कश्मीरी पंडितों की जलावतनी: समस्या जस की तस है

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कहा जाता है कि 4 जनवरी 1990 को इस संगठन ने एक प्रेस नोट जारी किया जिसे कश्मीर के उर्दू समाचारपत्रों ‘आफताब’ और ‘अल सफा’ ने प्रमुखता के साथ छापा। प्रेस नोट में हिंदुओं को कश्मीर छोड़ कर घाटी से चले जाने का आदेश दिया गया था। कश्मीरी पंडितों की चुन-चुन कर खुले आम हत्याएँ की गयीं।

19 जनवरी 1990 का दिन कश्मीरी पंडितों के वर्तमान इतिहास-खंड में काले अक्षरों में लिखा जायेगा। यह वह दिन है जब पाक समर्थित जिहादियों द्वारा कश्यप-भूमि की संतानों (कश्मीरी पंडितों) को अपनी धरती से बड़ी बेरहमी से बेदखल कर दिया गया था और धरती के स्वर्ग में रहने वाला यह शांतिप्रिय समुदाय दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर हुआ था। यह वही काली तारीख है जब लाखों कश्मीरी पंडितों को अपनी जन्मभूमि, कर्मभूमि, अपने घर आदि हमेशा के लिए छोड़ कर अपने ही देश में शरणार्थी बनना पड़ा था।

पंडितों के विस्थापन का यह सिलसिला कब से और कैसे प्रारंभ हुआ? इस पर तनिक एक नजर डालने की ज़रूरत है। खूब मिलजुलकर रहने वाली दोनों कौमों यानी हिन्दुओं (पंडितों) और मुसलमानों के बीच नफरत के बीज किसने और क्यों बोये? इसका उत्तर सीधा-सा है: विश्व में बढ़ते इस्लामीकरण की फैलती आग का मुस्लिम-बहुल कश्मीर पहुँच जाना और इस खूबसूरत वादी का इसकी चपेट में आ जाना। कौन नहीं जानता कि कश्मीर से पंडितों के पलायन के पीछे पृथकतावादी (जिहादी संगठन) हिजबुल मुजाहिदीन की कुत्सित और भडकाऊ नीति ज़िम्मेदार रही है।

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कहा जाता है कि 4 जनवरी 1990 को इस संगठन ने एक प्रेस नोट जारी किया जिसे कश्मीर के उर्दू समाचारपत्रों ‘आफताब’ और ‘अल सफा’ ने प्रमुखता के साथ छापा। प्रेस नोट में हिंदुओं को कश्मीर छोड़ कर घाटी से चले जाने का आदेश दिया गया था। कश्मीरी पंडितों की चुन-चुन कर खुले आम हत्याएँ की गयीं। कश्मीर दूरदर्शन के निदेशक (मेरे मित्र एवं सहपाठी)लस्सा कौल, राजनीतिक कार्यकर्त्ता टीकालाल टप्लू, नर्स सरला भट्ट, जज नीलकंठ गुर्टू, साहित्यकार सर्वानन्द प्रेमी, केन्द्रीय कर्मचारी (मेरे रिश्तेदार) बालकृष्ण गंजू आदि दर्जनों बेकसूर कश्मीरी पंडितों को मौत के घाट उतारा गया। कश्मीर की प्रमुख मस्जिदों के लाउडस्पीकर जिनसे अब तक केवल अल्लाह-ओ-अकबर की आवाजें आती थीं, अब भारत की ही धरती पर हिंदुओं से चीख-चीख कर कहने लगे कि कश्मीर छोड़ कर चले जाओ और अपनी बहू-बेटियाँ हमारे लिए छोड़ जाओ। कश्मीर में रहना है तो अल्लाह-अकबर कहना है, “असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान” (हमें पाकिस्तान चाहिए. पंडितों के बगैर किन्तु पंडित-महिलाओं समेत।) और तो और जगह-जगह दीवारों पर पोस्टर चिपकाये गये कि सभी लोग कश्मीर में इस्लामी वेश-भूषा पहनें, कश्मीरी पंडित-महिलाएं बिंदी का प्रयोग न करें, सिनेमाघरों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया, कश्मीरी हिंदुओं की दुकानें, मकान और व्यापारिक प्रतिष्ठान चिन्हित कर दिए गए ताकि इन्हें बाद में लूटा जा सके या इनपर कब्जा किया जा सके आदि-आदि। यहाँ तक कि घड़ियों का समय भी भारतीय समय से बदल कर पाकिस्तानी समय के अनुरूप करने का फतवा जारी किया गया। 24 घंटे में कश्मीर छोड़ दो या फिर मरने के लिए तैयार हो जाओ, काफिरों को क़त्ल करो आदि नारे और सन्देश कश्मीर की फिजाओं में गूँजने लगे। इस्लामिक दमन का घिनौना रूप जिसे भारत सदियों तक झेलने के बाद भी मिल-जुल कर रहने के लिए भुला चुका था, एक बार फिर अपना विकराल रूप धारण करने लगा था। प्रशासन ठप्प पड़ा था या मूक दर्शक बनकर अपनी लाचारी का मातम मना रहा था। हुकुमरान सुरक्षा कवच में थे या फिर घाटी छोड़ कर भाग खड़े हुए थे। चारों तरफ अराजकता और बद-अमनी का माहौल व्याप्त था।

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आज कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडित बिलकुल भी नहीं। अगर हैं भी तो वे किसी मजबूरी के मारे वहां पर रह रहे हैं और उनकी संख्या नगण्य है। वादी से खदेड़े जाने के बाद ये लोग शरणार्थी शिविरों (जम्मू और दिल्ली में) या फिर देश के दूसरे स्थानों पर रह रहे हैं। माना जाता है कि 3 लाख के करीब कश्मीरी पंडित जिहादियों के जोर-जब्र की वजह से घाटी से भागने पर विवश हुए। कभी साधन-सम्पन्न रहे ये हिंदू/पंडित आज सामान्य आवश्यकताओं के मोहताज हैं। उन्हें उस दिन का इंतज़ार है जब वे ससम्मान अपने घर वापस जा सकें।

केंद्र और राज्य सरकारें पंडितों को कश्मीर में बसाने और कश्मीर समस्या को सुलझाने के लिए भरसक प्रयत्न कर रही हैं। कोशिश यह की जा रही है कि विभिन्न पक्षों के बीच वार्ता-संवाद से कोई समाधान निकाला जाए। जैसा कि होता है, ऐसे उलझे हुए मामलों में प्राय: सत्तारूढ़ दल अपनी पूर्ववर्ती सरकार पर दोषारोपण करते हुए कहता है कि समस्या हम पर थोपी गई है। समय रहते अगर पूर्ववर्ती सरकारों ने कड़े कदम उठाए होते और जिहादी-अलगाववादी गतिविधियों पर लगाम कसी होती तो आज कश्मीर में हालात इतने बिगड़े हुए न होते। कहने की आवश्यकता नहीं कि कश्मीर में जब-जब सरकार बदलती है, लगभग यही आरोप सरकारें एक-दूसरे पर लगाती आई हैं। सत्ता में रहने या सत्ता हासिल करने के लिए ये आरोप-प्रत्यारोप कश्मीर की राजनीति का हिस्सा बन चुके हैं।

इसी तरह का एक आरोप 1990 में कश्मीर के हुक्मरानों ने गवर्नर जगमोहन पर लगाया था कि कश्मीर से पंडितों के विस्थापन में उनकी विशेष भूमिका रही है। हालांकि इस आक्षेप का न तो कोई प्रमाण था और न कोई दस्तावेज, मगर फिर भी इस आरोप को तब मीडिया ने खूब उछाला था। कहने का तात्पर्य यह है कि राजनीति में रहने के लिए, अपनी राजनीति चमकाने के लिए या फिर जैसे-तैसे खबरों में छाए रहने के लिए आरोप गढ़ना-मढ़ना अब हमारी राजनीति का चलन हो गया है। जिन्होंने जगमोहन की पुस्तक ‘माय फ्रोजेन टरबुलंस इन कश्मीर’ पढ़ी हो, वे बता सकते हैं कि कश्मीरी पंडित वादी से पलायन करने को क्यों मजबूर हुए थे। जगमोहन ने तो सीमित साधनों और विपरीत परिस्थितियों के चलते घाटी में विकराल रूप लेती आतंककारी घटनाओं को खूब रोकना चाहा था, मगर उस समय के स्थानीय प्रशासन और केंद्र की उदासीनता की वजह से स्थिति बिगड़ती चली गई थी। जब आतंकियों द्वारा निर्दोष पंडितों को मौत के घाट उतारने का सिलसिला बढ़ता चला गया तो जान बचाने का एक ही रास्ता रह गया था उनके पास और वह था घरबार छोड़कर भाग जाना।

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लगभग तीस साल हो गए हैं पंडितों को बेघर हुए। इनके बेघर होने पर आज तक न तो कोई जांच-आयोग बैठा, न कोई स्टिंग आपरेशन हुआ और न संसद या संसद के बाहर इनकी त्रासद-स्थिति पर कोई बहसबाजी ही हुई। इसके विपरीत ‘आजादी चाहने’ वाले अलगाववादियों और जिहादियों/जुनूनियों को सत्ता-पक्ष और मानवाधिकार के सरपरस्तों ने हमेशा सहानुभूति की नजर से देखा है। पहले भी यही हो रहा था और आज भी यही हो रहा है। उच्च न्यायलय ने भी पंडितों की उस याचिका पर विचार करने से मना कर दिया जिस में पंडितों पर हुए अत्याचारों की जांच करने के लिए गुहार लगाई गयी थी। काश, अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की तरह कश्मीरी पंडितों का भी अपना कोई वोट-बैंक होता तो आज स्थिति दूसरी होती! तीस सालों के विस्थापन की पीड़ा से आक्रांत/बदहाल यह जाति धीरे-धीरे अपनी पहचान और अस्मिता खो रही है। एक समय वह भी आएगा जब उपनामों को छोड़ इस जाति की कोई पहचान बाकी नहीं रहेगी। दरअसल, किसी भी जाति के अस्तित्व के लिए तीन शर्तों का होना परमावश्यक है। पहली, उसका भौगोलिक आधार अर्थात उसकी अपनी सीमाएं, क्षेत्र या भूमि। दूसरी, उसकी सांस्कृतिक पहचान और तीसरी, अपनी भाषा और साहित्य। ये तीनों किसी भी ‘जाति’ के मूलभूत तत्त्व होते हैं। अमेरिका या इंग्लैंड में रह कर आप अपनी संस्कृति का गुणगान या संरक्षण तो कर सकते हैं, मगर वहां अपना भौगोलिक आधार तैयार नहीं कर सकते। यह आधार तैयार हो सकता है अपने ही देश में और ‘पनुन कश्मीर’ (अपना कश्मीर) की अवधारणा इस दिशा में उठाया गया सही कदम है। सारे विस्थापित/गैर-विस्थापित कश्मीरी पंडित जब एक ही जगह रहने लगेंगे तो भाषा की समस्या तो सुलझेगी ही, सदियों से चली आ रही कश्मीर की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा की भी रक्षा होगी। लगता तो यह एक दूर का सपना है, मगर क्या मालूम यह सपना कभी सच भी हो जाए।

यहाँ पर इस बात को रेकांकित करना लाजिमी है कि जब तक कश्मीरी पंडितों की व्यथा-कथा को राष्ट्रीय स्तर पर उजागर नहीं किया जाता तब तक इस धर्म-परायण और राष्टभक्त कौम की फरियाद को व्यापक समर्थन प्राप्त नहीं हो सकता। इस के लिए परमावश्यक है कि सरकार इस समुदाय के किसी जुझारू, कर्मनिष्ठ और सेवाभावी नेता को राज्यसभा में मनोनीत करे ताकि पंडितों के दुःख दर्द को देश तक पहुँचाने का उचित और प्रभावी माध्यम इस समुदाय को मिले। अन्य मंचों की तुलना में देश के सर्वोच्च मंच से उठाई गयी समस्याओं की तरफ जनता और सरकार का ध्यान तुरंत जाता है।

- डा. शिबन कृष्ण रैणा

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