शुरू हुई स्कूली बस्ते का बोझ कम करने की सकारात्मक पहल

Positive initiative to reduce school bag burden

तेलगांना सरकार ने बच्चों के दर्द को समझा और छोटे बच्चों के बस्ते के बोझ को कम करने की बड़ी पहल की। तेलंगाना में अब पांचवीं तक के बच्चों के बस्ते के बोझ में कुछ कमी होगी वहीं होमवर्क भी नहीं मिलेगा।

चलो आखिर कहीं से तो पहल हुई। तेलगांना सरकार ने बच्चों के दर्द को समझा और छोटे बच्चों के बस्ते के बोझ को कम करने की बड़ी पहल की। तेलंगाना में अब पांचवीं तक के बच्चों के बस्ते के बोझ में कुछ कमी होगी वहीं होमवर्क भी नहीं मिलेगा। तेलंगाना की पहल के बाद अब केन्द्र सरकार ने भी पहल की है और कमोबेश इसी तरह की व्यवस्था सीबीएसई के स्कूलों में लागू करने का निर्णय किया है। देश में सीबीएसई के 19 हजार 200 से अधिक स्कूल संचालित हैं। नई व्यवस्था के अनुसार अब बच्चों को शुद्ध पीने का पानी उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी स्कूलों की होगी। बच्चों के बस्ते में करीब एक लीटर से अधिक का बोझ तो पानी की बोतल के कारण ही हो जाता था। इसके अलावा किताब−कापियों का बोझ अलग।

इसके साथ ही डिजाइनर के चक्कर में एक से एक आकर्षक तरीके के बोझिले बैग का बोझ नन्हीं जान को अपनी कमर पर ढोना पड़ रहा था। तेलंगाना में बच्चों को होमवर्क देने पर भी रोक लगाई गई है। इसके साथ ही सीबीएसई और तेलंगाना ने डिजिटल शिक्षा पर जोर दिया है। पाठ्यक्रम में बदलाव का निर्णय लिया गया है। अब पांचवीं तक के बच्चों के बैग का वजन पांच किलों से अधिक नहीं होगा। चिंतनीय यह है कि शिक्षा व्यवस्था बच्चों के स्वाभाविक विकास में अवरोधक बनती जा रही है। बच्चे पर मानसिक और शारीरिक बोझ के साथ ही अभिभावकों पर आर्थिक, सामाजिक और मानसिक बोझ का कारण बनती जा रही है। बस्ते के बोझ के कारण चिकित्सकों ने यहां तक चेतावनी दी है कि बच्चों की पीठ पर अत्यधिक बोझ के कारण स्वाभाविक शारीरिक विकास में अवरोध के साथ ही वह पीठ के दर्द के शिकार हो जाएंगे। स्कूलों में पढ़ाई और फिर घर पर होमवर्क और इसके साथ ही अब चले नए चलन के अनुसार ट्यूशन के दबाव के चलते बच्चे कुंठित, एकाकी और सामाजिक ताने−बाने से दूर हो जाएंगे। मनोविज्ञानिक इस बात से चिंतित हैं कि आज के बच्चे संवेदनहीन, कुंठित, जिद्दी और एकाकी कैसे होते जा रहे हैं। हालांकि इस सबके लिए सामाजिक ताने बाने में बिखराव और बोझिल तनावपूर्ण शिक्षा व्यवस्था को भी दोषी माना जा रहा है।

पिछले साल महाराष्ट्र के चंद्रपुर के प्रेस क्लब में जब एक अंजान से स्कूल के सातवीं के दो बच्चों ने देश के बच्चों की दुखद दास्तां सामने रखी तो उपस्थित पत्रकार ही नहीं सारा देश अचंभित रह गया। ऐसा नहीं है कि इन दो बच्चों या दूसरे शब्दों में कहें तो बस्ते के बोझ तले दबे बच्चों की दास्तान से शिक्षाविद् या सरकार अंजान थी बल्कि सच्चाई तो यह है कि बस्ते के बोझ की हकीकत पर बौद्धिक जुगाली बरसों से होती आ रही है। यही कोई 25−30 साल पहले आई प्रोफेसर यशपाल कमेटी की रिपोर्ट में इसे गंभीर मानते हुए व्यावहारिक सुझाव दिए थे जो फाइलों के बोझ तले कहीं दबे ही रह गए। अभी गए साल ही महाराष्ट्र हाई कोर्ट ने भी स्कूलों में बस्तों के बोझ को कम करने के निर्देश दिए थे। हाल ही में डॉ. सुब्रहमण्यम कमेटी ने भी शिक्षा नीति के लिए दिए सुझावों में इस बात पर भी ध्यान आकर्षित किया हैं। डॉक्टरों, मनोवैज्ञानिकों, शिक्षाविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं यहां तक कि हमारे न्यायालयों ने बच्चों पर बढ़ते बस्ते के बोझ पर गंभीर चिंता व्यक्त की है।

न्यायालय के स्पष्ट निर्देश हैं कि बस्ते का बोझ बच्चे के वजन के 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। पर हकीकत तो कुछ और ही बयां करती है। बस्ते के बोझ तले बच्चों की मासूमियत खोती जा रही है। शिक्षा की दुकानों को छोड़ भी दिया जाए तो सरकारी स्कूलों में भी किताब−कापियों का बोझ कम नहीं है। एक सरकारी चैकिंग के दौरान ही यह उभर कर आया है कि 87 फीसदी स्कूल बैग तय मानक से अधिक भारी हैं। आखिर हम बच्चों को देना क्या चाहते हैं, शरीर पर शारीरिक बोझ, पढ़ाई का मानसिक बोझ, अभिभावकों की जिद के आगे अव्वल आने की होड़। इन सबके बीच बच्चे का स्वभाविक शारीरिक व मानसिक विकास कहीं खोता जा रहा है। आज एलकेजी में जब हम बच्चे का दाखिला कराने जाते हैं तो शिक्षा की निजी दुकानों में पिक्टोरियल के नाम पर किताब−कापियों का ढेर थमा दिया जाता है। इसके अलावा बच्चें का टिफिन और यहां तक की पानी की बोतल का बोझ तक उसे ढोना पड़ता है। इस सबके बाद स्कूल में किस मंजिल पर बच्चे की कक्षा है वहां तक इस बोझ का ढोना पड़ता है। हालांकि अध्ययन सामग्री को ढोना कहना अपने आप में गलत है और इसके लिए शर्मिंदा होने के बावजूद जो हकीकत है उसकी तस्वीर बयां की जा रही है। बस्ते के बोझ के चलते बच्चों को कच्ची उम्र में पीठ के दर्द से दो चार होना पड़ रहा है। गांवों व छोटे कस्बों में तो बच्चों का यह भी दुख है कि पहले पांच-सात किलोमीटर तक कंधों पर बैग को लाना और फिर स्कूल की तीसरी मंजिल तक उसे ले जाना बेहद दर्दनाक काम है।

यह कोई आज का मुद्दा नहीं है। दो ढाई दशक पहले प्रोफेसर यशपाल कमेटी इस पर विचार कर ठोस सुझाव दे चुकी है। हालही में सुब्रहमण्यम कमेटी ने भी इस पर विचार किया है। समय समय पर अन्य प्लेटफार्म पर इस विषय पर गहन चिंतन और मनन होता रहा है। देश के न्यायालयों ने इसे गंभीर माना है। 2012 में दिल्ली उच्च न्यायालय और पिछले साल ही बंबई उच्च न्यायालय भी बस्ते का वजन 10 फीसदी तक रखने के निर्देश दे चुका है। यशपाल कमेटी की रिपोर्ट को भी नए सिरे से देखा जा सकता है। केन्द्रीय विद्यालयों के संगठन और सीबीएसई की रिपोर्टों का नए सिरे से अध्ययन किया जा सकता है। सामाजिक कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों और समाजशास्त्रियों की राय ली जा सकती है। अब तो समय के साथ काफी बदलाव भी आया है। ऑडियो−विजुअल के माध्यम से बच्चों को शिक्षा दी जा सकती है। कब तक मोटी मोटी किताबों को बैग में रखकर स्कूल लाने का चलन चलता रहेगा यह विचारणीय है। एक जानकारी के अनुसार शिक्षा की दुकानों में मोटी कमाई के चक्कर में बैग का बोझ बढ़ता जाता है पर सरकारी स्कूलों में भी स्कूल बैग को बोझ कोई कम नही हैं। सीबीएसई के अनुसार कक्षा दो के बैग का वजन ज्यादा से ज्यादा दो किलो और कक्षा चार तक तीन किलो तक होना चाहिए। पर हकीकत कुछ और ही है। यहां तक कि बच्चों के बैग के वजन कक्षानुसार पांच किलो से लेकर 10−12 किलो तक होता जा रहा है। परिणाम सामने है- बच्चों में सिरदर्द, रीढ़ की हड्डी का दर्द आदि आम होता जा रहा है।

बच्चों के बस्ते के बोझ को कम करने के लिए सरकार को निजी स्कूलों पर भी लगाम लगानी होगी। निजी स्कूलों को सरकार रियायती दर पर भूमि उपलब्ध कराती है, अन्य सुविधाएं भी देती है। इस सबके बावजूद निजी शिक्षण संस्थाएं शिक्षा के मंदिर के स्थान पर व्यावसायिक केन्द्र बनते जा रहे हैं। शिक्षण संस्थान में प्रवेश के साथ ही वहीं से अन्य सामग्री यथा किताब−कापियां सहित पाठ्य व सहपाठ्य सामग्री, ड्रेस, जूते, बैग, टिफिन, बोतल आदि लेनी पड़ती है। अब तो यह तक होने लगा है कि एलकेजी के बच्चे को भी ट्यूशन की सलाह और दे दी जाती है। यह सब तब है जब देश दुनिया डिजीटल युग में प्रवेश कर चुकी है। बच्चों को बस्ते के बोझ की जगह ऑडियो विजुअल साधनों का प्रयोग कराते हुए शिक्षित किया जाता है तो अधिक कारगर होगा। हमें नहीं भूलना चाहिए कि पहले एक कालांश सब बच्चों को एक साथ बैठाकर एक बच्चा बोलता और फिर दूसरे बच्चे उसे बोलते थे, यह उस जमाने का ऑडियो सिस्टम इतना प्रभावी होता था कि उस पीढ़ी के लोगों को आज भी इस तरह की पढ़ाई याद होगी। तेलंगाना और सीबीएसई की इस पहल को अन्य राज्य सरकारों को भी अपनाने के लिए आगे आना होगा और सरकार को निजी शिक्षण संस्थाओं पर भी अंकुश लगाना होगा। शिक्षा के मंदिरों को शारीरिक, मानसिक विकास का केन्द्र बनाना होगा ना कि आर्थिक शोषण का जरिया।

- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

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