अधिकांश स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिल रही, बच्चे आगे बढ़ें कैसे?

Most schools do not get quality education

भारत एक कृषि प्रधान देश है, यहां अधिकांश परिवार एक साधारण जीवन जीते हैं ऐसे में इन लोगों में अधिकांशतः प्राथमिक शिक्षा से भी वंचित रह जाते हैं और जो ग्रामीण जन कुछ शिक्षा ग्रहण भी कर लेते हैं तो वह उस दर्जे की नहीं होती जिससे उन्हें वैकल्पिक तौर पर किसी अन्य जगह पर जाकर काम मिल सके।

भारत एक कृषि प्रधान देश है, यहां अधिकांश परिवार एक साधारण जीवन जीते हैं ऐसे में इन लोगों में अधिकांशतः प्राथमिक शिक्षा से भी वंचित रह जाते हैं और जो ग्रामीण जन कुछ शिक्षा ग्रहण भी कर लेते हैं तो वह उस दर्जे की नहीं होती जिससे उन्हें वैकल्पिक तौर पर किसी अन्य जगह पर जाकर काम मिल सके। वर्तमान समय में तो गांवों और शहरों में मौजूद स्कूल या तो हिन्दी माध्यम हैं या अंग्रेजी माध्यम। हिन्दी माध्यम स्कूलों में पढ़ाई का स्तर इतना अच्छा नहीं है कि इनमें पढ़ने वाले बच्चे तकनीकी शिक्षा या कम्प्यूटर आधारित शिक्षा में महारत हासिल कर पायें और अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे जो मध्यम वर्गीय परिवार से आते हैं, वे घर के वातावरण और अपने विद्यालय के वातावरण के मध्य सामंजस्य बैठाने में सदैव संघर्षरत रहते हैं इसका क्या कारण है ? एक बालक को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने के लिए कौन-कौन सी चीजें बाधक हैं ? 

इस बात का पता लगाने पर हम पायेंगे कि सबसे महत्वपूर्ण है, शिक्षा की भाषा। सवाल यह है कि किस भाषा में बच्चे को पढ़ाया जा रहा है और वह उसको कितना समझ आ रहा है जो उसे पढ़ाया गया। दूसरी बात करें, तो बड़े स्कूलों की मोटी फीस और तामझाम जहां हर कोई अपने बच्चे को पढ़ाना तो चाहता है पर फीस देने में सक्षम ना हो पाने पर मन मसोस कर रह जाता है। इसके बावजूद सरकारी योजना “सर्वशिक्षा अभियान” के अंतर्गत अगर आपके बच्चे को किसी बड़े स्कूल में दाखिला मिल गया तो क्या आपका बच्चा जिसके पिताजी आज भी साईकिल चलाते हैं किसी BMW या मर्सडीज कार में चलने बाले बच्चे जितना जीवन स्तर पा सकता है, जवाब है नहीं। वर्तमान शिक्षा तंत्र में ऐसी कई कमियां मौजूद हैं। आरक्षण की व्यवस्था ने स्वयं ही शिक्षित समाज को दो वर्गों में बांट दिया है।

अगर हम मूल्य आधारित शिक्षा की बात करें तो वह क्या होती है और छात्र और शिक्षक के मध्य कैसा संबंध होना चाहिये और कैसी व्यवस्था होनी चाहिये उसके विषय में मैं आगे आपके बता रही हूँ। कोई भी विद्यालय चाहे शहर में हो या ग्रामीण क्षेत्र में हो, सर्वप्रथम अगर निजी संस्थान है तो वहां फीस की व्यवस्था एक जैसी होनी चाहिये। स्कूल में मौजूद प्रोजेक्टर क्लास रूम, पुस्तकालय, खेल का मैदान, कम्प्यूटर प्रशिक्षण लैब, NCC या स्काउट, सांस्कृतिक कार्यक्रम भवन, भौतिक, रसायन, बायोलोजी के लिए प्रायोगिक लैब के आधार पर श्रेणी अनुसार फीस निर्धारित होनी चाहिए। अब अगर सरकारी स्कूलों की बात की जाये तो इनमें सुबह के नाश्ते का प्रबंध जरूरी है। बच्चों को बुनियादी सुविधाएं जैसे बैठने के लिए मेज–कुर्सी, पुस्तकालय और साफ सुथरा शौचालय जब तक ना हो (जिसमें लड़कियों के लिए अलग और लड़कों के लिए अलग व्यवस्था हो।) उन स्कूलों को प्रारंभ करने की अनुमति नही देनी चाहिये।

निजी हो या सरकारी, प्रत्येक विद्यालय का मुख्य मकसद केवल शिक्षा प्रदान करना ही नहीं होना चाहिए बल्कि बच्चों में सीखने की प्रवृत्ति विकसित करना होना चाहिये। बच्चों की समझ के दायरे को बढ़ावा दें। घिसे-पिटे किताबी ज्ञान के आकलन के आधार पर मेरिट निर्धारित ना करें बल्कि अतिरिक्त क्रियाकलापों में बच्चों ने कैसा प्रर्दशन किया है उनके अंकों का भी रिपोर्ट कार्ड में स्थान होना चाहिये। किताबी ज्ञान सिर्फ आपकी बुनियाद है। उसके आगे की इमारत आपको अपनी सीखने की क्षमता के आधार पर बढ़ानी है, स्कूलों में रोजगार काउंसलिंग का पूरा पैनल होना चाहिये। शिक्षा सदैव मूल परक और रोजगार उन्नमुखी होनी चाहिये।

माता-पिता को भी चाहिये कि वो बच्चों को केवल किताबी पढ़ाई में टॉप करने को प्रेरित ना करें बल्कि समझें भी। बालक या बालिका किसा क्षेत्र में अग्रणी है उसे वैसी शिक्षा प्रदान करवायी जाये। बुनियादी शिक्षा के तौर पर आज गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, अंग्रेजी, हिन्दी के साथ-साथ कम्प्यूटर ज्ञान, शारीरिक व्यायाम, पर्यावरण जागरूकता और राष्ट्रीय सुरक्षा से संबन्धित विषयों को शामिल किया जाना चाहिये।

प्राथमिक स्तर पर खेल-खेल में बच्चों को सिखायें, माध्यमिक स्तर पर बच्चों में जागरूकता लाने का प्रयास किया जाये, शिक्षक कोशिश करें कि बच्चे अधिक से अधिक सवाल पूछें और शिक्षक उनके सवालों के जवाब उन्हें दे पायें। बालक-बालिकाओं में हो रहे भावनात्मक बदलावों पर हफ्ते में एक दिन एक व्याख्यान अवश्य होना चाहिये। साधारण विद्यालयों की अपेक्षा विभिन्न क्रियाकलापों से युक्त विद्यालयों की आवश्यकता है। बच्चे देश का प्राथमिक और मौलिक संसाधन होते हैं उनमें सीखने की कला के विकास पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। उत्कृष्ट समाज ही उत्कृष्ट राष्ट्र बनाता है। इसलिए सामाजिक कल्याण हेतु मासूम बालकों पर केवल उनके बस्तों का बोझ मत डालिये बल्कि उनके मन में देश के हित के लिए कुछ कर दिखाने के सपनों के बीज बोईये। सपनों के साथ आगे चलकर जब यही बालक युवा होंगे तो अवश्य अपनी कार्यशक्ति से हमारे समाज ही देश में भी अज्ञानता और कुरीतियों को मिटाकर बदलाव लायेंगे और भारत को विश्व में एक विकसित राष्ट्र का दर्जा दिलवायेंगे।

-डॉ. अंशुल उपाध्याय

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