दक्षिण की गंगा कावेरी के जल विवाद पर एक नजर

कावेरी नदी जिसे दक्षिण का गंगा कहा जाता है। यह नदी तीनों राज्यों की सेवा में अपना जल प्रवाह देती रही है। इसकी प्रदूषण की बात छोड़ दें तो भी मौजूदा नदी जल विवाद का विषय बन गया है।
आने वाले समय में बहुत सारी लड़ाईयाँ पानी के लिये लड़ी जाएंगी। संसार में 97% जल समुद्र में या पीने योग्य नहीं है, जिसमें 3% पानी पीने योग्य है इसमें 2-6% बर्फ के रूप में जमाव है, अब 0.46-05% पानी पीने योग्य है, भारत की सारी नदियाँ प्रदूषित हो चुकी हैं, जिसमें गंगा, यमुना समेत अनेक नदियों के अस्तित्व को खतरा है। कुछ नदियों का प्रवाह कम हो रहा है तो कुछ नदियां अपनी गहराई खोती जा रही हैं। नदियाँ हमारी जीवनदायनी हैं, इससे फसलों की सिंचाई, पनबिजली, कारखाने चलाने के साथ पीने का पानी भी मिलता है।
कावेरी नदी जिसे दक्षिण का गंगा कहा जाता है। यह नदी तीनों राज्यों की सेवा में अपना जल प्रवाह देती रही है। इसकी प्रदूषण की बात छोड़ दें तो भी मौजूदा नदी जल विवाद का विषय बन गया है। ये विवाद कोई नया नहीं है। पर विवाद गहराने से यह मामला न्यायालय तक पहुंच जाता है। भारतीय संविधान को देखें तो यह नदी एक अन्तर्राज्यीय नदी है। यह मुख्य रूप से कर्नाटक, तमिलनाडु में बहती हुई, थोड़ा हिस्सा केरल तक पड़ता है फिर समुद्र में समाहित होते होते इसका थोड़ा हिस्सा कराईकल जो पुडुचेरी का भाग है, से गुजरती है। इस प्रकार विवाद चारों राज्यों की कहानी है।
पहले विवाद गहरा नहीं था, जन जीवन सामान्य था, जनसंख्या सीमित थी, उद्योग धन्धे कम थे पर विवाद पहली बार ब्रिटिश शासन के दौरान 1924 में शुरू हुआ, यह विवाद मुख्यतः मैसूर एवं मद्रास प्रेसिडेंसी के बीच उभरा, बाद में इस विवाद में केरल एवं पुडुचेरी भी कूद पड़ा फिर भारत सरकार ने 1972 में कमेटी गठित की। फिर 1976 में इन चार राज्यों के साथ समझौता हुआ। संसद में घोषणा के बाद भी इसका पालन होना विफल रहा।
यह नदी दक्षिण भारत की गंगा तो है ही साथ-साथ जीवनदायनी भी है। यह नदी पश्चिमी घाट के ब्रह्मगिरी पर्वत से निकलकर करीब 800 किलोमीटर का सफर तय कर बंगाल की खाड़ी में गिरती है। इसकी कई सहायक नदियाँ हैं जिसमें अमरावती सिमसा भवानी इत्यादि शामिल हैं। यह नदी दो राज्यों की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की नींव है जिसमें कृषि पूर्ण रूप से विकसित है। यह नदी मानसून विफल होने पर प्रवाह की कमी का सामना करती है तब विवाद उत्पन्न हो जाता है। अन्तर्राज्यीय जल विवाद अधिनियम (1956) के तहत इस विवाद को सुलझाने का अनुरोध था। केन्द्र सरकार ने 1990 जून में एक न्यायाधिकरण गठित कर दिया जो विवाद सुलझाने के लिये प्रयासरत है। एक अंतरिम आदेश ने मामला गंभीर किया जिसमें कर्नाटक को तय हिस्सा जल तमिलनाडु को देना था। पर कितना पानी छोड़ना है यह तय नहीं हुआ। कर्नाटक एक रियासत था जबकि तमिलनाडु ब्रिटिश के अधीन था। कृषि कार्य कर्नाटका में बढ़ने से जल खपत बढ़ी। चूंकि नदी पहले कर्नाटक से बहती है, इसलिये उसका अधिकार है। जबकि तमिलनाडु 1924 के अनुसार जल का हिस्सा चाहता है। पिछले साल वर्षा कम होने में तमिलनाडु में जल की कमी हुई, तब तमिलनाडु ने सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाई। जिसमें 40 हजार एकड़ फसल बर्बादी का हवाला दिया तब सर्वोच्च न्यायालय ने तमिलनाडु को 15000 क्यूसेक पानी लगातार 10 दिनों तक कर्नाटक को देने को कहा, हालांकि कर्नाटक ने उत्तर में कम बारिश का हवाला दिया।
1991 में कावेरी जल ट्रिब्यूनल बनाया गया इसके तहत तमिलनाडु को 205 टीएमसी फीट पानी दिया गया। फिर कर्नाटक को 270 टीएमसी फीट, केरल को 30 टीएमसी फीट, पुडुचेरी को 7 टीएमसी फीट जल देने की बात कही गयी। कर्नाटक में 462 टीएमसी फीट जल कावेरी से आता है पर इस्तेमाल 270 टीएमसी फीट करता है। इस प्रकार तमिलनाडु 227 टीएमसी फीट पानी डालता है पर उपयोग 419 टीएमसी फीट करता है। केरल 51 टीएमसी फीट डालता है। उपयोग 30 टीएमसी फीट करता है। यह कर्नाटक के साथ अन्याय के रूप में देखा जा रहा है।
कावेरी विवाद को राजनीति से न जोड़कर धैर्य एवं शांति से समाधान खोजने चाहिए। चूँकि नदी मानसूनी भी है एवं कर्नाटक ज्यादा जल डालता है। तो इस पर विचार करना चाहिए, साथ ही मानवहित व राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर कर्नाटक के लोगों को ध्यान रखकर समाधान खोजना होगा। भारत में जल बंटवारा राज्यों के बीच एक गंभीर समस्या बन सकती है। इसमें राजनीति न होकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना पड़ेगा एवं नदियों और पर्यावरण का बचाव भी जरूरी है नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब कोई न्यायालय भी इसका समाधान नहीं ढूंढ पायेगा।
- श्रीकांत दुबे
अन्य न्यूज़












