Emergency Anniversary: विपक्ष की एकजुटता देखकर डर गयी थीं इंदिरा गांधी, थोप दिया था देश पर आपातकाल

Emergency 1975
Prabhasakshi

लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने रामलीला मैदान पर विशाल जनसमूह के सम्मुख 25 जून, 1975 को कहा, “सब विरोधी पक्षों को देश के हित के लिए एकजुट हो जाना चाहिए अन्यथा यहाँ तानाशाही स्थापित होगी और जनता दुखी हो जायेगी।”

12 जून 1975 को इंदिरा गांधी के रायबरेली से निर्वाचन को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया। कोर्ट के इस फैसले से इंदिरा गांधी तिलमिला उठी। देशभर में छात्र और युवा आंदोलित हो उठे। जब प्रधानमंत्री ने अपनी सदस्यता खो दी है तो उन्हें नैतिक अधिकार नहीं है देश की सत्ता में बने रहने का। इंदिरा गांधी के विरूद्ध देशभर में प्रदर्शन होने लगे। 

कांग्रेस ने 20 जून, 1975 के दिन एक विशाल रैली का आयोजन किया। इस रैली में देवकांतबरुआ ने कहा, “इंदिरा तेरी सुबह की जय, तेरी शाम की जय, तेरे काम की जय, तेरे नाम की जय”। इसी जनसभा में अपने भाषण के दौरान इंदिरा गांधी ने घोषणा की कि वह प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र नहीं देंगी।

लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने रामलीला मैदान पर विशाल जनसमूह के सम्मुख 25 जून, 1975 को कहा, “सब विरोधी पक्षों को देश के हित के लिए एकजुट हो जाना चाहिए अन्यथा यहाँ तानाशाही स्थापित होगी और जनता दुखी हो जायेगी।” लोक संघर्ष समिति के सचिव नानाजी देशमुख ने घोषणा कर दी, इंदिरा गांधी के त्यागपत्र की मांग लेकर गाँव-गाँव में सभाएं की जायेंगी और राष्ट्रपति के निवास स्थान के सामने 29 जून से प्रतिदिन सत्याग्रह होगा।” उसी संध्या को जब रामलीला मैदान की विशाल जनसभा से हजारों लोग लौट रहे थे, तब प्रत्येक धूलिकण से मानो यही मांग उठ रही थी कि “प्रधानमंत्री त्यागपत्र दें और वास्तविक गणतंत्र की परम्परा का पालन करें।”

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25 जून 1975 की रात्रि को देश पर आपातकाल थोप दिया गया। पूरा देश स्तब्ध रह गया। भारत के चिरपोषित राजनीतिक मूल्यों पर संकट छा गया। नागरिक अधिकारों का गला घांेट दिया गया था। मीडिया पर सेंसरशिप लगा दी गयी थी। न्यायालयों को निरर्थक बना दिया गया था। दिल्ली में नेताओं की धरपकड़ तेज हो गयी। विपक्ष के बड़े नेताओं उनमें चाहे मोरारजी देसाई रहे हों, चौधरी चरण सिंह,अटल बिहारी बाजपेई और लालकृष्ण आडवाणी को रातोंरात पकड़कर जेल में डाल दिया गया। संघ के सरसंघचालक बाला साहब देवरस को 30 जून को ही नागपुर स्टेशन पर बंदी बना कर यरवदा जेल ले जाया गया। यरवदा जेल में पूज्य बाला साहब देवरस के साथ 500 संघचालक,कार्यवाह और कार्यकर्ता बंद थे। बाला साहब देवरस ने अपनी गिरफ्तारी के पूर्व ही आह्वान किया, “इस असाधारण परिस्थिति में स्वयंसेवकों का दायित्व है कि वे अपना संतुलन न खोएं। संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। जैसे-जैसे समय बीतता गया शासन प्रशासन का कहर जनता पर बढ़ता गया। आपातकाल के दौरान सरकारी संचार माध्यमों का भी खूब दुरुपयोग किया गया। आल इंडिया रेडियो को इन्दिरा गांधी के भाषणों को प्रसारित करने के आदेश दिये गए। 

सभी प्रकार की संचार व्यवस्था, यथा-समाचार-पत्र-पत्रिकाओं, मंच, डाक सेवा और निर्वाचित विधान मंडलो को ठप्प कर दिया गया। प्रश्न था इसी स्थिति में जन आंदोलन को कौन संगठित करे? अंततः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने आपातकाल के विरूद्ध बिगुल फूंका। सारे समाज में आपातकाल के विरूद्ध वातावरण बनाने में संघ के कार्यकर्ताओं ने कष्ट सहकर बड़ी बुद्धिमत्ता और धैय से काम लिया। संघ का देश भर में शाखाओं का अपना जाल था और वही इस भूमिका को निभा सकता था। संघ प्रारम्भ से ही जन संपर्क के लिए वह  प्रेस अथवा मंच पर कभी भी निर्भर नहीं रहा। अतः संचार माध्यमों को ठप्प करने का प्रभाव अन्य दलों पर तो पड़ा, पर संघ पर उसका रंचमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा। अखिल भारतीय स्तर के उसके केन्द्रीय निर्णय, प्रांत, विभाग, जिला और तहसील के स्तरांे से होते हुए गाँव तक पहुंच जाते हैं। जब आपातकाल की घोषणा हुई उस बीच संघ की यह संचार व्यवस्था सुचारु ढंग से चली। भूमिगत आंदोलन के ताने-बाने के लिए संघ कार्यकर्ताओं के घर महानतम वरदान सिद्ध हुए और इसके कारण ही गुप्तचर अधिकारी भूमिगत कार्यकर्ताओं के ठोर ठिकाने का पता नहीं लगा सके। 

आपातकाल के समय भूमिगत रहते हुए रज्जू भैया,डा.आबाजी थत्ते,बाला साहब भिड़े, चमनलाल जी, ए रामभाऊ गोडबोले,सुंदर सिंह भण्डारी, ओम प्रकाश त्यागी,जगन्नाथ राव जोशी, दादा साहब आपटे और बापू राव मोघे जैसे संघ के अनेक वरिष्ठ प्रचारकों ने जनता का मनोबल बनाए रखने के लिए देशभर में प्रवास किया। 

आपातकाल विरोधी संघर्ष में 1 लाख से भी ज्यादा स्वयंसेवक सत्याग्रह कर जेल गये। आपातकाल के दौरान सत्याग्रह करने वाले कुल 1,30,000 सत्याग्रहियों में से एक लाख से अधिक सत्याग्रही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के थे। मीसा के अधीन जो 30,000 लोग बंदी बनाए गए, उनमें से 25000 से अधिक संघ के स्वयंसेवक थे। जबकि सत्याग्रह और जेल भरने का अनुभव का दावा करने वाली संस्था कांग्रेस ‘ओ’ और समाजवादी दल के ज्यादा लोग नहीं जा पाये। संघ के बाद अकाली दल की संख्या थी करीब 12 से 13 हजार थी। बाबा जयगुरूदेव भी मात्र तीन से चार हजार लोग को ही जेल भेज सके। सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं की संख्या बहुत सीमित थी, फिर भी अक्सर आपस में झगड़ते रहते थे। संघ के कार्यकर्ता जेलों में बड़े आनंद के साथ घुलमिलकर रहते थे। सभी जेलों में नियमित रूप से सुबह और शाम को संघ की शाखा लगती थी। उसमें शारीरिक और बौद्धिक के कार्यक्रम होते थे। आपातकाल विरोधी संघर्ष में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 कार्यकर्ता अधिकांशतः बंदीग्रहों और कुछ बाहर आपातकाल के दौरान बलिदान हुए। 

अच्युतपटवर्धन ने लिखा है, “मुझे यह जानकार प्रसन्नता हुई कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता राजनीतिक प्रतिरोध करनेवाले किसी भी अन्य समूह के साथ मिलकर, उत्साह और निष्ठा के साथ कार्य करने के लिए, तथा घोर दमन और झूठ का सहारा लेने वाले पैशाचिक शासन का जो कोई भी विरोध कर रहे हों, उनके साथ खुल कर सहयोग करने और साथ देने के लिए तैयार थे। 

जिस साहस और वीरता के साथ पुलिस के अत्याचारों और उसकी नृशंसता को झेलते हुए स्वयंसेवक आंदोलन चला रहे थे,उसे देखकर तो मार्क्सवादी संसद सदस्य ए के गोपालन भी भावकुल हो उठे थे। उन्होने कहा था “कोई न कोई उच्चादर्श अवश्य है जो उन्हे ऐसे वीरोचित कार्य के लिए और त्याग के लिए अदम्य साहस प्रदान कर रहा है”। (इंडियन एक्सप्रेस के 9 जून, 1979)

आपातकाल के दौरान विभिन्न प्रकार की ज्यादतियों  को जानने  के लिए 1977 में मोरारजीदेसाई की सरकार  ने 28 मई 1977 को शाह आयोग गठित किया जिसके अध्यक्ष जस्टिसजे सी शाह थे। सभी पहलुओं की जांच करने के बाद शाह आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि जिस वक्त आपातकाल की घोषणा की गई उस वक्त देश में न तो आर्थिक हालात खराब थे और न ही कानून व्यवस्था में किसी तरह की कोई दिक्कत।

आपातकाल के दौर में आज़ादी के बाद देश के भीतर इतने बड़े पैमाने पर नेताओं की गिरफ्तारी पहली बार हुई थी। भिखारियों की जबरदस्ती नसबंदी की गई बल्कि ऑटो रिक्शा चालकों के ड्राइविंग लाइसेंस के नवीनीकरण के लिए नसबंदी सर्टिफिकेट दिखाना पड़ता था।

आपातकाल के समय काम कर चुके वरिष्ठ पत्रकार नरेन्द्र भदौरिया अपनी पुस्तक तानाशाही में लिखते हैं कि ‘‘जर्मन तानाशाह हिटलर के कालखण्ड में लगभग 15 लाख लोगों को जबरन नपुंसक बनाया गया था जबकि इंदिरा गांधी ने अपने 21 माह के तानाशाही काल में पांच गुना लोगों (पुरूषों -महिलाओं) को नपुंसक बना डाला था। इंदिरा के काल में यह संख्या 60 लाख से अधिक थी। कितने दुर्भाग्य की बात है कि आपातकाल की त्रासद घटनाओं का संज्ञान या तो बहुत हल्के ढ़ंग से लिया गया अथवा विस्मृति के गर्त में धकेल दिया गया।’’

पूरा देश आपातकाल के विरूद्ध जब संघर्ष कर रहा था तो कम्युनिस्ट कांग्रेस की हां में हां मिला रहे थे। सीपीआई ने आपातकाल को एक अवसर के रूप में देखा और स्वागत किया। सीपीआई नेताओं का मानना था कि वे आपातकाल को कम्युनिस्ट क्रांति में बदल सकते थे। सीपीआई ने 11वीं भटिंडा कांग्रेस में इन्दिरा गांधी द्वारा थोपे गए आपातकाल का समर्थन किया था। 

भारत में तानाशाही नहीं चल सकती। भारत का जन मन लोकतंत्र की हत्या सहन नहीं कर सकता। भारत के सांस्कृतिक और लोकतांत्रिक मूल्यों पर जब-जब भी हमला हुआ है उस अन्याय और अत्याचार के प्रति भारत का जन हमेशा संघर्ष के लिए उठ खड़ा हुआ है। 

- बृजनन्दन राजू

(लेखक पत्रकारिता से जुड़े हैं।)

इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।

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