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कश्मीरी पंडितों की जलावतनी: समस्या जस की तस है
- डा. शिबन कृष्ण रैणा
- जनवरी 19, 2019 15:27
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कहा जाता है कि 4 जनवरी 1990 को इस संगठन ने एक प्रेस नोट जारी किया जिसे कश्मीर के उर्दू समाचारपत्रों ‘आफताब’ और ‘अल सफा’ ने प्रमुखता के साथ छापा। प्रेस नोट में हिंदुओं को कश्मीर छोड़ कर घाटी से चले जाने का आदेश दिया गया था। कश्मीरी पंडितों की चुन-चुन कर खुले आम हत्याएँ की गयीं।
19 जनवरी 1990 का दिन कश्मीरी पंडितों के वर्तमान इतिहास-खंड में काले अक्षरों में लिखा जायेगा। यह वह दिन है जब पाक समर्थित जिहादियों द्वारा कश्यप-भूमि की संतानों (कश्मीरी पंडितों) को अपनी धरती से बड़ी बेरहमी से बेदखल कर दिया गया था और धरती के स्वर्ग में रहने वाला यह शांतिप्रिय समुदाय दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर हुआ था। यह वही काली तारीख है जब लाखों कश्मीरी पंडितों को अपनी जन्मभूमि, कर्मभूमि, अपने घर आदि हमेशा के लिए छोड़ कर अपने ही देश में शरणार्थी बनना पड़ा था।
पंडितों के विस्थापन का यह सिलसिला कब से और कैसे प्रारंभ हुआ? इस पर तनिक एक नजर डालने की ज़रूरत है। खूब मिलजुलकर रहने वाली दोनों कौमों यानी हिन्दुओं (पंडितों) और मुसलमानों के बीच नफरत के बीज किसने और क्यों बोये? इसका उत्तर सीधा-सा है: विश्व में बढ़ते इस्लामीकरण की फैलती आग का मुस्लिम-बहुल कश्मीर पहुँच जाना और इस खूबसूरत वादी का इसकी चपेट में आ जाना। कौन नहीं जानता कि कश्मीर से पंडितों के पलायन के पीछे पृथकतावादी (जिहादी संगठन) हिजबुल मुजाहिदीन की कुत्सित और भडकाऊ नीति ज़िम्मेदार रही है।
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कहा जाता है कि 4 जनवरी 1990 को इस संगठन ने एक प्रेस नोट जारी किया जिसे कश्मीर के उर्दू समाचारपत्रों ‘आफताब’ और ‘अल सफा’ ने प्रमुखता के साथ छापा। प्रेस नोट में हिंदुओं को कश्मीर छोड़ कर घाटी से चले जाने का आदेश दिया गया था। कश्मीरी पंडितों की चुन-चुन कर खुले आम हत्याएँ की गयीं। कश्मीर दूरदर्शन के निदेशक (मेरे मित्र एवं सहपाठी)लस्सा कौल, राजनीतिक कार्यकर्त्ता टीकालाल टप्लू, नर्स सरला भट्ट, जज नीलकंठ गुर्टू, साहित्यकार सर्वानन्द प्रेमी, केन्द्रीय कर्मचारी (मेरे रिश्तेदार) बालकृष्ण गंजू आदि दर्जनों बेकसूर कश्मीरी पंडितों को मौत के घाट उतारा गया। कश्मीर की प्रमुख मस्जिदों के लाउडस्पीकर जिनसे अब तक केवल अल्लाह-ओ-अकबर की आवाजें आती थीं, अब भारत की ही धरती पर हिंदुओं से चीख-चीख कर कहने लगे कि कश्मीर छोड़ कर चले जाओ और अपनी बहू-बेटियाँ हमारे लिए छोड़ जाओ। कश्मीर में रहना है तो अल्लाह-अकबर कहना है, “असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान” (हमें पाकिस्तान चाहिए. पंडितों के बगैर किन्तु पंडित-महिलाओं समेत।) और तो और जगह-जगह दीवारों पर पोस्टर चिपकाये गये कि सभी लोग कश्मीर में इस्लामी वेश-भूषा पहनें, कश्मीरी पंडित-महिलाएं बिंदी का प्रयोग न करें, सिनेमाघरों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया, कश्मीरी हिंदुओं की दुकानें, मकान और व्यापारिक प्रतिष्ठान चिन्हित कर दिए गए ताकि इन्हें बाद में लूटा जा सके या इनपर कब्जा किया जा सके आदि-आदि। यहाँ तक कि घड़ियों का समय भी भारतीय समय से बदल कर पाकिस्तानी समय के अनुरूप करने का फतवा जारी किया गया। 24 घंटे में कश्मीर छोड़ दो या फिर मरने के लिए तैयार हो जाओ, काफिरों को क़त्ल करो आदि नारे और सन्देश कश्मीर की फिजाओं में गूँजने लगे। इस्लामिक दमन का घिनौना रूप जिसे भारत सदियों तक झेलने के बाद भी मिल-जुल कर रहने के लिए भुला चुका था, एक बार फिर अपना विकराल रूप धारण करने लगा था। प्रशासन ठप्प पड़ा था या मूक दर्शक बनकर अपनी लाचारी का मातम मना रहा था। हुकुमरान सुरक्षा कवच में थे या फिर घाटी छोड़ कर भाग खड़े हुए थे। चारों तरफ अराजकता और बद-अमनी का माहौल व्याप्त था।
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आज कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडित बिलकुल भी नहीं। अगर हैं भी तो वे किसी मजबूरी के मारे वहां पर रह रहे हैं और उनकी संख्या नगण्य है। वादी से खदेड़े जाने के बाद ये लोग शरणार्थी शिविरों (जम्मू और दिल्ली में) या फिर देश के दूसरे स्थानों पर रह रहे हैं। माना जाता है कि 3 लाख के करीब कश्मीरी पंडित जिहादियों के जोर-जब्र की वजह से घाटी से भागने पर विवश हुए। कभी साधन-सम्पन्न रहे ये हिंदू/पंडित आज सामान्य आवश्यकताओं के मोहताज हैं। उन्हें उस दिन का इंतज़ार है जब वे ससम्मान अपने घर वापस जा सकें।
केंद्र और राज्य सरकारें पंडितों को कश्मीर में बसाने और कश्मीर समस्या को सुलझाने के लिए भरसक प्रयत्न कर रही हैं। कोशिश यह की जा रही है कि विभिन्न पक्षों के बीच वार्ता-संवाद से कोई समाधान निकाला जाए। जैसा कि होता है, ऐसे उलझे हुए मामलों में प्राय: सत्तारूढ़ दल अपनी पूर्ववर्ती सरकार पर दोषारोपण करते हुए कहता है कि समस्या हम पर थोपी गई है। समय रहते अगर पूर्ववर्ती सरकारों ने कड़े कदम उठाए होते और जिहादी-अलगाववादी गतिविधियों पर लगाम कसी होती तो आज कश्मीर में हालात इतने बिगड़े हुए न होते। कहने की आवश्यकता नहीं कि कश्मीर में जब-जब सरकार बदलती है, लगभग यही आरोप सरकारें एक-दूसरे पर लगाती आई हैं। सत्ता में रहने या सत्ता हासिल करने के लिए ये आरोप-प्रत्यारोप कश्मीर की राजनीति का हिस्सा बन चुके हैं।
इसी तरह का एक आरोप 1990 में कश्मीर के हुक्मरानों ने गवर्नर जगमोहन पर लगाया था कि कश्मीर से पंडितों के विस्थापन में उनकी विशेष भूमिका रही है। हालांकि इस आक्षेप का न तो कोई प्रमाण था और न कोई दस्तावेज, मगर फिर भी इस आरोप को तब मीडिया ने खूब उछाला था। कहने का तात्पर्य यह है कि राजनीति में रहने के लिए, अपनी राजनीति चमकाने के लिए या फिर जैसे-तैसे खबरों में छाए रहने के लिए आरोप गढ़ना-मढ़ना अब हमारी राजनीति का चलन हो गया है। जिन्होंने जगमोहन की पुस्तक ‘माय फ्रोजेन टरबुलंस इन कश्मीर’ पढ़ी हो, वे बता सकते हैं कि कश्मीरी पंडित वादी से पलायन करने को क्यों मजबूर हुए थे। जगमोहन ने तो सीमित साधनों और विपरीत परिस्थितियों के चलते घाटी में विकराल रूप लेती आतंककारी घटनाओं को खूब रोकना चाहा था, मगर उस समय के स्थानीय प्रशासन और केंद्र की उदासीनता की वजह से स्थिति बिगड़ती चली गई थी। जब आतंकियों द्वारा निर्दोष पंडितों को मौत के घाट उतारने का सिलसिला बढ़ता चला गया तो जान बचाने का एक ही रास्ता रह गया था उनके पास और वह था घरबार छोड़कर भाग जाना।
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लगभग तीस साल हो गए हैं पंडितों को बेघर हुए। इनके बेघर होने पर आज तक न तो कोई जांच-आयोग बैठा, न कोई स्टिंग आपरेशन हुआ और न संसद या संसद के बाहर इनकी त्रासद-स्थिति पर कोई बहसबाजी ही हुई। इसके विपरीत ‘आजादी चाहने’ वाले अलगाववादियों और जिहादियों/जुनूनियों को सत्ता-पक्ष और मानवाधिकार के सरपरस्तों ने हमेशा सहानुभूति की नजर से देखा है। पहले भी यही हो रहा था और आज भी यही हो रहा है। उच्च न्यायलय ने भी पंडितों की उस याचिका पर विचार करने से मना कर दिया जिस में पंडितों पर हुए अत्याचारों की जांच करने के लिए गुहार लगाई गयी थी। काश, अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की तरह कश्मीरी पंडितों का भी अपना कोई वोट-बैंक होता तो आज स्थिति दूसरी होती! तीस सालों के विस्थापन की पीड़ा से आक्रांत/बदहाल यह जाति धीरे-धीरे अपनी पहचान और अस्मिता खो रही है। एक समय वह भी आएगा जब उपनामों को छोड़ इस जाति की कोई पहचान बाकी नहीं रहेगी। दरअसल, किसी भी जाति के अस्तित्व के लिए तीन शर्तों का होना परमावश्यक है। पहली, उसका भौगोलिक आधार अर्थात उसकी अपनी सीमाएं, क्षेत्र या भूमि। दूसरी, उसकी सांस्कृतिक पहचान और तीसरी, अपनी भाषा और साहित्य। ये तीनों किसी भी ‘जाति’ के मूलभूत तत्त्व होते हैं। अमेरिका या इंग्लैंड में रह कर आप अपनी संस्कृति का गुणगान या संरक्षण तो कर सकते हैं, मगर वहां अपना भौगोलिक आधार तैयार नहीं कर सकते। यह आधार तैयार हो सकता है अपने ही देश में और ‘पनुन कश्मीर’ (अपना कश्मीर) की अवधारणा इस दिशा में उठाया गया सही कदम है। सारे विस्थापित/गैर-विस्थापित कश्मीरी पंडित जब एक ही जगह रहने लगेंगे तो भाषा की समस्या तो सुलझेगी ही, सदियों से चली आ रही कश्मीर की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा की भी रक्षा होगी। लगता तो यह एक दूर का सपना है, मगर क्या मालूम यह सपना कभी सच भी हो जाए।
यहाँ पर इस बात को रेकांकित करना लाजिमी है कि जब तक कश्मीरी पंडितों की व्यथा-कथा को राष्ट्रीय स्तर पर उजागर नहीं किया जाता तब तक इस धर्म-परायण और राष्टभक्त कौम की फरियाद को व्यापक समर्थन प्राप्त नहीं हो सकता। इस के लिए परमावश्यक है कि सरकार इस समुदाय के किसी जुझारू, कर्मनिष्ठ और सेवाभावी नेता को राज्यसभा में मनोनीत करे ताकि पंडितों के दुःख दर्द को देश तक पहुँचाने का उचित और प्रभावी माध्यम इस समुदाय को मिले। अन्य मंचों की तुलना में देश के सर्वोच्च मंच से उठाई गयी समस्याओं की तरफ जनता और सरकार का ध्यान तुरंत जाता है।
- डा. शिबन कृष्ण रैणा
गुणवत्ता में सबसे श्रेष्ठ है कश्मीरी केसर, अब पूरी दुनिया में बिखरेगी महक
- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
- जनवरी 16, 2021 12:52
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केसर की खेती बड़ी मेहनत का काम है। कश्मीरी केसर को कश्मीरी मोगरा के नाम से जाना जाता है और सामान्यतः 80 फीसदी फसल अक्टूबर-नवंबर में तैयार हो जाती है। केसर के नीले-बैंगनी रंग के कीपनुमा फूल आते हैं और इनमें दो से तीन नारंगी रंग के तंतु होते हैं।
आतंकवादी गतिविधियों और अशांति का प्रतीक बनी कश्मीर की वादियों की केसर की महक अब देश-दुनिया के देशों में महकेगी। पिछले दिनों यूएई भारत खाद्य सुरक्षा शिखर सम्मेलन में कश्मीरी केसर को प्रस्तुत किया गया है और यूएई में जिस तरह से कश्मीरी केसर को रेस्पांस मिला है उससे आने वाले दिनों में पश्चिम एशिया सहित दुनिया के देशों में कश्मीरी केसर की अच्छी मांग देखने को मिलेगी। कश्मीरी केसर का दो हजार साल का लंबा इतिहास है और इसे जाफरान के नाम से भी जाना जाता है और खास बात यह है कि केसर को दूध में मिलाकर पीने के साथ ही दूध से बनी मिठाइयों में उपयोग और औषधीय गुण होने के कारण इसकी बहुत अधिक मांग है। जानकारों का कहना है कि केसर में 150 से भी अधिक औषधीय तत्व पाए जाते हैं जो कैंसर, आर्थराइट्स, अनिद्रा, सिरदर्द, पेट के रोग, प्रोस्टेट, कामशक्ति बढ़ाने जैसे अनेक रोगों में दवा के रूप में उपयोग किया जाता है। प्रेगनेंट महिलाओं को गोरा बच्चा हो इसके लिए केसर का दूध पीने की सलाह भी परंपरागत रूप से दी जाती रही है। यों भी कहा जा सकता है कि मसालों की दुनिया में केसर सबसे महंगे मसाले के रूप में भी उपयोग होता है।
कश्मीर में केसर की खेती को पटरी पर लाने के प्रयासों में तेजी लाई गई है। पिछली जुलाई में ही कश्मीर की केसर को जीआई टैग यानी भौगोलिक पहचान की मान्यता मिल गई है। दरअसल आतंकवादी गतिविधियों के चलते कश्मीर के केसर उत्पादक किसानों को भी काफी नुकसान उठाना पड़ा है। कश्मीर के केसर की दुनिया में अलग ही पहचान रही है। पर आंतकवाद के कारण केसर के बाग उजड़ने लगे तो दुनिया के देशों में कश्मीर के नाम पर अमेरिकन व अन्य देशों की केसर बिकने लगी। कश्मीर की केसर को सबसे अच्छी और गुणवत्ता वाली माना जाता है। हालांकि ईरान दुनिया का सबसे अधिक केसर उत्पादक देश है। वहीं स्पेन, स्वीडन, इटली, फ्रांस व ग्रीस में भी केसर की खेती होती है। पर जो कश्मीर के केसर की बात है वह अन्य देशों की केसर में नहीं है। केसर को जाफरान भी कहते हैं और खास बात यह है कि केसर का पौधा अत्यधिक सर्दी और यहां तक की बर्फबारी को भी सहन कर लेता है। यही कारण है कि कश्मीर में केसर की खेती परंपरागत रूप से होती रही है। पर आतंकवादी गतिविधियों और अशांति के कारण केसर की खेती भी प्रभावित हुई और केसर के खेत बर्बादी की राह पर चल पड़े।
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यह तो सरकार ने जहां एक और कश्मीर में शांति बहाली के प्रयास तेज किए उसके साथ ही कश्मीर की केसर की खेती सहित परंपरागत खेती और उद्योगों को बढ़ावा देने के समग्र प्रयास शुरू किए। सरकार ने केसर के खेती को प्रोत्साहित करने और कश्मीर में 3715 हैक्टेयर क्षेत्र को पुनः खेती योग्य बनाने के लिए 411 करोड़ रु. की परियोजना स्वीकृत की जिसमें से अब तक 2500 हैक्टेयर क्षेत्र का कायाकल्प किया जा चुका है। माना जा रहा है कि इस साल कश्मीर में केसर की बंपर पैदावार हुई है। दरअसल कश्मीर की केसर के नाम पर अमेरिकन केसर बेची जाती रही है। कश्मीर में पुलवामा, पांपोई, बड़गांव, श्रीनगर आदि में केसर की खेती होती है। एक मोटे अनुमान के अनुसार 300 टन पैदावार की संभावना है तो कश्मीर की केसर बाजार में एक लाख साठ हजार से लेकर तीन हजार रुपए प्रतिकिलो तक के भाव मिलने से किसानों को इसकी खेती में बड़ा लाभ है।
हालांकि केसर की खेती बड़ी मेहनत का काम है। कश्मीरी केसर को कश्मीरी मोगरा के नाम से जाना जाता है और सामान्यतः 80 फीसदी फसल अक्टूबर-नवंबर में तैयार हो जाती है। केसर के नीले-बैंगनी रंग के कीपनुमा फूल आते हैं और इनमें दो से तीन नारंगी रंग के तंतु होते हैं। मेहनत को इसी से समझा जा सकता है कि एक मोटे अनुमान के अनुसार करीब 75 हजार फूलों से 400 ग्राम केसर निकलती है। इसे छाया में सुखाया जाता है। सरकार ने हालिया दिनों में इसकी ग्रेडिंग, पैकेजिंग आदि की सुविधाओं के लिए पंपोर में अंतरराष्ट्रीय स्तर का पार्क विकसित किया है। इस पार्क में केसर को सुखाने और पैकिंग के साथ ही मार्केटिंग की सुविधा भी है जिससे केसर उत्पादक किसानों को सीधा लाभ मिलने लगा है।
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आतंक का पर्याय बने कश्मीर के लिए इसे शुभ संकेत ही माना जाएगा कि कश्मीर पटरी पर आने लगा है और कश्मीरी केसर को जीआई टैग मिलने से विशिष्ट पहचान मिल गई है। केसर के खेतों के कायाकल्प करने के कार्यक्रम को तेजी से क्रियान्वित किया जाता है और पंपोर के केसर पार्क को सही ढंग से संचालित किया जाता है तो कश्मीर की केसर का ना केवल उत्पादन बढ़ेगा बल्कि केसर उत्पादक किसानों को नई राह मिलेगी, उनकी आय बढ़ेगी और इस क्षेत्र के युवा भी प्रोत्साहित होंगे। पुलवामा जो आतंकवादी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र रहा है वहां के युवा देशविरोधी गतिविधियों से हटकर नई सोच के साथ विकास की धारा से जुड़ेंगे। अब साफ होने लगा है कि इसी तरह से समग्र प्रयास जारी रहे तो आने वाले दिनों में कश्मीर की वादियों की केसर की महक दुनिया के देशों में बिखरेगी और कश्मीर की केसर की मांग बढ़ेगी जिसका सीधा लाभ केसर उत्पादक किसानों को होगा तो कश्मीर की पहचान केसर के नाम पर होगी।
-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
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- योगेश कुमार गोयल
- जनवरी 15, 2021 12:17
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वर्ष 2026 में देश में लोकसभा सीटों के परिसीमन का कार्य होना है, जिसके बाद लोकसभा और राज्यसभा की सीटें बढ़ जाएंगी। परिसीमन का कार्य होने के बाद लोकसभा में सांसदों की संख्या 545 से बढ़कर 700 से ज्यादा हो सकती है। इसी प्रकार राज्यसभा की सीटें भी बढ़ सकती हैं।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट’ को हरी झंडी दिए जाने के बाद नई संसद के निर्माण का रास्ता साफ हो गया है। हालांकि केवल शिलान्यास के लिए अदालत की मंजूरी के बाद 10 दिसम्बर 2020 को संसद की नई इमारत का शिलान्यास कर दिया गया था लेकिन उसके बाद से नए भवन का निर्माण रूका हुआ था। चूंकि तीन मंजिला नई संसद के निर्माण का मामला सर्वोच्च न्यायालय में लंबित था, इसलिए सभी की नजरें अदालत के फैसले पर टिकी थी। दरअसल केन्द्र सरकार के इस सेंट्रल विस्टा ड्रीम प्रोजेक्ट को कई याचिकाकर्ताओं ने यह कहते हुए अदालत में चुनौती दी थी कि बगैर उचित कानून पारित किए सरकार द्वारा इस परियोजना को शुरू किया गया और इसके लिए पर्यावरणीय मंजूरी लेने की प्रक्रिया में भी कई खामियां हैं। याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि संसद और उसके आसपास की ऐतिहासिक इमारतों को इस परियोजना से नुकसान पहुंचने की आशंका है और हजारों करोड़ रुपये की यह योजना केवल सरकारी धन की बर्बादी ही है।
सरकार का याचिकाओं के जवाब में कहना था कि बदलती जरूरतों के हिसाब से मौजूदा संसद भवन और मंत्रालय अपर्याप्त साबित हो रहे हैं और नए सेंट्रल विस्टा का निर्माण करते हुए पर्यावरण के साथ यह भी ध्यान रखा जाएगा कि हेरिटेज इमारतों को कोई नुकसान नहीं पहुंचे। अदालत में सरकार की ओर से तर्क दिया गया था कि फिलहाल सभी मंत्रालय कई अलग-अलग इमारतों में हैं और अधिकारियों को एक मंत्रालय से दूसरे में जाने के लिए वाहनों का इस्तेमाल करना पड़ता है तथा कुछ मंत्रालयों का किराया देने में ही प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये खर्च हो जाते हैं, इसलिए यह कहना सही नहीं है कि सेंट्रल विस्टा के निर्माण में सरकारी धन की बर्बादी हो रही है बल्कि धन की बर्बादी रोकने के लिए यह परियोजना जरूरी है। फिलहाल ये मंत्रालय एक-दूसरे से दूर 47 इमारतों से चल रहे हैं जबकि सेंट्रल विस्टा में एक दूसरे से जुड़ी 10 इमारतों में ही 51 मंत्रालय बनाए जाएंगे और इन्हें नजदीकी मैट्रो स्टेशन से जोड़ने के लिए भूमिगत मार्ग भी बनाया जाएगा।
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अदालत ने प्रोजेक्ट को चुनौती देती याचिकाओं पर 5 नवंबर को फैसला सुरक्षित रखा था, साथ ही कहा था कि अदालत इस दलील को खारिज करती है कि सेंट्रल विस्टा में कोई नया निर्माण नहीं हो सकता। अदालत का कहना था कि विचार इस पहलू पर किया जाएगा कि क्या प्रोजेक्ट के लिए सभी कानूनी जरूरतों का पालन किया गया है। अब 5 जनवरी को देश की सर्वोच्च अदालत के तीन जजों की बेंच के 2-1 के बहुमत के फैसले के साथ ही नए संसद भवन के निर्माण को सुप्रीम कोर्ट की मंजूरी मिल गई है। न्यायमूर्ति खानविलकर और न्यायमूर्ति माहेश्वरी ने बहुमत में फैसला सुनाया जबकि अल्पमत के फैसले में न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने ‘लैंड यूज’ बदलने की प्रक्रिया को कानूनन गलत बताया। अदालत ने अपने फैसले में निर्देश दिया है कि संसद के नए भवन के निर्माण से पहले हेरिटेज कमेटी की मंजूरी ली जाए और निर्माण के दौरान प्रदूषण रोकने के लिए स्मॉग टावर लगाए जाएं।
वर्ष 2026 में देश में लोकसभा सीटों के परिसीमन का कार्य होना है, जिसके बाद लोकसभा और राज्यसभा की सीटें बढ़ जाएंगी। परिसीमन का कार्य होने के बाद लोकसभा में सांसदों की संख्या 545 से बढ़कर 700 से ज्यादा हो सकती है। इसी प्रकार राज्यसभा की सीटें भी बढ़ सकती हैं। मौजूदा लोकसभा में इतने सांसदों के बैठने की व्यवस्था किया जाना असंभव है, ऐसे में समझा जा सकता है कि भविष्य की इन जरूरतों को पूरा करने के लिए नया संसद भवन कितना जरूरी है। संसद की नई इमारत में राज्यसभा का आकार पहले के मुकाबले बढ़ेगा तथा लोकसभा का आकार भी मौजूदा से तीन गुना ज्यादा होगा। नए संसद परिसर में 888 सीट वाली लोकसभा, 384 सीट वाली राज्यसभा और 1224 सीट वाला सेंट्रल हॉल बनाया जाएगा। ऐसे में संसद की संयुक्त बैठक के दौरान सांसदों को अलग से कुर्सी लगाकर बैठाने की जरूरत खत्म हो जाएगी। अभी प्रधानमंत्री और उपराष्ट्रपति के निवास स्थान राष्ट्रपति भवन से दूर हैं लेकिन नए प्रोजेक्ट में इनके नए निवास भी राष्ट्रपति भवन के नजदीक ही बनाए जाएंगे।
सर्वोच्च न्यायालय की हरी झंडी मिलने के बाद अब बहुत जल्द सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के तहत नए संसद परिसर का निर्माण कार्य शुरू हो जाएगा और उम्मीद है कि नया संसद भवन अक्तूबर 2022 तक बनकर तैयार हो जाएगा, जिसके बाद संसद का पुराना भवन प्राचीन धरोहर का हिस्सा बन जाएगा और इसका इस्तेमाल संसदीय आयोजनों के लिए किया जाएगा। संसद की नई इमारत का कार्य करीब 22 माह की अवधि में पूरा होने का अनुमान है और संभावना है कि नवम्बर 2022 से नई संसद में ही लोकसभा तथा राज्यसभा के सत्रों का आयोजन होगा। लोकसभाध्यक्ष ओम बिड़ला के मुताबिक नई इमारत बनाने के लिए परिसर के अंदर ही 8822 वर्ग मीटर खाली जगह उपलब्ध है, ऐसे में नया भवन बनाने के लिए बाहर के किसी भवन को गिराए जाने का कोई प्रस्ताव नहीं है। नया संसद भवन वर्तमान संसद भवन के पास ही बनना प्रस्तावित है, जो पुरानी इमारत से करीब 17 हजार वर्गमीटर ज्यादा बड़ा होगा और इसके निर्माण कार्य पर करीब 971 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है। 64500 वर्गमीटर क्षेत्र में बनने वाले नए संसद भवन में एक बेसमेंट सहित तीन फ्लोर होंगे और इसकी ऊंचाई संसद के मौजूदा भवन के बराबर ही होगी।
मौजूदा संसद भवन में सांसदों की जरूरतों के हिसाब से व्यवस्थाएं नहीं हैं, न ही संसद भवन में उनके कार्यालय हैं। नई संसद में प्रत्येक सांसद को कार्यालय के लिए 40 वर्ग मीटर स्थान उपलब्ध कराया जाएगा और हर ऑफिस सभी आधुनिक डिजिटल तकनीकों से लैस होगा। नई संसद में सांसदों के कार्यालयों को पेपरलेस ऑफिस बनाने के लिए नवीनतम डिजिटल इंटरफेस से लैस किया जाएगा और इन दफ्तरों को अंडरग्राउंड टनल से जोड़ा जाएगा। सदन में प्रत्येक बेंच पर दो सदस्य बैठ सकेंगे और हर सीट डिजिटल प्रणाली तथा टचस्क्रीन से सुसज्जित होगी। नए भवन में कॉन्स्टीट्यूशन हॉल, सांसद लॉज, लाइब्रेरी, कमेटी रूम, भोजनालय और पार्किंग की व्यवस्था होगी और भवन में करीब 1400 सांसदों के बैठने की व्यवस्था की जाएगी।
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अत्याधुनिक तकनीकी सुविधाओं से युक्त नए संसद भवन का निर्माण पूर्ण वैदिक रीति से वास्तु के अनुसार किया जाएगा, जो त्रिकोणीय आकार का होगा। भूकम्परोधी तकनीक से बनाया जाने वाला संसद का नया भवन ऊर्जा कुशल होगा, जिसमें सौर प्रणाली से ऊर्जा की बचत होगी। नई संसद वायु और ध्वनि प्रदूषण से पूरी तरह मुक्त होगी और इसमें रेन हार्वेस्टिंग प्रणाली तथा वाटर रिसाइकलिंग प्रणाली भी होगी। नई संसद में राज्यसभा कक्ष का डिजाइन राष्ट्रीय पुष्प कमल जैसा तथा लोकसभा कक्ष का डिजाइन राष्ट्रीय पक्षी मयूर जैसा होगा। लोकसभा सचिवालय के मुताबिक नया संसद भवन भारत के लोकतंत्र और भारतवासियों के गौरव का प्रतीक होगा, जो न सिर्फ देश के गौरवशाली इतिहास बल्कि इसकी एकता और विविधता का भी परिचय देगा। नए संसद भवन में छह समिति कक्ष होंगे और इस भवन के निर्माण कार्य में दो हजार मजदूर तथा इंजीनियर प्रत्यक्ष तौर पर शामिल होंगे जबकि परोक्ष रूप से नौ हजार से भी ज्यादा लोग जुड़ेंगे। लोकसभाध्यक्ष का कहना है कि संसद का नया भवन केवल ईंट-पत्थर का भवन नहीं होगा बल्कि यह देश के एक सौ तीस करोड़ लोगों की आकांक्षाओं का भवन होगा, जिसके निर्माण में आगामी सौ वर्षों से अधिक की जरूरतों पर ध्यान दिया जा रहा है।
-योगेश कुमार गोयल
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा समसामयिक मामलों के विश्लेषक हैं।)
भारतीय सेना के 73वें स्थापना दिवस पर जानिये दुनिया के सर्वाधिक शक्तिशाली बल की विशेषताएँ
- योगेश कुमार गोयल
- जनवरी 14, 2021 12:11
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केएम करियप्पा दूसरे ऐसे सेना अधिकारी थे, जिन्हें फील्ड मार्शल की उपाधि दी गई थी। उन्हें 28 अप्रैल 1986 को फील्ड मार्शल का रैंक प्रदान किया गया था। फील्ड मार्शल एक पांच सितारा अधिकारी रैंक और भारतीय सेना में सर्वोच्च प्राप्य रैंक है।
प्रतिवर्ष 15 जनवरी को भारतीय सेना दिवस मनाया जाता है और हम इस वर्ष 15 जनवरी को 73वां सेना दिवस मना रहे हैं। सेना दिवस के अवसर पर पूरा देश थलसेना के अदम्य साहस, जांबाज सैनिकों की वीरता, शौर्य और उसकी शहादत को याद करता है। इस विशेष अवसर पर जवानों के दस्ते और अलग-अलग रेजीमेंट की परेड के अलावा झांकियां भी निकाली जाती हैं और उन सभी बहादुर सेनानियों को सलामी दी जाती है, जिन्होंने देश और लोगों की सलामती के लिए अपना जीवन न्यौछावर कर दिया। 15 जनवरी को ही यह दिवस मनाए जाने का विशेष कारण यही है कि आज ही के दिन वर्ष 1949 में लेफ्टिनेंट जनरल केएम करियप्पा भारतीय सेना के पहले कमांडर-इन-चीफ बने थे। उन्होंने 15 जनवरी 1949 को ब्रिटिश जनरल फ्रांसिस बुचर से भारतीय सेना की कमान संभाली थी। जनरल फ्रांसिस बुचर भारत के आखिरी ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ थे।
1899 में कर्नाटक के कुर्ग में जन्मे करियप्पा ने 20 वर्ष की आयु में ब्रिटिश इंडियन आर्मी में नौकरी शुरू की थी और भारत-पाक आजादी के समय उन्हें दोनों देशों की सेनाओं के बंटवारे की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। 1947 में उन्होंने भारत-पाक युद्ध में पश्चिमी सीमा पर भारतीय सेना का नेतृत्व किया था। दूसरे विश्व युद्ध में बर्मा में जापानियों को शिकस्त देने के लिए उन्हें प्रतिष्ठित सम्मान ‘ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश अम्पायर’ दिया गया था। 1953 में वे भारतीय सेना से सेवानिवृत्त हुए और 94 वर्ष की आयु में 1993 में उनका निधन हुआ।
केएम करियप्पा दूसरे ऐसे सेना अधिकारी थे, जिन्हें फील्ड मार्शल की उपाधि दी गई थी। उन्हें 28 अप्रैल 1986 को फील्ड मार्शल का रैंक प्रदान किया गया था। फील्ड मार्शल एक पांच सितारा अधिकारी रैंक और भारतीय सेना में सर्वोच्च प्राप्य रैंक है। भारतीय सेना में यह पद सर्वोच्च होता है, जो किसी सैन्य अधिकारी को सम्मान स्वरूप दिया जाता है। देश के इतिहास में अब तक केवल दो अधिकारियों को ही यह रैंक दिया गया है। सबसे पहले जनवरी 1973 में राष्ट्रपति द्वारा सैम मानेकशां को फील्ड मार्शल पद से सम्मानित किया था। उसके बाद 1986 में केएम करियप्पा को फील्ड मार्शल बनाया गया।
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भारतीय थल सेना का गठन ईस्ट इंडिया कम्पनी की सैन्य टुकड़ी के रूप में कोलकाता में 1776 में हुआ था, जो बाद में ब्रिटिश भारतीय सेना बनी और देश की आजादी के बाद इसे ‘भारतीय थल सेना’ नाम दिया गया। भारतीय सेना की 53 छावनियां और 9 आर्मी बेस हैं और चीन तथा अमेरिका के साथ भारतीय सेना दुनिया की तीन सबसे बड़ी सेनाओं में शामिल है। हमारी सेना संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों में सबसे बड़ी योगदानकर्ताओं में से एक है। यह दुनिया की कुछेक ऐसी सेनाओं में से एक है, जिसने कभी भी अपनी ओर से युद्ध की शुरूआत नहीं की। भारतीय सेना के ध्वज का बैकग्राउंड लाल रंग का है, ऊपर बायीं ओर तिरंगा झंडा, दायीं ओर भारत का राष्ट्रीय चिह्न और तलवार हैं। सेना दिवस के अवसर पर सेना प्रमुख को सलामी दी जाती रही है लेकिन 2020 में पहली बार सेना प्रमुख के स्थान पर सीडीएस जनरल बिपिन रावत को सलामी दी गई थी।
देश की आजादी के बाद भारतीय सेना पांच बड़े युद्ध लड़ चुकी है, जिनमें चार पाकिस्तान के खिलाफ और एक चीन के साथ लड़ा था। देश की आजादी के बाद 1947-48 में हुए भारत-पाक युद्ध को ‘कश्मीर युद्ध’ नाम से भी जाना जाता है, जिसके बाद कश्मीर का भारत में विलय हुआ था। 1962 में चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी द्वारा धोखे से थाग-ला-रिज पर भारतीय सेना पर हमला बोल दिया गया था। उस जमाने में भातीय सेना के पास स्वचालित और आधुनिक हथियार नहीं होते थे, इसलिए चीन को रणनीतिक बढ़त मिली थी। 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद 1971 में भारतीय सेना ने पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी थी। 13 दिनों तक चले उस युद्ध के बाद ही पाकिस्तान के टुकड़े कर बांग्लादेश का जन्म हुआ और पाकिस्तानी जनरल नियाजी के साथ 90 हजार पाक सैनिकों ने जांबाज भारतीय सेना के समक्ष हथियार डाल दिए थे। मई से जुलाई 1999 तक चले कारगिल युद्ध में तो भारतीय सेना ने पाकिस्तान को छठी का दूध याद दिला दिया था।
सेना दिवस के महत्वपूर्ण अवसर पर चीन द्वारा वर्तमान में लगातार पेश की जा रही चुनौतियों के दौर में भारतीय सेना की निरन्तर बढ़ती ताकत का उल्लेख करना बेहद जरूरी है। भारतीय सैन्यबल में करीब 13.25 लाख सक्रिय सैनिक, 11.55 लाख आरक्षित बल तथा 20 लाख अर्धसैनिक बल हैं। भारतीय थलसेना में 4426 टैंक (2410 टी-72, 1650 टी-90, 248 अर्जुन एमके-1, 118 अर्जुन एमके-2), 5067 तोपें, 290 स्वचालित तोपें, 292 रॉकेट तोपें तथा 8600 बख्तरबंद वाहन शमिल हैं। पूरी दुनिया आज भारतीय सेना का लोहा मानती है। रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि भारतीय थलसेना हर परिस्थिति में चीनी सेना से बेहतर और अनुभवी है, जिसके पास युद्ध का बड़ा अनुभव है, जो कि विश्व में शायद ही किसी अन्य देश के पास हो। भले ही चीन के पास भारत से ज्यादा बड़ी सेना और सैन्य साजो-सामान है लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य में दुनिया में किसी के लिए भी इस तथ्य को नजरअंदाज करना संभव नहीं हो सकता कि भारत की सेना को अब धरती पर दुनिया की सबसे खतरनाक सेना माना जाता है और सेना के विभिन्न अंगों के पास ऐसे-ऐसे खतरनाक हथियार हैं, जो चीनी सेना के पास भी नहीं हैं। धरती पर लड़ी जाने वाली लड़ाईयों के लिए भारतीय सेना की गिनती दुनिया की सर्वश्रेष्ठ सेनाओं में होती है और कहा जाता है कि अगर किसी सेना में अंग्रेज अधिकारी, अमेरिकी हथियार और भारतीय सैनिक हों तो उस सेना को युद्ध के मैदान में हराना असंभव होगा।
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जापान के एक आकलन के मुताबिक भारतीय थलसेना चीन के मुकाबले ज्यादा मजबूत है। इस रिपोर्ट के अनुसार हिन्द महासागर के मध्य में होने के कारण भारत की रणनीतिक स्थिति बेहद महत्वपूर्ण है और दक्षिण एशिया में अब भारत का काफी प्रभाव है। अमेरिकी न्यूज वेबसाइट सीएनएन की एक रिपोर्ट में भी दावा किया गया है कि भारत की ताकत पहले के मुकाबले बहुत ज्यादा बढ़ गई है और युद्ध की स्थिति में भारत का पलड़ा भारी रह सकता है। बोस्टन में हार्वर्ड केनेडी स्कूल के बेलफर सेंटर फॉर साइंस एंड इंटरनेशनल अफेयर्स तथा वाशिंगटन के एक अमेरिकी सुरक्षा केन्द्र के अध्ययन में कहा जा चुका है कि भारतीय सेना उच्च ऊंचाई वाले इलाकों में लड़ाई के मामले में माहिर है और चीनी सेना इसके आसपास भी नहीं फटकती।
-योगेश कुमार गोयल
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा सामरिक मामलों के विश्लेषक हैं)
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