आखिर ईवीएम को लेकर क्यों नहीं थम रहा है विवाद?

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संतोष पाठक । May 9 2019 5:40PM

पिछले महीने ही ईवीएम और वीवीपैट की पर्ची के मिलान को लेकर सुप्रीम कोर्ट चुनाव आयोग को बड़ा आदेश दे चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने लोकसभा संसदीय क्षेत्र की हर विधानसभा में कम से कम 5 बूथ के ईवीएम और वीवीपैट की पर्चियों का औचक मिलान करने को कहा था, जिसे चुनाव आयोग ने मान भी लिया था।

लोकसभा चुनाव अपने अंतिम दौर में पहुंच चुका है लेकिन ईवीएम को लेकर जारी विवाद है कि थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। मंगलवार को एक बार फिर से मामला देश की सर्वोच्च अदालत में सुनवाई के लिए आया। गुहार लगाने वालों में देश के 21 विरोधी दलों के नेता थे। इनकी मांग थी कि सर्वोच्च अदालत चुनाव आयोग को आदेश दे कि 50 फीसदी वीवीपैट पर्चियों का मिलान ईवीएम के साथ किया जाए। सुनवाई के दौरान चन्द्रबाबू नायडू, फारूक अब्दुल्ला, डी.राजा जैसे दिग्गज नेता अदालत में मौजूद थे। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई ने बोलना शुरू किया कि अदालत इस मामले को बार-बार क्यों सुने, साथ ही उन्होने यह भी कह दिया कि वह इस मामले में दखलअंदाजी नहीं करना चाहते हैं। इसे देश की 21 विपक्षी पार्टियों के लिए झटका माना गया। फैसला सर्वोच्च अदालत का था इसलिए सम्मान करने की बात सबने कही लेकिन कुछ इशारों में तो कुछ खुलकर यह बोलते नजर आए कि वो अदालत के फैसले से संतुष्ट नहीं है और ईवीएम को लेकर अपनी लड़ाई जारी ऱखेंगे। 

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पहले भी आदेश दे चुका है सुप्रीम कोर्ट 

पिछले महीने ही ईवीएम और वीवीपैट की पर्ची के मिलान को लेकर सुप्रीम कोर्ट चुनाव आयोग को बड़ा आदेश दे चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने लोकसभा संसदीय क्षेत्र की हर विधानसभा में कम से कम 5 बूथ के ईवीएम और वीवीपैट की पर्चियों का औचक मिलान करने को कहा था, जिसे चुनाव आयोग ने मान भी लिया था। जबकि पहले इसकी संख्या सिर्फ एक हुआ करती थी यानी सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार इसमें 5 गुणा बढ़ोतरी हो गई है। लेकिन इसके बावजूद विपक्षी दल संतुष्ट नहीं है। 

ईवीएम पर बीजेपी-कांग्रेस समेत सारे ही दल उठा चुके हैं सवाल 

2009 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद बीजेपी की तरफ से उस समय के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लाल कृष्ण आडवाणी भी ईवीएम पर सवाल खड़े कर चुके हैं। वर्तमान में बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता और राज्यसभा सांसद जीवीएल नरसिम्हा राव ने तो उस समय इस पर एक किताब तक लिख दी थी। बाद में राजनीतिक हालात बदले, 2014 में 30 साल बाद पूर्ण बहुमत वाली सरकार केन्द्र में बनी। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद बीजेपी का विजय रथ एक के बाद एक राज्य को फतह करता गया और इसी के साथ ईवीएम को लेकर विरोधी दलों के नेताओं की तल्खी भी बढ़ती चली गई। ऐसे में सवाल यह खड़ा हो रहा है कि अब क्या करे? लेकिन इस क्या करे का जवाब तलाशने से पहले आपको यह बताते है कि आखिर देश में ईवीएम आया कैसे?  

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ईवीएम से पहली बार 1982 में केरल में हुआ चुनाव 

भारत में पहली बार ईवीएम का इस्तेमाल 1982 में केरल के परूर विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र के 50 मतदान केन्द्रों पर किया गया। बाद के वर्षों में इसका प्रयोग इसलिए नहीं हो पाया क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव में वोटिंग मशीनों के इस्तेमाल को वैधानिक रुप दिए जाने का आदेश दे दिया। सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार दिसम्बर 1988 में संसद ने कानून में संशोधन करके जनप्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 में नई धारा– 61 ए को जोड़ दिया जिसकी वजह से चुनाव आयोग को वोटिंग मशीनों के इस्तेमाल को लेकर फैसला करने का अधिकार मिल गया। 1990 में केन्द्र सरकार ने मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के प्रतिनिधियों को लेकर चुनाव सुधार समिति का गठन किया जिसे ईवीएम के इस्तेमाल संबंधी विषय पर विचार करने को कहा गया। भारत सरकार ने उस समय एक विशेषज्ञ समिति का गठन भी किया। इसमें प्रो.एस.सम्पत तत्कालीन अध्यक्ष आर.ए.सी, रक्षा अनुसंधान तथा विकास संगठन, प्रो.पी.वी. इनदिरेशन ( आईआईटी दिल्ली ) और डॉ.सी. राव कसरवाड़ा, निदेशक- इलेक्ट्रोनिक्स अनुसंधान तथा विकास केन्द्र, तिरूअनंतपुरम शामिल किए गए। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि ये मशीनें छेड़छाड़ मुक्त हैं यानी चुनाव में इनका इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके बाद 1992 में संशोधन को लागू करने को लेकर अधिसूचना जारी की गई। इसके बाद भी चुनाव आयोग ने फिर से वोटिंग मशीनों का मूल्यांकन करने के लिए प्रो.पी.वी. इनदिरेशन, आईआईटी दिल्ली के प्रो.डी.टी. साहनी तथा प्रो. ए.के. अग्रवाल वाली एक विशेषज्ञ समिति का गठन कर दिया। 2010 में आयोग ने तकनीकी विशेषज्ञ समिति का दायरा बढ़ाकर इसमें दो और विशेषज्ञों-आईआईटी मुम्बई के इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग विभाग के प्रो. डी.के. शर्मा और आईआईटी कानपुर के कम्प्यूटर साइंस तथा इंजीनियरिंग विभाग के प्रो. रजत मूना को शामिल कर लिया। 

देश में आम चुनाव और राज्यों के विधानसभा चुनाव में ईवीएम का इस्तेमाल आंशिक रूप से 1999 में शुरू हुआ और 2004 से देश में सारे चुनाव ईवीएम से ही करवाए जा रहे हैं।  

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अब क्या करे ? 

1982 से लेकर 2019 तक देश में लगभग सभी पार्टियां अलग-अलग समय शासन कर चुकी है, सरकार चला चुकी है। ये राजनीतिक दल लोकसभा के साथ-साथ राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव में भी कई बार जीते हैं तो कई बार हारे भी है। ऐसे में ईवीएम को लेकर सिर्फ सत्ताधारी पार्टी और चुनाव आयोग को कठघरे में खड़ा करना कहां तक जायज है, देश के तमाम विरोधी दलों को तो यह सोचना ही चाहिए। सवाल तो यह भी है कि अगर वीवीपैट की 50 फीसदी पर्चियों का मिलान ईवीएम से करना ही पड़े, जैसी मांग विरोधी दल कर रहे हैं तो फिर बैलेट और इसमें फर्क क्या रह जाएगा? क्या देश फिर से बैलेट पेपर के दौर में लौटने को तैयार है ? सवाल तो यह भी है कि चुनावी हार जीत की वजह से अगर राजनीतिक दल बार-बार चुनावी प्रक्रिया को ही बदलने या प्रभावित करने की मांग करेंगे तो फिर चुनाव आयोग की भूमिका क्या रह जाएगी ? यहां यह भी ध्यान रखना होगा कि जब भी चुनाव आयोग चुनाव सुधार को लेकर नियमों को पारदर्शी या सख्त बनाने की कोशिश करता है तो लगभग सभी राजनीतिक दल इसका विरोध करते नजर आते हैं ऐसे में चुनाव कैसे हो यह तय करने का अधिकार क्या राजनीतिक दलों को दिया जा सकता है? हालांकि यह देखना भी चुनाव आयोग का दायित्व है कि अगर उसकी निष्पक्षता को लेकर सवाल उठ रहे हो और बार-बार उठ रहे हो तो उसे अपनी निष्पक्षता के ठोस प्रमाण के साथ आगे आकर इन राजनीतिक दलों को कठोर चेतावनी देनी चाहिए। यहां यह भी ध्यान रखना चाहिए कि भारतीय संविधान में ही चुनाव आयुक्तों को हटाने की प्रक्रिया का वर्णन भी किया गया है और विरोधी दलों को लगता है कि जानबूझकर पक्षपात किया जा रहा है तो उनके सामने यह विकल्प भी खुला हुआ है लेकिन ईवीएम विरोध को सिर्फ चुनावी राग बना देना कतई भारतीय लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं माना जा सकता है। 

- संतोष पाठक

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