गलती बेचारी हथिनी की थी ! उसने इंसान पर भरोसा आखिर कैसे कर लिया ?

मुझे आश्चर्य तो उस समय होता है जब मांसाहारी लोग भी उस हथिनी के लिए शोक करते हुए दिखाई देते हैं, जो एक हाथ से मांस खाते हैं और दूसरे हाथ से हथिनी की मौत वाली खबर ढूँढ़ने के लिए रिमोट पकड़े टी.वी. के चैनल बदलते रहते हैं।
हाथी मेरे साथी फिल्म का एक गाना आपने खूब सुना होगा। वह है- तू यारों का यार है कितना वफादार है / झूठा है सारा जहाँ सच्चा तेरा प्यार है / तू पगला न बदला तू पगला न बदला / सारी दुनिया गई है बदल चल / चल चल चल मेरे साथी ओ मेरे हाथी। मैं अच्छा गीतकार तो नहीं लेकिन नकल अच्छे से कर लेता हूँ। मैंने इसी गीत की पैरोडी बनाते हुए लिखा- तू धरती का बोझ है कितना वजनदार है / छोटा है सारा जहाँ बड़ा तेरा आकार है / तू बेकार न काम का तू बेकार न काम का / सारी दुनिया मर रही है चल / मर मर मर मेरे हाथी ओ मेरे हाथी। आपको यह पैरोडी कुछ अटपटी लग रही होगी। अब आप ही सोचिए एक छोटी-सी पैरोडी का अटपटा पन आपको बुरा लग रहा है तो केरल में एक जिंदा गर्भवती हथिनी का मार डालना कितना बुरा लगना चाहिए। मुझे क्षमा कीजिए केरल में हथिनी की नहीं मानवता की हत्या हुई है। दानवता का नंगा नाच हुआ है।
इंसान बहुत बड़ा ढोंगी है। ऊपर से कुछ अंदर से कुछ। हाथी को गणेश का रूप मानने वाले भारत में इतना जघन्य अपराध हमारी संस्कृति का घिनौना और कुत्सित रूप है। बॉलीवुड में केवल हाथी पर बहुत सारी फिल्में जैसे- हाथी मेरे साथी, सफेद हाथी, मैं और मेरा हाथी, दोस्त और पिछले वर्ष आयी जंगली बनायी गयी हैं। हमारे बड़े-बूढ़े हमेशा कहते हैं- बेटा रील लाइफ और रियल लाइफ में जमीन आसमान का अंतर होता है। इसीलिए फिल्म आरंभ होने के दौरान एक ढोंगी वाक्य लिखा होता है- इस फिल्म में किसी भी जानवर को कष्ट नहीं पहुँचाया गया है। जबकि वास्तविक जीवन में यह तस्वीर कुछ और ही बयान करती है।
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यह सच है कि हथिनी ने इंसान पर भरोसा कर के एक बहुत बड़ी गलती की, जिसका खामियाजा उसे अपनी जान देकर चुकाना पड़ा। इंसान शायद आज भरोसे के लायक ही नहीं है। परंतु मुझे आश्चर्य तो उस समय होता है जब मांसाहारी लोग भी उस हथिनी के लिए शोक करते हुए दिखाई देते हैं, जो एक हाथ से मांस खाते हैं और दूसरे हाथ से हथिनी की मौत वाली खबर ढूँढ़ने के लिए रिमोट पकड़े टी.वी. के चैनल बदलते रहते हैं।
प्रश्न यहाँ एक हथिनी या अन्य किसी जानवर के मरने का नहीं है। प्रश्न यह है कि क्यों लोग अपने स्वार्थ के लिए इतना क्रूर होते जा रहे है ? हथिनी गर्भवती थी। केरल के मल्लपुरम की सड़कों पर भोजन की तलाश में निकली थी। उसे पटाखों से भरा अनानास खिला दिया गया। उसने मनुष्य पर भरोसा किया। खा लिया। वह नहीं जानती थी कि उसे पटाखा भरा अनानास खिलाया गया है। परिणामस्वरूप पटाखे मुँह में फटते हैं। मुँह जलने के कारण वह कुछ भी नहीं खा पा रही थी। गर्भ के दौरान भूख ज़्यादा लगती है। ऊपर से उसे अपने बच्चे का ख्याल भी रखना था। अब आगे क्या बताऊँ? दर्द की यह आपबीती लिखते हुए मेरी कलम काँप रही थी। घायल हथिनी पीड़ा के मारे इधर-उधर भटकती है। अपने मुँह की जलन मिटाने के लिए पानी ढूँढ़ती है। अंत में पानी में अपना मुंह देकर पीड़ा को शांत करने का प्रयास करती है। प्रयास निरर्थक होने पर अपना दम तोड़ देती है।
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सच तो यह है कि भ्रूण की भूख मिटाने के लिए अनानास का खाना उतना ही सच है जितना अनानास के भीतर पटाखों का होना है। यहाँ अनानास कोई और नहीं इंसान है और पटाखे उसके अंदर का शैतान है। मुझे पूरा विश्वास है कि यह करतब ऐसे ही किसी इंसान ने उस हथिनी के साथ किया होगा जो मीट फैक्ट्रियों की सच्चाई से अवगत हैं। वे यह जानते होंगे कि हर रोज न जाने कितनी गर्भवती गायों, भैंसों और छोटे बछड़ों को इन स्लॉटर हाउसों में गैर कानूनी तरीके से चोरी छिपे काट दिया जाता है। इसलिए हथिनी के मरने पर आश्चर्य करने की आवश्यकता नहीं है।
हाँ इतना जरूर है कि हथिनी जाते-जाते हमें एक बात सिखा गयी। वह यह कि जो लोग एक हाथ में फ़ोन से उसके लिए सांत्वना भरे संदेश टाइप करते हुए दूसरे हाथ से मांस का मजा लेना चाहते हैं, वो लोग वास्तव में सरासर दोगले हैं। दोगले इंसान से वायरस ही अच्छे हैं। ऐसे इंसानों पर कभी भरोसा नहीं करना चाहिए। अंत में –
मर रही हूँ मैं, अपने प्यारे भ्रूण के साथ,
आगे नहीं बढ़ाया किसी ने अपना हाथ।
जाने को तो जा रही हूँ, छोड़ तुम्हारा साथ।
अब न बढ़ाना फिर कभी धोखे भरे हाथ।।
-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त
(सरकारी पाठ्यपुस्तक लेखक, तेलंगाना सरकार)
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