वोटों की फसल काटने के लिए नफरत की खेती करते हैं आज के नेता

facebook congress bjp
कमलेश पांडेय । Aug 20 2020 1:08PM

हमारे कुछ राजनेता जिन बातों की अपेक्षा फेसबुक से कर रहे हैं, उसके विपरीत उनका सामाजिक आचरण, दलगत आचरण और संसदीय आचरण जगजाहिर है। कई बार देशवासियों ने भी इसे मीडिया माध्यमों में देखा है।

जो राजनेता फेसबुक जैसे लोकप्रिय सोशल मीडिया माध्यमों से नफरत फैलाने वाली सामग्री को हटाने के पक्ष में तरह-तरह की दलीलें देते हैं, उनसे यदि यह अपेक्षा की जाए कि वे लोग अपने सियासी एजेंडे से नफरत फैलाने वाली बातों को हटा लें, तो शायद उनकी बोलती बंद हो जाएगी। क्योंकि चाहे सत्तापक्ष हो या विपक्ष, सबके दिलोदिमाग में सिर्फ यही सवाल उठेगा कि यदि नफरत की खेती नहीं होगी तो फिर बिना मेहनत वाली बहुमत की फसल लहलहायेगी कैसे?  

राजनैतिक विश्लेषकों की मानें तो मौलिक मुद्दों को उठाने से सियासतदानों के समक्ष एक जोखिम रहता है। इन मुद्दों को साकार करने के लिए एक ओर जहां श्रम अधिक करना पड़ता है, वहीं सबके लिए समुचित संसाधन जुटाने के वास्ते समाज के संभ्रांत वर्गों के हितों की उपेक्षा करनी होती है, जिससे वे लोग जनहितैषी पार्टी से दूरी बना लेते हैं और धनबल के जोर व प्रशासनिक-कारोबारी पकड़ से दूसरे राजनैतिक दल के पक्ष में लामबंद हो जाते हैं। जबकि भावनात्मक मुद्दों के साथ ऐसा जोखिम नहीं रहता। अमूमन, भावनात्मक मुद्दे बड़े जनाधार वाले वर्ग को लक्षित करके ही उठाये जाते हैं और ये अब तक हिट होते आए हैं। भारतीय लोकतंत्र में कई विकासोन्मुखी सरकारों के पतन के पीछे कुछ ऐसी ही मानसिकता गिनाई जा चुकी है। हालांकि, बहुतेरे ऐसे भी उदाहरण हैं जहां नेतृत्व ने स्थायित्व को भी प्राप्त किया।

इसे भी पढ़ें: भड़काऊ पोस्ट को लेकर फेसबुक की निष्क्रियता पर TMC सांसद ने उठाए सवाल

वास्तव में सबके लिए रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, सम्मान की बात करने से, सुव्यवस्था और सबके लिए रोजगार की बात सोचने से, उपलब्ध राष्ट्रीय संसाधनों के एक समान बंटवारे से भले ही स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसा लोकतांत्रिक भाव मजबूत होगा। लेकिन बिना कुछ किये-दिए सियासी बहुमत प्राप्ति के लिहाज से जरूरी वह गोलबंदी संभव नहीं हो पाएगी, जो कि भावनात्मक मुद्दे को उछालने से होती है। यही वजह है कि आजादी, समाजवाद, वर्गवाद, सामाजिक न्याय और राष्ट्रवाद जैसे मुद्दे भारतीय सियासत पर हावी होते गए, उसकी सहयोगी भावनाएं, जैसे- जातिवाद, क्षेत्रवाद, सम्प्रदायवाद, सम्पर्कवाद, लिंगवाद और अल्पसंख्यक-बहुसंख्यकवाद जैसी वैचारिक कुरीतियां हमारे समाज और प्रशासन में अपनी गहरी जड़ें जमाती गईं, और हम लोग टुकुर टुकुर ताकते रहे और कुछ कर नहीं पाए। 

शायद इसलिए भी कि इसे भड़काने वाले लोग कतिपय विशेषाधिकारों से लैस रहे हैं, तो कुछ को कानूनी शह व संरक्षण प्राप्त है। हैरत की बात तो यह है कि समाज सुलग रहा है, क्योंकि इसे सुलगाने में ही हमारी सियासत का हित निहित है। इसे रोकने में कार्यपालिका और न्यायपालिका की विफलता एक अंतहीन त्रासदी को जन्म दे रही है।

यह बात मैं इसलिए छेड़ रहा हूं कि कुछ नेताओं ने भड़काऊ भाषणों और आपत्तिजनक सामग्री को हटाने व न हटाने को लेकर सोशल मीडिया नेटवर्किंग वेबसाइट फेसबुक पर जो निशाना साधा है, वह बचकानी बात है।

दरअसल, हमारे कुछ राजनेता जिन बातों की अपेक्षा फेसबुक से कर रहे हैं, उसके विपरीत उनका सामाजिक आचरण, दलगत आचरण और संसदीय आचरण जगजाहिर है। कई बार देशवासियों ने भी इसे मीडिया माध्यमों में देखा है। टीवी डिबेट में होने वाली उटपटांग तकरार अब किसी से छिपी हुई बात नहीं है। प्रिंट व डिजिटल मीडिया में प्रकाशित विषैले विचार इधर-उधर देखे जा सकते हैं। यह कड़वी सच्चाई है कि चाहे सत्तापक्ष हो या विपक्ष और इन दोनों के गठबंधन सहयोगी सियासी हमाम में सभी नंगे हैं!

इसे भी पढ़ें: फेसबुक विवाद में संसद की कमेटी में बवाल, दुबे, थरूर और महुआ के बीच ट्विटर पर छिड़ा वाकयुद्ध

बहरहाल, फेसबुक हेट स्पीच प्रकरण में कांग्रेस सांसद और सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी संसद की स्थाई समिति के अध्यक्ष शशि थरूर का यह कहना कि "संसद की स्थाई समिति फेसबुक की पक्षपात से जुड़ी खबरों पर उसका जवाब जानना चाहती है। वह यह जानना चाहती है कि भारत में हेट स्पीच को लेकर उसका क्या रुख है। लिहाजा, संसदीय समिति सामान्य मामलों में नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा और सामाजिक, ऑनलाइन मीडिया मंचों के दुरुपयोग को रोकने के तहत बयान पर विचार करेगी।" वहीं, फेसबुक ने भी यह स्पष्ट कर दिया है कि "हम ऐसे भड़काऊ भाषण और सामग्री पर रोक लगाते हैं, जो हिंसा को उकसाते हैं। हम नीतियों को वैश्विक स्तर पर लागू करते समय यह नहीं देखते कि पोस्ट किस राजनैतिक हैसियत के हवाले से या पार्टी से सम्बंधित है। हालांकि, हम जानते हैं कि भड़काऊ भाषण और सामग्री पर रोक लगाने के लिए अभी काफी कुछ करना है। निष्पक्षता व सटीकता तय करने के लिए हम इस प्रक्रिया का नियमित आकलन करते हैं।" 

अब सवाल है कि किसी भी लोकतांत्रिक देश में उसके सियासतदानों के आचरण, प्रशासकों की रणनीति और न्यायविदों की विधिक भूमिका पर जनहित के लौकिक नजरिये से विचार किया जाए और उन सबसे सर्वहितैसी आचरण की अपेक्षा की जाए तो उनका अभिजात्य स्वभाव गम्भीर हो उठता है और वो अगल-बगल झांकने लगते हैं, जिससे आम आदमी के हित का सवाल जहां का तहां रह जाता है। खासकर सबके लिए सुख-शांति-समृद्धि की प्राप्ति का! इस बात में कोई दो राय नहीं कि भारतीय राजनीति में अब भी सभ्य, सुशील व सरल नेताओं की कमी नहीं है, लेकिन जिस तरह से हरेक पार्टी में भड़काऊ भाषण देने वाले, ज्वलनशील बातें करने वाले और अपराध मिजाजी नेताओं की पूछ बढ़ी है, वह चिंताजनक है। संसद, विधानमंडल और पंचायती राज निकायों में इनकी उपस्थिति उन कानून निर्मात्री संस्थाओं और उसे लागू करने वाली व्यवस्थाओं को मुंह चिढ़ाती हुई प्रतीत होती है। बावजूद इसके, खुले दिल से सम्यक व समयोचित उपाय के लिए राजनीतिक दलों से कभी सम्यक पहल करने की सोची ही नहीं!

वाकई, लोकतांत्रिक सियासत और बहुमत वाली सरकार की जो सबसे बड़ी त्रासदी मैं समझता आया हूं, वह यह है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों, उनके समर्थक कारोबारियों और इस समूचे सिस्टम से जुड़े सरकारी या निजी घरानों की सुख-सुविधाओं की पूर्ति के अलावा आम लोगों को वैसी ही सुख-सुविधाएं देने की बात शायद ही किसी के एजेंडे में हो। तभी तो रोटी, कपड़ा और मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य और सम्मान से आगे बढ़कर एक समान तकनीकी सुविधाओं जैसी बातें हवा हवाई हो रही हैं और वर्गवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद जैसी तमाम भेदभावमूलक बातें हमारी सत्ता का चिरस्थाई चरित्र बनती जा रही हैं।

यह कितना अजीबोगरीब है कि एक जमाने में पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने मिश्रित अर्थव्यवस्था की वकालत की, तो उनके दो दशक बाद उनकी ही बेटी पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सरकारीकरण को बढ़ावा दिया और उनके दो दशक बाद उन्हीं की कांग्रेस पार्टी के पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव ने निजीकरण को हर मर्ज का इलाज बताने का प्रयत्न किया। लेकिन हमारी सरकार की इन तीनों नीतियों का फलसफा यह निकला कि रोटी, कपड़ा और मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य और सम्मान आदि सबके हिस्से में आजादी के 74वें वर्ष में भी नहीं पहुंच पाया है। हां, तब की क्षुद्र सामाजिक सोच से उत्पन्न राष्ट्रीय विभाजन और साम्प्रदायिक दंगों के बाद जिन समस्याओं का समाधान हो जाना चाहिए था, वह आज भी जस का तस बरकरार है। और कई अर्थों में गुलाम भारत से ज्यादा भयावह तस्वीरों का साक्षी बन चुका है। सच कहा जाए तो तेजी से डिजिटल वर्ल्ड की तरफ करवट ले रही इस दुनिया में एक छोर से दूसरे छोर तक तेज स्पीड वाले इंटरनेट की उपलब्धता, तेज रफ्तार वाहनों की जरूरत, सबके पास खर्चे लायक उपलब्ध धन की बजाय लक्ष्मी की बहन दरिद्रता इसलिए हर जगह दिखाई दे रही है, क्योंकि विशाल हृदय के स्वामी विष्णु की तरह हमारे शासक कभी सोच ही नहीं पाए और शोषण-दमन की प्रशासनिक चक्की में पिसते रहने की बात कहना गुस्ताखी होगी, पर साँच को आंच क्या?

-कमलेश पांडेय

(वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार)

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़