कन्याओं के पांव पूजने के कार्यक्रम आयोजित हों, तो छेड़छाड़ की घटनाएं रुकेंगी

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विजय कुमार । Oct 18 2018 1:38PM

वस्तुतः गांव की सब कुमारी कन्याओं को एकत्र कर हर युवक एवं गृहस्थ को उसके पांव पूजने चाहिए। यह कार्यक्रम मन पर अमिट संस्कार छोड़ता है। जिसने भी कन्याओं के पांव पूजे हैं, वह किसी लड़की को नहीं छेड़ सकता।

हर बार की तरह विजयादशमी फिर आ गयी है। नौ दिन तक मां दुर्गा की पूजा हुई। रात में दुर्गा जागरण हुए और अष्टमी या नवमी को कन्या पूजन संपन्न हुआ। सम्पूर्ण पूर्वोत्तर भारत में जय काली कलकत्ते वाली का जोर रहा। उत्तर भारत में रामलीलाएं हुईं और फिर रावण को फूंक दिया गया।

विजयादशमी पर सबसे पुराना प्रसंग मां दुर्गा का है। जब सारे देवता शुंभ-निशुंभ, रक्तबीज और महिषासुर जैसे राक्षसों से हार गये, तो उन्होंने मिलकर लड़ने का विचार किया; पर वहां पुरुषोचित अहम् तथा नेतृत्व का विवाद खड़ा हो गया। ऐसे में सबने एक नारी का नेतृत्व स्वीकार किया। उन्होंने अपने-अपने शस्त्र अर्थात अपनी सेनाएं भी उन्हें दे दीं। इस तरह राक्षसों के आतंक से मुक्ति मिली। इसी तरह जब रावण ने सीता का अपहरण कर लिया, तो श्रीराम ने समाज के निर्धन, पिछड़े और वंचित वनवासियों को संगठित कर उसे हराया। इन्हें ही रामलीला में वानर, रीछ, गृद्ध आदि बताया जाता है।

यह दोनों प्रसंग बताते हैं कि जब लोग संगठन की छत्रछाया में आते हैं, तो उससे आश्चर्यजनक परिणाम निकलते हैं। इसी विचार को कार्यरूप देने के लिए 1925 की विजयादशमी पर नागपुर में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ की स्थापना की थी। इसी प्रकार नारियों को संगठित करने हेतु श्रीमती लक्ष्मीबाई केलकर ने 1936 में इसी दिन वर्धा में ‘राष्ट्र सेविका समिति’ की स्थापना की थी। पर समय के साथ इस पर्व के मूल उद्देश्य पर कुछ धूल आ गयी। नवरात्र के उपवास के पीछे शुद्ध वैज्ञानिक कारण है। इससे गर्मी और सर्दी के इस संधिकाल में पेट को कुछ विश्राम देने से अनेक आंतरिक व्याधियों से मुक्ति मिलती है; पर कुछ लोग व्रत के नाम पर गरिष्ठ वस्तुएं खाकर पेट खराब कर लेते हैं।

इसी प्रकार नवरात्र में मां दुर्गा के जागरण के नाम पर बड़े-बड़े भोंपू लगाकर लोगों की नींद खराब करना धर्म नहीं है ? फिल्मी गानों की तर्ज पर बने भजनों से भक्तिभाव नहीं जागता। वस्तुतः दुर्गा पूजा और विजयादशमी शक्ति की आराधना के पर्व हैं। मां दुर्गा के हाथ में नौ प्रकार के शस्त्र हैं। नवरात्र का अर्थ है कि युवक मां दुर्गा की मूर्ति या चित्र के सम्मुख शस्त्र-संचालन का अभ्यास करें। महाराष्ट्र में समर्थ स्वामी रामदास के अखाड़ों में यही सब होता था। इनके बल पर ही शिवाजी ने औरंगजेब जैसे विदेशी और विधर्मी को धूल चटाई थी।

कन्यापूजन में भी लोग अपने आसपास या रिश्तेदारों की कन्याओं को बुला लेते हैं। वस्तुतः गांव की सब कुमारी कन्याओं को एकत्र कर हर युवक एवं गृहस्थ को उसके पांव पूजने चाहिए। यह कार्यक्रम मन पर अमिट संस्कार छोड़ता है। जिसने भी कन्याओं के पांव पूजे हैं, वह किसी लड़की को नहीं छेड़ सकता। यौन अपराधों को रोकने में यह पर्व सब कानूनों से भारी है।

विजयादशमी पर दुर्गा प्रतिमाओं का विसर्जन करते हैं। सौ साल पूर्व भारत की जनसंख्या बीस करोड़ थी और नदी, ताल आदि में भरपूर पानी रहता था। आज जनसंख्या सवा अरब है। नदियों में जल घट गया है और तालाबों की भूमि पर बहुमंजिले भवन खड़े हो गये हैं। ऐसे में जो जल शेष है, वह प्रदूषित न हो, यह विचार अवश्य करना चाहिए। इसलिए प्रतिमा में प्राकृतिक मिट्टी, रंग तथा सज्जा सामग्री का ही प्रयोग हो। प्लास्टर ऑफ पेरिस, रासायनिक रंग आदि का प्रयोग उचित नहीं है।

कुछ अतिवादी सोच के शिकार लोग मूर्ति विसर्जन पर रोक लगाने को कहते हैं। असल में मूर्ति-निर्माण और विसर्जन हिन्दू चिंतन का अंग है, जो यह दर्शाता है कि मूर्ति की तरह ही यह शरीर भी मिट्टी से बना है, जिसे मिट्टी में ही मिल जाना है। विसर्जन के समय शोभायात्रा से किसी को परेशानी न हो, यह भी ध्यान रखना चाहिए।

विजयादशमी से जुड़े ये प्रसंग हमें व्यक्तिगत एवं सामाजिक रूप से जाग्रत करने में सक्षम है। रावण, कुम्भकरण और मेघनाद के पुतलों का दहन करते समय अपनी निजी और सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वासों और कालबाह्य हो चुकी रूढ़ियों को भी जलाना होगा। आज विदेशी और विधर्मी शक्तियां भारत को हड़पने के लिए षड्यन्त्र कर रही हैं। उनका सामना करने का सही संदेश विजयादशमी का पर्व देता है। आवश्यकता केवल इसे ठीक से समझने की ही है।

-विजय कुमार

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