लेते। हांलाकि रिश्तेदारों या परिचितों से इस तरह की रुपये पैसे की आवश्यकता कुछ समय के लिए ही होती है और समय पर लौटा दिया जाता है। यह भी नाबार्ड द्वारा जारी रिपोर्ट से ही उभर कर आया है। 

दरअसल चाहे ग्रागीण हो या शहरी तात्कालीक आवश्यकताएं आ ही जाती है जिनके लिए तत्काल रुपये पैसे की आवश्यकता होती है। अन्य कोई सहारा नहीं देखकर व्यक्ति इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए रिश्तेदार, परिचित, साहूकार, दोस्त, कमीशन एजेंट या रुपये पैसे उधार देने वाले लोगों के सामने हाथ पसारते हैं। अब इनमें से एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो व्यक्ति की मजबूरी का फायदा उठाने में किसी तरह का गुरेज नहीं करते और हालात यहां तक हो जाते हैं कि मजबूरी का फायदा उठाते हुए 50 से 60 प्रतिशत तक ब्याज लेने में किसी तरह की हिचकिचाहट नहीं दिखाते। हांलाकि ऐसे लोगों का प्रतिशत या संख्या कम है पर इसे सिरे से नकारा नहीं जा सकता। रिपोर्ट के अनुसार ऋण लेने वाले करीब 40 फीसदी ग्रामीणों को 15 प्रतिशत से 60 प्रतिशत तक के बीच में ब्याज का चुकारा करना पड़ता है। 0.9 प्रतिशत को 60 प्रतिशत या इससे अधिक तो 6.6 फीसदी को 50 प्रतिशत से अधिक की ब्याजदर पर लिए गए ऋणों का चुकारा करना पड़ता है। इससे साफ हो जाता है कि आजादी के 75 साल बाद भी सूदखोरों को बोलबारा बरकरार है। हांलाकि संस्थागत ऋणों में भी यदि हम पर्सनल लोन की बात करें तो वह भी करीब 15 से 20 प्रतिशत पर बैठता है और यदि किसी कारण से कोई किष्त बकाया रह गई तो फिर पेनल्टी दर पेनल्टी का सिलसिला काफी गंभीर व कर्ज के मकड़जाल में फंसाने वाला हो जाता है।

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एक बात और शहरों और ग्रामीण इलाकों में कुछ लोगों या संस्थाओं द्वारा दैनिक आधार पर पैसा कलेक्शन करने और दैनिक आधार पर ही ऋण देने का कार्य किया जाता है। इस तरह के लोगों या संस्थाओं द्वारा भले ही दैनिक आधार पर दस रुपये के ग्यारह रुपये शाम को देना आसान लगता हो पर इस किस्त का चूकना और मासिक आधार पर गणना की जाये तो यह बहुत मंहगा होने के साथ ही जरुरतमंद लोगों की मजबूरी का फायदा उठाने से कम नहीं है। रोजमर्रा का काम करने वाले वेण्डर्स इस तरह की श्रेणी में आते हैं। खैर यह अलग बात है पर कहने को चाहे 40 प्रतिशत ही हो पर इनके द्वारा 20 प्रतिशत से 60 प्रतिशत की ब्याजदर से ब्याज राशि वसूलना किसी भी तरह से सभ्य समाज के लिए उचित नहीं कहा जा सकता। हांलाकि देश में संस्थागत ऋण उपलब्धता बढ़ी है पर आज भी ताजा रिपोर्ट के अनुसार 17.6 प्रतिशत ग्रामीणों का साहूकारों या अन्य स्रोतों पर निर्भर रहना उचित नहीं माना जा सकता। यदि ब्याज दर 20, 30, 40 या 50 प्रतिशत होगी तो प्रेमचंद के गोदान या इसी तरह की साहूकारी व्यवस्था व आज की व्यवस्था में क्या अंतर रह जाएगा। इतना जरुर है कि रिश्तों की डोर आज भी मजबूत है और इसकी पुष्टी नाबार्ड की रिपोर्ट करती है कि ग्रामीण क्षेत्र में 31.7 प्रतिशत कर्जदार रिश्तेदारों और परिचितों पर निर्भर है और यह लोग रिश्तों का लिहाज करते हुए जरुरत के समय एक दूसरे का रुपया पैसा देकर सहयोग करते हैं और बदले में किसी तरह का ब्याज नहीं लेते। आने वाले समय में भी हमें रिश्तों की इस डोर को मजबूत बनाये रखना होगा और सरकार को आगे आकर एक सीमा से अधिक ब्याज वसूलने वालो पर सख्ती दिखानी होगी। 

- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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