राज्यपाल शासन की ओर बढ़ रहा है जम्मू-कश्मीर!

छह माह पुराने पीडीपी-भाजपा गठबंधन के खत्म होने की की उल्टी गिनती शुरू हो गई है। इसकी शुरूआत यूं तो हिज्बुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी की मौत के साथ ही हो गई थी पर उस आग में घी का काम किया है उन 88 मौतों ने जो सुरक्षा बलों के हाथों कश्मीर में पिछले 71 दिनों में हो चुकी हैं। यह मौतें राजनीतिक बलि भी लेने लगी हैं। पीडीपी के संस्थापक सदस्य और श्रीनगर-बडगाम से लोकसभा सांसद तारिक अहमद कर्रा पार्टी की सदस्यता और लोकसभा से इस्तीफा दे चुके हैं। उनके इस्तीफे ने पीडीपी के भीतर खलबली मचा दी हुई है। यह खलबली गठबंधन सरकार के ताबूत में आखिरी कील साबित होने जा रही है क्योंकि राज्य सरकार की कारगुजारी से ‘नाखुश’ राज्यपाल और प्रधानमंत्री को राज्यपाल में गवर्नर रूल के सिवाय कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा है।
इस संबंध में राज्यपाल नरेंद्रनाथ वोहरा की मुलाकात दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से हो चुकी है। कहने को यूं तो यह मुलाकात सामान्य कही जा रही है पर राजनीतिक पंडित ताबड़तोड़ मुलाकातों के पीछे गहरे संकेत छुपे होने की बात कहते हैं। उन सभी का इशारा राज्यपाल शासन की ओर ही है। दरअसल राज्यपाल सरकार के हाथ से निकलते कंट्रोल को लेकर ‘गुस्सा’ भी हैं। वे इस नाराजगी को पीडीपी के नेताओं से व्यक्त भी कर चुके हैं। यह बात अलग है कि भाजपा के केंद्रीय नेता अभी भी यह स्वीकार करने को राजी नहीं हैं कि राज्य में भाजपा-पीडीपी गठबंधन नाकाम रहा है। हालांकि उनकी आंखें खोलने के लिए यही सबूत काफी है कि तीन महीने की हिंसा के दौरान उनकी पार्टी के सभी मंत्री कश्मीर को साथ छोड़ जम्मू संभाग में हैं और जो पीडीपी के मंत्री या विधायक कश्मीर में हैं उन्होंने अपने आपको श्रीनगर तक ही सीमित कर लिया हुआ है।
वर्तमान हालात से मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती भी दुखी हैं। उनकी मजबूरी यह है कि वे अब उन मौतों पर आंसू भी नहीं बहा सकती जो सुरक्षा बलों के हाथों हो चुकी हैं। इससे कोई अनभिज्ञ नहीं है कि पीडीपी ने आज जो भी मुकाम हासिल किया है पह सहानुभूति की फसल को काट कर पाया है। कश्मीर में सुरक्षा बलों और आतंकियों के हाथों मारे जाने वाले नागरिकों के साथ संवेदना प्रकट कर पीडीपी नेताओं ने सहानुभूति की फसल को वोट बैंक में बदला है जो आज खतरे में है और इस सच्चाई से कोई भी इंकार नहीं करता। इससे भी अब कोई इंकार नहीं करता की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती भाजपा के साथ तालमेल को लेकर अपनी पार्टी के पुराने और बुजुर्ग नेताओं के दबाव में हैं। इन नेताओं ने महबूबा के पिता दिवंगत मुफ्ती मुहम्मद सईद के समय भी तालमेल का विरोध किया था, लेकिन तब वे ज्यादा आक्रामक नहीं हुए थे। लेकिन अब उन्होंने तेवर दिखाने शुरू कर दिए हैं।
गौरतलब है कि महबूबा की पार्टी पीडीपी को हमेशा अलगाववादियों और खास कर हुर्रियत नेताओं के करीब माना जाता रहा है। लेकिन उसके भाजपा के साथ जाने से कश्मीर घाटी में हुर्रियत की हैसियत घटी है। भाजपा और नेशनल कांफ्रेंस के साथ रहने से उन्हें परेशानी नहीं थी क्योंकि तब हुर्रियत नेताओं की हैसियत बनी रहती थी। लेकिन पीडीपी और भाजपा के साथ आने से उनकी हैसियत घटी है। घाटी का आंदोलन भी उनकी कमान से निकला हुआ है। तभी हुर्रियत ने पीडीपी के पुराने नेताओं के सहारे दबाव की राजनीति शुरू की है। वे भी चाहते हैं कि पीडीपी और भाजपा का तालमेल खत्म हो। श्रीनगर के सांसद तारिक हमीद कर्रा ने इसी राजनीति के तहत पार्टी और लोकसभा सीट से इस्तीफा देने का ऐलान किया है। वे चाहते थे कि पीडीपी अपने उस उसूल ‘हीलिंग टच’ को न भूले और यह तभी संभव हो सकता है जब पीडीपी भाजपा का साथ छोड़ दे।
- सुरेश डुग्गर
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