दिव्यांगता अभिशाप नहीं है, सोच सही हो तो अभाव भी विशेषता बन जाते हैं

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दुनिया में 8 प्रतिशत लोग दिव्यांगता का शिकार हैं। दिव्यांगता अभिशाप नहीं है क्योंकि शारीरिक अभावों को यदि प्रेरणा बना लिया जाये तो दिव्यांगता व्यक्तित्व विकास में सहायक हो जाती है। यदि सोच सही रखी जाये तो अभाव भी विशेषता बन जाते हैं।

दिसम्बर 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विकलांगों को दिव्यांग कहने की अपील की थी। जिसके पीछे उनका तर्क था कि शरीर के किसी अंग से लाचार व्यक्तियों में ईश्वर प्रदत्त कुछ खास विशेषताएं होती हैं। विकलांग शब्द उन्हें हतोत्साहित करता है। प्रधानमंत्री मोदी के आह्वान पर देश के लोगों ने विकलांगों को दिव्यांग तो कहना शुरू कर दिया लेकिन लोगों का उनके प्रति नजरिया आज भी नहीं बदल पाया है। आज भी समाज के लोगों द्वारा दिव्यांगों को दयनीय दृष्टि से ही देखा जाता है। भले ही देश में अनेकों दिव्यांगों ने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया हो मगर लोगों का उनके प्रति वही पुराना नजरिया बरकरार है।

संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 1992 में हर वर्ष 3 दिसम्बर को अंतर्राष्ट्रीय दिव्यांग दिवस के रूप में मनाने घोषणा की गयी। इसका उद्देश्य समाज के सभी क्षेत्रों में दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों को बढ़ावा देना और राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में दिव्यांग लोगों के बारे में जागरूकता बढ़ाना था। मगर आज के समय में भी अधिकतर लोगों को तो इस बात का भी पता नहीं होता है कि हमारे घर के आस-पास कितने दिव्यांग रहते हैं। उन्हें समाज में बराबरी का अधिकार मिल रहा है कि नहीं। किसी को इस बात की कोई फिक्र नहीं है। यह एक कड़वी सच्चाई है कि भारत में दिव्यांग आज भी अपनी मूलभूत जरूरतों के लिए दूसरों पर आश्रित है।

दुनिया में 8 प्रतिशत लोग दिव्यांगता का शिकार हैं। दिव्यांगता अभिशाप नहीं है क्योंकि शारीरिक अभावों को यदि प्रेरणा बना लिया जाये तो दिव्यांगता व्यक्तित्व विकास में सहायक हो जाती है। यदि सोच सही रखी जाये तो अभाव भी विशेषता बन जाते हैं। दिव्यांगता से ग्रस्त लोगों का मजाक बनाना, उन्हें कमजोर समझना और उनको दूसरों पर आश्रित समझना एक भूल और सामाजिक रूप से एक गैर जिम्मेदाराना व्यवहार है। जो लोग किसी दुर्घटना या प्राकृतिक आपदा का शिकार हो जाते हैं अथवा जो जन्म से ही दिव्यांग होते हैं, उनके बारे में हमें यह समझना होगा कि उनका जीवन भी हमारी तरह है और वे अपनी कमजोरियों के साथ उठ सकते हैं।

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गत दिनों वर्ल्ड पैरा चैम्पियनशिप खेलों में झुंझुंनूं जिले के दिव्यांग खिलाड़ी संदीप कुमार व जयपुर के सुन्दर गुर्जर ने भाला फेंक प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीत कर भारत का मान बढ़ाया है। हमारे आसपास कई ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने अपनी दिव्यांगता के बाद भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया है। दुनिया में अनेकों ऐसे उदाहरण मिलेंगे जो बताते हैं कि सही राह मिल जाये तो अभाव एक विशेषता बनकर सबको चमत्कृत कर देती है। यदि दिव्यांग व्यक्तियों को समान अवसर तथा प्रभावी पुनर्वास की सुविधा मिले तो वे बेहतर गुणवत्तापूर्ण जीवन व्यतीत कर सकते हैं।

भारत में दिव्यांगों की मदद के लिए बहुत-सी सरकारी योजनाएं संचालित हो रही हैं। लेकिन इतने वर्षों बाद भी देश में आज तक आधे दिव्यांगों को ही दिव्यांगता प्रमाण पत्र मुहैया कराये जा सके हैं। ऐसे में दिव्यांगों के लिए सरकारी सुविधाएं हासिल करना महज मजाक बनकर रह गया है। भारत में आज भी दिव्यांगता प्रमाण पत्र हासिल करना किसी चुनौती से कम नहीं है। सरकारी कार्यालयों और अस्पतालों के कई दिनों तक चक्कर लगाने के बाद भी लोगों को मायूस होना पड़ता है। हालांकि सरकारी दावे कहते हैं कि इस प्रक्रिया को काफी सरल बनाया गया है, लेकिन हकीकत इससे काफी दूर नजर आती है। दिव्यांगता का प्रमाणपत्र जारी करने के सरकार ने जो मापदण्ड बनाये हैं। अधिकांश सरकारी अस्पतालों के चिकित्सक उनके अनुसार दिव्यांगों को दिव्यांग होने का प्रमाण पत्र जारी ही नहीं करते हैं। जिसके चलते दिव्यांग व्यक्ति सरकारी सुविधायें पाने से वचिंत रह जाते हैं।

सरकार द्वारा देश में दिव्यांगों के लिए कई नीतियां बनायी गयी हैं। उन्हें सरकारी नौकरियों, अस्पताल, रेल, बस सभी जगह आरक्षण प्राप्त है। दिव्यांगों के लिए सरकार ने पेंशन की योजना भी चला रखी है। लेकिन ये सभी सरकारी योजनाएं उन दिव्यांगों के लिए महज एक मजाक बनकर रह गयी हैं। जब इनके पास इन सुविधाओं को हासिल करने के लिए दिव्यांगता का प्रमाणपत्र ही नहीं है। देश में दिव्यांगों को दी जाने वाली सुविधाएं कागजों तक सिमटी हुई हैं। अन्य देशों की तुलना में हमारे यहां दिव्यांगों को एक चौथाई सुविधाएं भी नहीं मिल पा रही हैं। केन्द्र सरकार ने देशभर के दिव्यांग युवाओं को केन्द्र सरकार में सीधी भर्ती वाली सेवाओं के मामले में दृष्टि बाधित, बधिर और चलने-फिरने में दिव्यांगता या सेरेब्रल पल्सी के शिकार लोगों को उम्र में 10 साल की छूट देकर एक सकारात्मक कदम उठाया है। दिव्यांगता शारीरिक अथवा मानसिक हो सकती है किन्तु सबसे बड़ी दिव्यांगता हमारे समाज की उस सोच में है जो दिव्यांग जनों से हीन भाव रखती है। जिसके कारण एक असक्षम व्यक्ति असहज महसूस करता है।

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अब दिव्यांग लोगों के प्रति अपनी सोच को बदलने का समय आ गया है। दिव्यांगों को समाज की मुख्यधारा में तभी शामिल किया जा सकता है जब समाज इन्हें अपना हिस्सा समझे। इसके लिए एक व्यापक जागरूकता अभियान की जरूरत है। हाल के वर्षों में दिव्यांगों के प्रति सरकार की कोशिशों में तेजी आयी है। दिव्यांगों को कुछ न्यूनतम सुविधाएं देने के लिए प्रयास हो रहे हैं। हालांकि योजनाओं के क्रियान्वयन को लेकर सरकार पर सवाल उठते रहे हैं। पिछले दिनों क्रियान्वयन की सुस्त चाल को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को फटकार भी लगायी थी। दिव्यांगों को शिक्षा से जोड़ना बहुत जरूरी है। मूक-बधिरों के लिए विशेष स्कूलों का अभाव है। जिसकी वजह से अधिकांश विकलांग ठीक से पढ़-लिखकर आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं बन पाते हैं।

आधुनिक होने का दावा करने वाला हमारा समाज अब तक दिव्यांगों के प्रति अपनी बुनियादी सोच में कोई खास परिवर्तन नहीं ला पाया है। अधिकतर लोगों के मन में दिव्यांगों के प्रति तिरस्कार या दया भाव ही रहता है। ऐसे भाव दिव्यांगों के स्वाभिमान पर चोट करते हैं। भारत में दिव्यांगों की इतनी बड़ी संख्या होने के बावजूद इनकी परेशानियों को समझने और उन्हें जरूरी सहयोग देने में सरकार और समाज दोनों नाकाम दिखाई देते हैं।

-रमेश सर्राफ धमोरा

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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