सुख के साथियों से बचे भाजपा, दलबदलू लोग किसी के नहीं होते

Naresh Agarwal wants power only

नरेश अग्रवाल के लिए राजनीति भी व्यवसाय है। जहाँ लाभ दिखे, वहीं चले जाओ। यह उनकी फितरत है। लेकिन सोचना तो भाजपा को चाहिए। दुर्दिन में उसके कार्यकर्ता कष्ट उठा कर पार्टी की सेवा करते हैं।

नरेश अग्रवाल की एक विशेष छवि है। वह ज्यादा दिन किसी एक दल में नहीं रुकते। उनके बारे में कहा जाता है कि जिस दल की सरकार उसके नरेश अग्रवाल। यह जुमला एक बार फिर हकीकत बना। उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया। भाजपा ने राम का अपमान, प्रधानमंत्री को दी गयी गाली को नजरअंदाज कर उन्हें गले लगा लिया। इसी के साथ उनकी वाणी और निष्ठा बदल गई। नया ज्ञान मिला। बोले कि ''जब तक राष्ट्रीय पार्टी में नहीं रहें तब तक राष्ट्र की सेवा नहीं कर सकते। इसलिए मैं बीजेपी में शामिल हुआ हूं। मैं पीएम मोदी और सीएम योगी से प्रभावित हूं। पीएम मोदी के काम से देश का पूरे विश्व में मान बढ़ा है।''

वह अपने इस बयान पर कब तक कायम रहेंगे यह तो वक्त बतायेगा। पता नहीं उनका यह ज्ञान कब तक कायम रहेगा। उन्हें लगे हाथ यह भी बता देना चाहिए कि अब तक क्षेत्रीय पार्टियों में रहते हुए क्या वह जनसेवा नहीं कर रहे थे। आजीवन साथ रहने का वादा तो उन्होंने बसपा और सपा से भी किया था। उनकी छवि एक बड़े दलबदलू नेता के रूप में भी बनी हुई है। वह बहुत बड़े दुकानदार किस्म के नेता हैं उन्होंने अपना कारोबार हर पार्टी में फैलाया है। जहां−जहां सत्ता रही वहीं नरेश अग्रवाल नजर आए। उनके बारे में एक कहावत है कि वह बगैर सत्ता के नहीं रह सकते हैं। जिस दल की सत्ता चली जाती है अग्रवाल वहां से अपना बोरिया बिस्तर परिवार सहित समेट लेते हैं और सत्ता वाली पार्टी में रख देते हैं।

वह अपने क्षेत्र में लगभग हर चुनाव जीत जाते हैं। उनके प्रतिद्वंद्वी अशोक बाजपेई के भाजपा में टिकट पाने से वह परेशान थे। उन्होंने इसी चक्कर में फैसला ले लिया। हालांकि भाजपा तो वह वैतरिणी है जहां आने के बाद सब पवित्र हो जाते हैं। कांग्रेस पार्टी से अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत करने वाले नरेश अग्रवाल सपा, बसपा के बाद भाजपा में शामिल हो चुके हैं। इतना ही नहीं 1980 से सरकार चाहे किसी भी पार्टी की रही हो वे या उनके बेटे मंत्री जरूर बने। 1988−89 में जब यूपी में कांग्रेस कमजोर पड़ रही थी, तब नरेश अग्रवाल ने उसे बीच में छोड़ दिया था। 1989 में कांग्रेस छोड़ने के बाद नरेश अग्रवाल ने 1997 में अखिल भारतीय लोकतांत्रिक कांग्रेस का गठन किया और कल्याण सिंह, रामप्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह सरकार में मंत्री भी बन बैठे। 1998 में मुलायम सिंह की सरकार में भी नरेश अग्रवाल मंत्री बने। हालांकि 2007 में बसपा की सरकार बनने के बाद वे सपा छोड़कर मायावती के संग हो लिए। नरेश अग्रवाल ने 2008 में बहन जी के प्रति अपनी श्रद्धा जाहिर की। हालांकि वहां भी ज्यादा टिके नहीं मात्र तीन सालों में उनका मोह भंग हो गया। 2012 में उन्होंने सपा का दामन थामा। अपने बेटे को मंत्री बनवा कर खुद राज्यसभा भी गये। इस बार पार्टी ने उनकी जगह जया बच्चन को अपना प्रत्याशी बनाया जिससे वह नराज होकर भाजपा में चले गये।

इस प्रकार के नेताओं पर किसी पार्टी को ज्यादा विश्वास नहीं करना चाहिए। राज्यसभा के पिछले सत्र तक नरेश अग्रवाल भाजपा पर जिस प्रकार हमला बोल रहे थे, वह शब्द आज भी गूंज रहे हैं। राज्यसभा का टिकट मिल जाता तो सपा उनके लिए अच्छी थी। भाजपा साम्प्रदायिक थी। टिकट नहीं मिला तो सपा खराब और भाजपा अच्छी हो गई। भाजपा से ज्यादा लाभ उन्हें कहीं दिखा तो वहां जाने में नरेश को देर नहीं लगेगी। तब वह भाजपा को फिर साम्प्रदायिक घोषित कर देंगे।

नरेश अग्रवाल के लिए राजनीति भी व्यवसाय है। जहाँ लाभ दिखे, वहीं चले जाओ। यह उनकी फितरत है। लेकिन सोचना तो भाजपा को चाहिए। दुर्दिन में उसके कार्यकर्ता कष्ट उठा कर पार्टी की सेवा करते हैं। लेकिन सत्ता की बहार में अनेक बाहरी आ जाते हैं। इनमें से कई मंत्री, विधायक, सांसद बन जाते हैं। राज्यसभा के लिए भी इनकी लाटरी लग जाती है। जबकि ये सभी सुख के साथी हैं। अंततः ये नेता ही पार्टी की छवि और ग्राफ गिराने के जिम्मेदार बनेंगे। इसके बाद ये फिर दूसरा ठिकाना तलाश लेंगे।

-विवेक त्रिपाठी

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