जस्टिस लोया मामले में रिकॉर्ड कुछ कहता है और विपक्ष कुछ और

opposition blames govt on justice loya case
कमलेश पांडे । Apr 21 2018 12:57PM

सर्वोच्च न्यायालय ने सोहराबुद्दीन शेख फर्जी मुठभेड़ मामले की जांच कर रही सीबीआई के विशेष न्यायाधीश बी.एच. लोया की संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मौत की स्वतंत्र जांच कराने के लिए दायर विभिन्न याचिकाओं को जिस तरह से खारिज कर दिया।

सर्वोच्च न्यायालय ने सोहराबुद्दीन शेख फर्जी मुठभेड़ मामले की जांच कर रही सीबीआई के विशेष न्यायाधीश बी.एच. लोया की संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मौत की स्वतंत्र जांच कराने के लिए दायर विभिन्न याचिकाओं को जिस तरह से खारिज कर दिया, उससे एक बार फिर हाइप्रोफाइल मामलों में अदालत की निष्पक्ष भूमिका पर कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। खास बात यह है कि ऐसे सवाल कोई आम आदमी नहीं बल्कि शीर्ष न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण और अभिषेक मनु सिंधवी जैसे कानूनी मामलों के जानकार उठा रहे हैं जो नीतिगत और तथ्य पर आधारित हैं। लिहाजा, उनकी बातों की अनदेखी करना किसी भी न्यायालय के लिए मुश्किल है, क्योंकि न्यायिक निर्णय तथ्यों और तर्कों की कसौटी पर ही आधारित होते हैं। स्वाभाविक सवाल है कि न्याय होना ही नहीं, बल्कि दिखना भी तो चाहिए।

उल्लेखनीय है कि न्यायाधीश लोया की 1 दिसंबर, 2014 को नागपुर (महाराष्ट्र) में कथित रूप से दिल का दौरा पड़ने के उपरांत मृत्यु हो गयी थी। इस मामले में चिकित्सकीय सुविधा प्रदान करने में लापरवाही बरते जाने की बातें भी हवा में उछली थीं, जिसमें उनकी बहन और मीडिया रपट दोनों का योगदान समान है, जबकि उनका बेटा इसका खंडन कर चुका है।

यही वजह है कि प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए.एम. खानविलकर और न्यायमूर्ति डी.वाई. चन्द्रचूड़ की पीठ ने अपने फैसले में स्पष्ट कहा है कि न्यायिक अधिकारियों और बंबई उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के खिलाफ गंभीर आरोप लगाकर न्यायपालिका को विवादित बनाने का प्रयास किया जा रहा है। क्योंकि लोया की मृत्यु की परिस्थितियों के संबंध में चार जजों के बयान पर संदेह करने का कोई औचित्य नहीं है। साथ ही रिकॉर्ड में रखे गए दस्तावेज और उनकी जांच यह साबित करती है कि लोया की मृत्यु प्राकृतिक कारणों से हुई है। दरअसल, इन याचिकाओं का असली मकसद न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर हमला करने का प्रयास था। क्योंकि राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के मकसद से ही इस तरह की ओछी और हित साधने वाली याचिकाएं दायर की जा रही हैं।

कहना न होगा कि कोर्ट के ताजा फैसले पर जिस तरह के सवाल उठ रहे हैं, परस्पर उठाए जा रहे हैं और इसके अतीत से जो प्रसंग जुड़े हुए हैं, उन पर नजर दौड़ाना जरूरी है। पहला, इस विवादास्पद मामले की सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं और महाराष्ट्र सरकार के वकीलों के बीच जब तीखी तकरार हुई थी, तब वरिष्ठ अधिवक्ताओं के इस तरह के व्यवहार को लेकर पीठ ने अपनी गहरी नाराजगी जताई थी। दूसरा, महाराष्ट्र सरकार की ओर से बार-बार यह दावा किया जा रहा था कि स्वतंत्र जांच के लिये दायर याचिकायें प्रायोजित हैं, जिनका मकसद महज एक व्यक्ति के खिलाफ मुद्दे को हवा देते रहना है। तीसरा, राज्य सरकार ने भी शीर्ष अदालत से इस बात का अनुरोध किया था कि इस मामले में जांच का आदेश नहीं दिया जाए, क्योंकि इससे न्यायाधीशों और न्यायपालिका के प्रति लोगों के मन में संदेह पैदा होगा। चौथा, इन याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान राज्य सरकार ने यह भी तर्क दिया था कि याचिका में किये गये अनुरोध पर कोई भी आदेश देते समय न्यायालय को बहुत सावधानी बरतनी होगी, क्योंकि जांच के आदेश देने की स्थिति में बंबई उच्च न्यायालय के पीठासीन न्यायाधीशों और प्रशासनिक समिति को भी दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के अंतर्गत अपने बयान दर्ज कराने होंगे। शायद ऐसी ही कुछ अहम वज़हें होंगी जिससे शीर्ष न्यायालय की पीठ इस ताजा निष्कर्षों तक पहुंच पाई है।

बता दें कि इस मामले की स्वतंत्र जांच कराने के लिये बंबई लॉयर्स एसोसिएशन, कांग्रेस नेता तहसीन पूनावाला और महाराष्ट्र के पत्रकार बीएस लोन ने शीर्ष अदालत में याचिकायें दायर की थीं। इसलिए इस मामले में किसी अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले ही उच्चतम न्यायालय ने जस्टिस लोया की मौत की जांच संबंधी मांग करने वाली विभिन्न याचिकाओं को अपने पास स्थानांतरित करवा लिया था। यही नहीं, इस वर्ष जनवरी में इस मामले पर सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने मामले में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का नाम घसीटने के लिये एक वरीय अधिवक्ता को भी फटकार लगाई थी। और उसके बाद से ही यह अटकलें लगाई जा रही थीं कि इस हाइप्रोफाइल मामले का निर्णय फिक्स है जो याचिकाकर्ताओं के खिलाफ जाएगा!

यही वजह है कि इस फैसले पर नाराजगी जताते हुए याचिकाकर्ता और वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने इसे सुप्रीम कोर्ट के लिए काला दिन करार देते हुए कहा कि हमने सिर्फ स्वतंत्र जांच की मांग की थी, लेकिन कोर्ट ने स्वतंत्र जांच की बजाय याचिकाकर्ताओं की मंशा पर ही सवाल खड़े कर दिए। शीर्ष न्यायालय के द्वारा इस तथ्य की अनदेखी की गई कि जस्टिस लोया की मेडिकल हिस्ट्री में दिल की बीमारी का कोई जिक्र नहीं है। अतः सभी तथ्यों को दरकिनार करते हुए ये कहा गया कि संभव है कि याचिकाकर्ता राजनीतिक फायदे के लिए काम कर रहे हों। कम से कम स्वतंत्र जांच का आदेश तो सुप्रीम कोर्ट दे ही सकती थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस लोया की मौत के मामले में पर्दा डालने का काम किया है।

कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने भी इस फैसले पर नाराजगी जताते हुए कहा है कि जस्टिस लोया की मौत की स्वतंत्र जांच के लिए अभी और इंतजार करना होगा। लेकिन इस मामले में तर्कपूर्ण कारणों की तलाश की बजाय सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने और ज्यादा सवाल खड़े कर दिए हैं और कई को अनसुलझा भी छोड़ दिया है। 

उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों द्वारा बारह जनवरी को की गयी प्रेस कांफ्रेंस की तात्कालिक वजह लोया केस की सुनवाई के लिए चुनी गई पीठ थी। हालांकि बाद में उस पीठ ने खुद को इस मामले से अलग कर लिया था और इसके बाद चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ के समक्ष इस मामले की सुनवाई हुई थी। इसलिए यह मानना गलत नहीं होगा कि न्यायालय जब न्याय नहीं फैसला करने लग जाए तो फिर किसी भी न्याय व्यवस्था पर सवाल खड़े होना स्वाभाविक है। अतः यह नितांत जरूरी है कि व्यवस्था साफ, स्पष्ट, पारदर्शी, निष्पक्ष, निडर, निर्मल, सुदृढ़ हो ही नहीं, बल्कि स्पष्ट तौर पर दिखे भी। यही जनतंत्र का तकाजा है।

-कमलेश पांडे

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