मर्द को भी दर्द होता है जनाब, क्या कभी किसी ने जानने, समझने की कोशिश की

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पुरुष अपनी विनम्रता और सहनशक्ति के कारण हर जख्म को हंसते-हंसते सह जाता है। मर्द का दर्द नहीं होता कहने वाले हकीकत से दूर ही रहते हैं कि मर्द को भी दर्द होता है। लेकिन वह कभी भी अपने दर्द का प्रदर्शित नहीं करता।

जी हां, मैं पुरुष हूं ! मां के पेट से जब मैं दुनिया में आता हूं, परिवार के सपने पूरे करने का जरिया बन जाता हूं, कोई मुझे बुढ़ापे का सहारा कहता है, तो किसी की आंखों का तारा बन जाता हूं। लेकिन फिर भी मैं अत्याचारी कहलाता हूं। जी हां, मैं पुरुष हूं ! वैसे तो जीवन रूपी गाड़ी के पुरुष और महिला दोनों ही पहिये हैं लेकिन हमारे समाज में जितना मान और सम्मान महिलाओं को दिया जाता है शायद उतना पुरुषों को नहीं मिलता। पुरुष नेपथ्य में रहते हुए अपनी जिम्मेदारियों व दायित्वों का भलीभांति निर्वहन करता जाता है। पुरुष पहाड़ के भांति परिवार पर आने वाली हरेक विपदा से टकराता है और रक्षा के लिए मर मिट जाता है। लेकिन इन सबके बाद भी पुरुषों को हमारे समाज में एक बलात्कारी, अत्याचारी छवि के रूप में देखने का चलन बदस्तूर जारी है। क्योंकि पुरुष अपनी विनम्रता और सहनशक्ति के कारण हर जख्म को हंसते-हंसते सह जाता है। मर्द का दर्द नहीं होता कहने वाले हकीकत से दूर ही रहते हैं कि मर्द को भी दर्द होता है। लेकिन वह कभी भी अपने दर्द का प्रदर्शित नहीं करता। 

दुनिया भर में महिला दिवस की जितनी चर्चा होती है, उतनी पुरुष दिवस की हो ही नहीं पाती। हम यह भूलते जा रहे हैं कि दिवस केवल विडंबनाओं का परिचायक नहीं है, बल्कि यह किसी विशेष वर्ग के उल्लेखनीय कार्यों को समाज के समक्ष प्रदर्शित करने का माध्यम है। यही कारण है कि हम महिला दिवस पर महिलाओं की दयनीय दशा का रोना तो रो देते हैं लेकिन पुरुष दिवस पर हमारा यह रुदन मौन साध लेता है। आज 19 नवंबर को इंटरनेशनल मेन्स डे है, यानी पुरुषों का दिन। जानकारी के अनुसार अमेरिका के मिसौर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर थॉमस योस्टर की कोशिशों के बाद पहली बार 7 फरवरी 1992 को पुरुष दिवस मनाया था। अमेरिका, कनाडा और यूरोप के कुछ देशों ने पहली बार अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस का जश्न मनाया था। लेकिन साल 1995 से कई देशों ने फरवरी महीने में पुरुष दिवस मनाना बंद कर दिया। हालांकि कई देश इस दौरान भी अपने-अपने हिसाब से पुरुष दिवस का जश्न मनाते रहे हैं। 1998 में त्रिनिदाद एंड टोबेगो में पहली बार 19 नवंबर को अंतरराष्ट्रीय पुरुष दिवस मनाया गया और इसका सारा श्रेय डॉ. जीरोम तिलकसिंह को जाता है। यूनेस्को ने इस प्रयास के लिए जीरोम की काफी सराहना की थी।

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गौरतलब है कि भारत में पहली बार इस दिवस को साल 2007 में मनाया गया था। इसे सबसे पहले पुरुषों के अधिकार के लिए बनाई गई संस्था 'सेव इंडियन फैमिली' ने मनाया था। इसके बाद 'ऑल इंडिया मेन्स वेल्फेयर एसोसिएशन' ने भारत सरकार से यह मांग की कि महिला विकास मंत्रालय की तरह पुरुष विकास मंत्रालय भी बनाया जाए। यह दिवस सिर्फ समाज में पुरुषों की महत्ता ही नहीं दर्शाता है, बल्कि यह सभी पुरुषों को लेकर उनके कार्यों और सामाजिक विशेषताओं को भी दर्शाता है। विश्व के सभी पुरूषों के लिए यह खुशी का मौका है, तो साथ ही इस मौके पर अपने स्‍वास्‍थ्‍य की भी देख-रेख करने की शपथ लेते हैं। इस दिन को मनाने का आशय है कि बच्चों और पुरूषों के स्वास्‍थ्‍य संबंधी समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करना, पुरूषों को बराबरी का दर्जा दिलाना। सवाल उठना लाजिमी है कि पुरुषों को एक खास दिन की जरूरत आखिर क्यों है? तो जवाब है कि महिलाओं की तरह पुरुष भी असमानता का शिकार होते हैं। हमारा समाज पुरुष प्रधान है, मतलब यहां पुरुषों का वर्चस्व है। यह सोच सिर्फ भारत जैसे देशों की ही नहीं है, बल्कि दुनिया के कई देशों में इस तरह की सोच आज भी है। मगर इसका मतलब यह नहीं है कि पुरुषों को कोई समस्या नहीं है। हकीकत यह है कि वह भी भेदभाव, शोषण और असमानता का शिकार होते हैं। आंकड़ों के मुताबिक 76 फीसदी आत्महत्याएं पुरुष करते हैं। 85 फीसदी बेघर लोग पुरुष हैं। 70 फीसदी हत्याएं पुरुषों की हुई हैं। घरेलू हिंसा के शिकारों में भी 40 फीसदी पुरुष हैं। 

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हमें समझना होगा कि किसी भी देश के विकास के लिए पुरुष और महिला दोनों का योगदान महत्वपूर्ण है। अत: पुरुष और महिला दोनों को एक लोकतांत्रिक मुल्क में समान अधिकार मिलने चाहिए। हमारे समाज की ये मानसिक रुग्णता ही है कि जब भी कोई गलत कार्य अंजाम लेता है तो सारा ठीकरा पुरुष के सिर मढ़ दिया जाता है। परिस्थिति चाहे कैसी भी हो पुरुष को ही सवालों के कठघरे में खड़ा करके दोषी साबित किया जाता है। महिला यदि पुरुष पर झूठा ही बलात्कार का इल्जाम लगा दे तो पुरुष को सजा से कोई नहीं बचा सकता। जबकि पुरुष के साथ यदि कोई महिला वास्तव में जबरदस्ती करें और वो अपने दुष्कर्म की रिपोर्ट लिखवाना चाहे तो हास्य का पात्र बनकर रह जाता है। यह दोहरा मापदंड भारत जैसे देश में शर्मनाक तो ही है साथ में पुरुष व महिला के समान अधिकारों पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है। आशा है कि समाज का पुरुषों के प्रति रूढिवादी व परंपरागत दृष्टिकोण बदलेगा और उन्हें भी महिलाओं के समतुल्य सम्मान व समान अधिकारों का लाभ मिल सकेगा।

-देवेंद्रराज सुथार

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