आखिर अमेरिकी 'टेररिस्ट इकॉनमी' और इंडियन 'डेड इकॉनमी' जैसे आरोपों के अंतरराष्ट्रीय मायने क्या हैं? बारीकीपूर्वक समझिए

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कमलेश पांडे । Aug 1 2025 2:18PM

जहां तक भारत-अमेरिका सम्बन्धों की बात है तो यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत-अमेरिका सम्बन्ध एक अस्वाभाविक दोस्ती है, जिसमें छल-प्रपंच की बू आती है। जबकि भारत-रूस सम्बन्ध एक स्वाभाविक मित्रता है, जो वक्त की कसौटी पर शत-प्रतिशत खरा उतरा है।

जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दुनिया की चौथी सबसे बड़ी और तेजी से मजबूत होती जा रही 'समाजवादी अर्थव्यवस्था' यानी भारतीय अर्थव्यवस्था को डेड इकॉनमी करार दिया है, तो एक भारतीय होने के नाते उनसे मेरा सीधा सवाल है कि आखिर उनकी अमेरिकी अर्थव्यवस्था क्या है- 'कैपिटलिस्ट इकॉनमी' या 'टेररिस्ट इकॉनमी!' मुझे पता है कि वो मेरे इस सवाल का जवाब नहीं देंगे, इसलिए आज उनकी डॉलर डिप्लोमेसी, मिलिट्री डिप्लोमेसी और घृणित कूटनीति को आईना दिखलाना अपना राष्ट्रघर्म/बुद्धिजीवी धर्म समझता हूं। वहीं, अमेरिका को यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि रूस के साथ भारत गर्त में नहीं, बल्कि उंस शिखर पर जाएगा जहां आज अमेरिका काबिज है! 

सच कहूं तो सात समुंदर पार बसा अमेरिका यदि अपनी फूट डालो और राज करो वाली क्षुद्र नीतियों और अभद्र स्वभाव/व्यवहार के बल पर एशिया-यूरोप के देशों पर शासन करना चाहता है तो अब उसके दिन लद गए हैं। उसे ब्रिटिश भूलों से सबक सीखने की दरकार है, क्योंकि 'कूचरा की पारी अंतिम बारी' वाली भारतीय कहावत अब उस पर चरितार्थ होती दिखाई दे रही है। आज वह रूस, चीन, भारत, ईरान आदि सबकी आंखों पर चढ़ चुका है और उसका बचा-खुचा भ्रम बहुत जल्दी टूटने वाला है, जिसकी बौखलाहट उसके कदम दर कदम में दिखाई दे रही है। भारत के प्रति उसका जो विद्वेष भरा रवैया है, शायद वही उसकी ताबूत की अंतिम कील बन जाए। वह पाकिस्तान को भड़काकर भारत को कमजोर नहीं कर सकता, बल्कि भारत यदि अपने पर आ गया तो एशिया-यूरोप से उसके पांव उखड़ते देर नहीं लगेंगे। क्योंकि रूस-चीन-उत्तरकोरिया-ईरान-इराक़-सीरिया आदि उससे पहले से ही खार खाए बैठे हैं।

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जहां तक भारत-अमेरिका सम्बन्धों की बात है तो यह कहना गलत नहीं होगा कि भारत-अमेरिका सम्बन्ध एक अस्वाभाविक दोस्ती है, जिसमें छल-प्रपंच की बू आती है। जबकि भारत-रूस सम्बन्ध एक स्वाभाविक मित्रता है, जो वक्त की कसौटी पर शत-प्रतिशत खरा उतरा है। कभी अमेरिका और सोवियत संघ, और अब अमेरिका व चीन, अमेरिका एवं रूस के पारस्परिक वैश्विक महत्वाकांक्षा भरे रिश्तों में गुटनिरपेक्ष देश भारत की अहमियत प्रारंभ से यही रही है कि उसका झुकाव जिधर होगा, उसका पलड़ा सदैव भारी होगा। लेकिन जहां रूस ने भारतीय गुटनिरपेक्षता को बेझिझक स्वीकार किया, वहीं अमेरिका द्वारा भारत को अपने पाले में खींचने और फिर स्वभाववश दगाबाजी करने की जो हड़बड़ाहट दिखाई जा रही है, इस आशय की डील अविलंब करने का जो वैश्विक दबाव बनाया जा रहा है और इसी प्रक्रिया में अमेरिकी वयोवृद्ध राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंफ द्वारा जो घिनौनी बयानबाजी की जा रही है, उससे भारत का बाल भी बांका होने वाला नहीं है।

यदि अमेरिका-चीन को भ्रम है कि वे पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका, मालदीव, नेपाल, म्यांमार आदि को उकसा कर भारत की तरक्की की राह में रोड़े अटकायेंगे, भारतीय उपमहाद्वीप में अशांति फैलाकर हथियारों की बिक्री बढ़ाएंगे तो यह उनका दिवास्वप्न है। 'अमेरिकी आतंकवाद' और 'चीनी नक्सलवाद' से या इस्लामिक चरमपंथ से जितनी क्षति पहुंचाई जा सकती थी, वह पहुंचाई जा चुकी है। लेकिन अब पीएम नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह द्वारा जो चुन चुन कर हिसाब लिए जा रहे हैं, उससे अमेरिका-चीन की बौखलाहट भी समझने लायक है। जबकि पाकिस्तान प्रेमी अरब-एशियाई देशों द्वारा भारत के इस्लामीकरण की कोशिशें भी दम तोड़ चुकी हैं। ऐसे में जब भारत ऑपरेशन सिंदूर की तरह अगला पलटवार करेगा तो अमेरिका-चीन को भारतीय उपमहाद्वीप में मुंह छिपाने की जगह भी नहीं मिलेगी।

अमेरिका को यह समझना होगा कि भारत, ग्रेट ब्रिटेन नहीं है जिससे मित्रता कर अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर पीछे धकेल दिया जाए। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अमेरिका ने ग्रेट ब्रिटेन के साथ यही तो किया। जहां इंग्लैंड की अंतरराष्ट्रीय दुनियादारी में तूती बोलती थी, वहीं द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका की बोलने लगी। द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिका- सोवियत संघ (रूस व उसके 14 पड़ोसी देश) साथ थे। लेकिन विश्वयुद्ध खत्म होते ही अमेरिका ने यूरोप को दो फाड़ कर दिया और इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, इटली जैसे बड़े देशों को उसके खिलाफ कर दिया। फिर लंबे चले अमेरिका-सोवियत संघ शीत युद्ध के दौरान 1989 आते आते सोवियत संघ को भी छिन्न-भिन्न करवा दिया। हालांकि, तीन दशक बाद जब रूस ने अपने खोए हुए गौरव को प्राप्त कर लिया, तब उसे अमेरिका-यूरोप के नाटो देशों ने यूक्रेन में उलझा दिया, जिससे साढ़े तीन वर्षों से भीषण युद्ध जारी है।

वहीं, अपनी वैश्विक बादशाहत बनाए रखने के लिए अमेरिका ने एशिया महादेश में भी कई बड़े गेम खेले। उसने एशियाई अरब देशों के खिलाफ इजरायल को भड़काया और उसे अपना पूर्ण सहयोग दिया। भारत के खिलाफ पाकिस्तान को भरपूर समर्थन दिया। चीन-भारत के बीच तिब्बत मुद्दे को हवा दी। अफगानिस्तान में रूस का अवरोधक बनने के लिए तालिबान पैदा किया। कश्मीर हासिल करने के लिए आतंकवाद पैदा किया। इससे अमेरिकी हथियार व ड्रग्स कारोबार में भारी मुनाफा हुआ। लेकिन रूस के खिलाफ जिस चीन को अमेरिका ने प्रश्रय दिया, अब वही उसके लिए भष्मासुर बन चुका है। अमेरिकी शह पर मुस्लिम देश भी दो फाड़ हो चुके हैं। 

यही वजह है कि अमेरिका विगत 25 वर्षों तक भारत को अपने पाले में खींचने के लिए ढेर सारे वैश्विक प्रयास किए। स्वभाव से विनम्र प्रधानमंत्री अटलबिहारी बाजपेयी और पीएम डॉ मनमोहन सिंह तो अमेरिकी चक्रब्युह में फंस गए, लेकिन स्वभाव से तेज तर्रार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐसी वैश्विक चालें चलीं कि अमेरिकी चतुराई की सारी हवा निकल गई। उन्होंने उसकी कैपिटलिस्ट अर्थव्यवस्था, जिसे टेररिस्ट अर्थव्यवस्था भी समझा जाता है, की ऐसी बखिया उधेड़ी कि आज वह बाप-बाप चिल्ला रहा है। जी-7 के ऊपर ब्रिक्स को इतना कद्दावर बनवा दिया कि अमेरिका के पसीने छूट रहे हैं। उसे टेररिस्ट अर्थव्यवस्था इसलिए कहा जाता है कि पाकिस्तान के सहारे दुनिया भर में आतंकवादी पैदा करने, उन्हें वित्तीय मदद देने और फिर उपजी अशांति का लाभ उठाकर अपनी कम्पनियों के हथियार खपाने व ड्रग्स के कारोबार को बढ़ाने का जो खुला खेल फरुखाबादी चलता रहा है, उसका मास्टरमाइंड देश अमेरिका ही है। उसी की छाप उसके अनुगामी चीन पर पड़ी है, जिससे वह ज्यादा परेशान है।

वहीं, पीएम मोदी इस बात को नहीं भूले हैं कि यह वही अमेरिका है जिसने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए उन्हें अपना वीजा नहीं दिया था और उनके प्रधानमंत्री बनते ही उनकी आवभगत करने लगा। यही वजह है कि पीएम मोदी ने अमेरिका, रूस और चीन जैसे बड़े देशों से सिर्फ उतना ही संपर्क रखा, जितने में कि भारतीय हित सधता रहे। इसलिए उन्होंने "गिव एंड टेक डिप्लोमेसी" को तवज्जो दी। "बिटविन द लाइन्स" पर हमेशा अडिग रहे। इससे भारत ने आशातीत तरक्की की और आत्मनिर्भर हो गया। यही बात अमेरिका, रूस, चीन, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी, जापान आदि देशों को अखड़ने लगी। 

हालांकि रूस-चीन का नेतृत्व तो शांत रहा, लेकिन अमेरिकी नेतृत्व अपनी खींझ छुपा नहीं पाया। अपने पहले कार्यकाल में भारत के साथ दोस्ताना ताल्लुकात रखने वाले डॉनल्ड ट्रंफ ने अपने दूसरे कार्यकाल में दुश्मनी की भाषा समझाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़े। ऐसा इसलिए कि आज अमेरिकी रुपया डॉलर और अमेरिकी सेना दोनों का भविष्य खतरे में है। जब रूस-चीनी गठजोड़ उनपर भारी पड़ने लगा तो उन्होंने न केवल अफगानिस्तान से अपनी सेना वापस बुला ली, बल्कि युद्ध नहीं करने की भी दलीलें देने लगे। इससे साफ है कि दुनिया के विभिन्न देशों में जाकर युद्ध करते रहने का आदी बन चुका अमेरिका अब मजबूत पलटवार देखकर आर्थिक व सैन्य पैमाने पर थक चुका है। नाटो में भी मतभेद हो चुके हैं। इसलिए वह हर हाल में भारत को पटाने में जुटा हुआ है। हालांकि, उसकी भाषा दोस्ती वाली नहीं, बल्कि दुश्मनों वाली हो चुकी है, ताकि चीन-पाकिस्तान जैसे उसके पुराने सहयोगी उसके पाले में लौट जाएं और भारत को जबरिया युद्ध में उलझाएं।

सवाल है कि हाल ही में जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा कि भारत और रूस मिलकर अपनी डेड इकॉनमी को गर्त में ले जा सकते हैं, तो इसके बाद अब बचा क्या है? भले ही उन्होंने भारत पर 25% टैरिफ लगाने और रूस के साथ ट्रेड के लिए जुर्माने थोपने की घोषणा करने के बाद यह ताजा बयान दिया, जिसमें उनकी खींझ स्पष्ट दिखाई देती है। बकौल ट्रंफ, मुझे परवाह नहीं है कि 'भारत, रूस के साथ क्या करता है। हमने भारत के साथ बहुत कम ट्रेड किया है। उनके टैरिफ बहुत अधिक है।" तो फिर सवाल वही कि आखिर इसके लिए प्रयासरत क्यों हैं? अपनी असफलता पर बौखलाहट क्यों दिखा रहे हैं? क्या यह आपके पद और कद को शोभा देता है? शायद नहीं!

तभी तो भारत ने करारा जवाब देते हुए कहा कि अमेरिका अपनी चिंता करे, क्योंकि हम तो अगले कुछ ही साल में ही दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएंगे। उसके बाद अमेरिका-चीन से सीधा होड़ करेंगे, यह बात उसने कही नहीं, बल्कि समझी जा सकती है। वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि हम दुनिया की पांच बड़ी अर्थव्यस्था में से एक हैं। गुरुवार को संसद में केंद्रीय कॉमर्स मिनिस्टर पीयूष गोयल ने कहा कि राष्ट्रीय हितों को सुरक्षित करने के लिए सभी जरूरी कदम उठाएंगे। उन्होंने जोर दिया कि एक दशक से भी कम समय में भारत पांच कमजोर अर्थव्यवस्थाओं से निकलकर दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बन गया है। भारत अपने सुधारों, किसानों, एमएसएमई और उद्यमियों की मेहनत से शीर्ष पांच अर्थव्यवस्थाओं में से एक बना है। अब हम तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर हैं।

जहां तक डेड इकॉनमी की बात है तो अमेरिकी राष्ट्रपति यहां भी हवाबाजी कर गए। विशेषज्ञों का मानना है कि भारत की अर्थव्यवस्था पर खींझ भरी टिप्पणी करके हवाबाज़ी कर गए ट्रंफ़, क्योंकि इंडिया डेड इकॉनमी नहीं है। इंडिया को लेकर अबतक हुईं अंतरराष्ट्रीय रेटिंग्स में भी भारत के तेज ग्रोथ की बात कहीं गई है। ऐसे में सवाल उठता है कि अब भले ही ट्रंफ यह बताना चाहते हैं कि रूस और भारत का कोई फ्यूचर नहीं है। लेकिन जहां तक भारत की बात है तो वर्ल्ड बैंक सहित हर वैश्विक संस्थाएं मान रही हैं कि भारत इस समय दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था है। इसकी ग्रोथ रेट 6.5% के आसपास है। इसलिए भारत को डेड़ इकॉनमी कहना सही नहीं है, बल्कि यह पूर्वाग्रह प्रेरित बातें हैं। 

शायद ऐसा करके ट्रंप हवाबाजी कर गए। क्योंकि आईएमएफ कह रहा है कि भारत की जीडीपी ग्रोथ 6.4% है। यह दुनिया में सबसे ज्यादा है। हमारे यहां इफ्लेशन अमेरिका से कम है। कर्ज के मामले में भी भारत की स्थिति अमेरिका से कही बेहतर है। उन्हें यह भी पता होना चाहिए भारत में इंफ्लेशन अमेरिका से कम है। भारत की जीडीपी  ग्रोथ रेट दुनिया में सबसे ज्यादा है। कर्ज में अमेरिका से भारत बेहतर हाल में है। बैंकरप्सी का रिस्क अमेरिका में है, भारत में नहीं। अमेरिका में डॉलर के अवमूल्यन का चांस ज्यादा है। इससे अमेरिका बौखलाहट भरी बातें कर रहा है। उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि इंडियन इकॉनमी निर्यात आधारित नहीं है। जीडीपी के लेवल पर अमेरिका को निर्यात 2% के करीब है। इसमें कुछ कमी भी हो तो जीडीपी पर मामूली असर होगा। इसलिए ट्रंप की प्रेशर पॉलिटिक्स को व्यापार पर बातचीत में ठीक से हैंडल करना होगा। यह बात भारतीय नेतृत्व को पता है।

अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पाक से डील की बात की और भारत को 'डेड इकॉनमी' बता दिया। सवाल है कि इससे स्ट्रैटेजिक तौर पर अमेरिका-पाकिस्तान संबंध कुछ मजबूत भले हो जाए, लेकिन इंडियन इकॉनमी के लिए यह दिक्कत की बात नहीं है। हां, इससे चीन-पाकिस्तान के रिश्तों की तल्खी बढ़ सकती है। क्योंकि ट्रंफ पाकिस्तान में बड़े ऑयल रिजर्व डिवेलप करने की बात कर रहे हैं। शायद बलूचिस्तान में। यहां पहले से ही अशांति है। यह काम भी आसान नहीं होगा। असल बात पाकिस्तान में चीन को रिप्लेस करने की यह अमेरिकी कोशिश है।' यह ठीक है कि भारत के ब्रिक्स सदस्य होने को लेकर अमेरिका ने उसे अपना विरोधी बताया है। इसलिए भारत और अमेरिका के व्यापारिक रिश्तों में तनाव आ सकता है, खासकर तब जब अमेरिका खुलकर पाकिस्तान में निवेश कर रहा है। 

सवाल है कि इसके पीछे अमेरिका की रणनीति क्या है? तो जवाब यही होगा कि यह डील ऐसे वक्त पर हुई है जब अमेरिका, चीन और रूस के प्रभाव को एशिया में संतुलित करना चाहता है। इसलिए पाकिस्तान के साथ रणनीतिक साझेदारी अमेरिका को दक्षिण एशिया में ऊर्जा और व्यापार के गए रास्ते खोलने में मदद कर सकती है। अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार बताते हैं कि 'रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद भारत और चीन ने रूस से बड़ी मात्रा में तेल आयात किया है। ट्रंप अगर पाकिस्तान में रिफाइनरी डिवेलप करने में मदद करें, तो देखना होगा कि वहां से किस प्राइस पर और कहां निर्यात होगा? अगर ग्लोबल डिमांड पटती है और दुनिया में एक बड़ी रिफाइनरी जुड़ती है तो इससे प्राइस पर असर पड़ेगा। इसका इनडायरेक्ट प्रभाव भारत पर आ सकता है। तो क्या भारत के लिए यह चिंता की बात है?

शायद नहीं! क्योंकि ट्रंप का यह बयान ऐसे समय पर आया है, जब कुछ ही घंटे पहले ट्रंप ने भारत पर 25% टैरिफ लगाने और रूसी हथियार खरीदने के लिए दंडात्मक कार्रवाई की बात की। लिहाजा, इस समझौते के बाद पाक क्षेत्रीय ऊर्जा केंद्र बनने की कोशिश कर सकता है। ट्रंप ने यहां तक कहा कि कौन जानता है, शायद एक दिन पाकिस्तान भारत को तेल बेचे। यह बयान प्रतीकात्मक है, लेकिन इसके जरिए ट्रंफ दक्षिण एशिया में अपनी आर्थिक पकड़ मजबूत करना चाहते हैं, जो चीन व भारत के होते हुए सम्भव नहीं है।

उधर, ट्रंप ने भारत को चिढ़ाने के लिए पाकिस्तान के साथ एक ट्रेड डील की घोषणा की। साथ ही कहा कि अमेरिका विशाल तेल भंडार विकसित करने के लिए पाकिस्तान के साथ काम करेगा। पाकिस्तान कभी भारत को तेल भी बेच सकता है। इससे उत्साहित पाक के पीएम शहबाज शरीफ ने ट्रंप को ऐतिहासिक डील के लिए शुक्रिया कहा। हालांकि, ट्रंप के इस कदम के मायने को हमें ऐसे समझने होंगे। वह यह कि  पाक से अमेरिकी डील इंडियन इकॉनमी के लिए दिक्कत की बात नहीं है। सिर्फ तेल भंडार डिवेलप होने से जरूरी नहीं कि अशांत पाकिस्तान की इकॉनमी को बूस्ट मिले। यह पाक में चीन को रिप्लेस करने की अमेरिकी कोशिश भी है।

जहां तक पाकिस्तान और अमेरिका के बीच एक नया व्यापार समझौता होने की बात है, तो पाकिस्तान ने ऐतिहासिक करार दिया है। क्योंकि दुनियावी देशों के सामने अब उसे कटोरा लेकर भीख मांगने की जरूरत नहीं पड़ेगी।इसलिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का आभार जताते हुए कहा कि यह डील दोनों देशों के साझेदारों को एक नए मुकाम तक ले जाएगी। वहीं, ट्रंप ने इसे पाकिस्तान के विशाल तेल भंडार को मिलकर विकसित करने की दिशा में एक बड़ी शुरुआत बताया है। ट्रंप ने सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म 'दूध सोशल' पर बताया कि इस समझौता से पाकिस्तान को क्या फायदा होगा? अमेरिकी निवेश से उसकी अर्थव्यवस्था को सहारा मिलेगा और विदेशी मुद्रा भंडार में इजाफा होगा। हम उस तेल कंपनी को चुनने की प्रक्रिया में है जो इस साझेदारी का नेतृत्व करेगी। कौन जाने, शायद वे किसी दिन भारत को तेल बेचेंगे। हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि ये भंडार कहां स्थित है? विशेषज्ञों के मुताबिक, पाकिस्तान लंबे समय से अपने समुद्री तटी पर तेल और गैस संसाधनों की बात करता रहा है लेकिन व्यावहारिक दोहन में अब तक कोई बड़ी सफलता नहीं मिली।

हालांकि, अमेरिका व पाकिस्तान के दावे और हकीकत में अंतर है? क्योंकि पाकिस्तान का ऑफशोर तेल खोज का रिकॉर्ड अब तक नाकाम रहा है। 2015 की अमेरिकी रिपोर्ट में 9 अरब बैरल शैल ऑयल की संभावना जताई गई थी, लेकिन कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। हाल ही में सिंध में फकीर केल से नई गैस निकली है। समुद्री सीमा में भी भंडार का दावा है, मगर पुष्टि नहीं हुई है। क्योंकि कोई ड्रिलिंग नहीं हुई है। बता दें कि पाक के कच्चे तेल के भंडार 23-35 करोड़ बैरल के बीच है, जबकि भारत के पास लगभग 500 करोड़ बैरल और वेनेजुएला के पास 3 लाख करोड़ बैरल से अधिक तेल है।

वहीं, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने ट्रंप के बयान को सही ठहराया है। उन्होंने दावा किया कि पीएम नरेद्र मोदी और वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को छोड़कर सब जानते हैं कि भारत एक 'डेड इकॉनमी' है। पीएम ने अर्थव्यवस्था खत्म कर दी है। अमेरिका के साथ ट्रेड डील ट्रंप की शर्तों पर होगी। कांग्रेस नेता गांधी ने सरकार पर देश की अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने का आरोप लगाया है। उन्होंने कहा कि मोदी सरकार ने देश की आर्थिक, रक्षा और विदेश नीति की पूरी तरह से बर्बाद कर दिया है। आज भारत जिन सबसे बड़े संकटों से जूझ रहा है, उनमें से पहला संकट यह है कि मोदी सरकार की नीतियों ने देश को गर्त में पहुंचा दिया है। छोटे व्यापार पूरी तरह खत्म कर दिए गए हैं। अब आप देखिए कि अमेरिका के साथ जो डील होगी, वो ट्रंप तय करेगा और मोदी वही करेंगे जो ट्रंप कहेगा। कांग्रेस नेता ने ट्रंप के हालिया बयानों का हवाला देते हुए कहा कि उन्होंने भारत की अर्थव्यवस्था की डेड इकॉनमी कहा है, जो कि एक कड़वा सच है। पूरी दुनिया जानती है कि भारत की अर्थव्यवस्था मृत पड़ी है और इसकी जिम्मेदार सिर्फ बीजेपी की नीतियां है। उन्होंने तंज कसा कि विदेश मंत्री कहते हैं कि हमारी विदेश नीति शानदार है, लेकिन दुनिया में कोई भी देश पाक की निंदा तक नहीं करता है।

- कमलेश पांडेय

वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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