रियलिस्टिक अभिनय को फिल्मों में इस तरह से दर्शाते हैं मनोज वाजपेयी
वर्तमान में भारतीय सिनेमा में ‘रियलिज्म’ को ज्यादा तवज्जो दिए जाने पर जाने-माने अभिनेता मनोज वाजपेयी कहते हैं कि ‘रियलिस्टक सिनेमा’ के नाम पर असल में बहुत बड़ा धोखा किया जा रहा
वर्तमान में भारतीय सिनेमा में ‘रियलिज्म’ को ज्यादा तवज्जो दिए जाने पर जाने-माने अभिनेता मनोज वाजपेयी कहते हैं कि ‘रियलिस्टक सिनेमा’ के नाम पर असल में बहुत बड़ा धोखा किया जा रहा है। वह कहते हैं कि आजकल फिल्मों में ‘रियलिज्म’ पर ज्यादा जोर है और किरदारों का चरित्र गढ़ना कहीं पीछे छूट गया है। लोगों को लगता है कि धीरे-धीरे बोल दो ‘रियलिस्टिक’ हो जाएगा। कई बार तो ऐसा होता है कि हमें अपने साथी कलाकार के संवाद भी सुनाई नहीं देते क्योंकि वो ‘रियलिस्टिक अभिनय’ कर रहा होता है।
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित वाजपेयी ने इस संबंध में दिवंगत अभिनेता ओमपुरी का जिक्र करते हुए कहा कि उन्होंने उस समय जो ‘अर्धसत्य’ में किया वह वास्तविक अभिनय था और आज के दौर में भी कोई उसे करेगा तो वह रियलिस्टिक ही होगा क्योंकि वह चरित्र ऐसा गढ़ा गया है। इसलिए चरित्र गढ़ा जाना महत्वपूर्ण है। अपने अभिनय के बारे में वह कहते हैं कि मेरे लिए चरित्र महत्वपूर्ण है। किसी फिल्म में काम शुरू करने से पहले एक महीना मेरा उस किरदार में घुसने में ही जाता है। भारत में स्वतंत्र सिनेमा के पिछड़ने के पीछे वह कहते हैं कि इसके लिए दर्शक ही दोषी हैं। वह इस तरह के सिनेमा पर पैसे खर्च नहीं करना चाहते और पाइरेटेड डीवीडी उनकी इस मामले में मदद कर देती हैं। हालांकि उन्होंने उम्मीद जताई कि हंसल मेहता और अनुराग कश्यप जैसे निर्देशकों की बदौलत भविष्य में इस तरह की फिल्मों को दर्शक पसंद करेंगे। गौरतलब है कि वाजपेयी ने मेहता के साथ ‘अलीगढ़’ और कश्यप के साथ ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ जैसी फिल्मों में काम किया है।
वह बताते हैं कि ‘‘मुझे ‘नटवा’ नाटक के चरित्र से बाहर आने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ी और यही स्थिति ‘शूल’ फिल्म के समय भी हुई। जिस तरह चरित्र में जाने का एक तरीका है, उसी तरह का उससे बाहर आने का भी एक आनंद है। वह बताते हैं कि ‘‘नटवा में मैंने एक नर्तक का किरदार अदा किया था। जो पुरूष है लेकिन उसके किरदार की वजह से उसके हावभाव महिलाओं की तरह हो गए, हालांकि वह समलैंगिक नहीं है। उसकी शादी भी हुई है लेकिन सारा समाज, उसकी पत्नी उसके हावभाव की वजह से उलाहना देता है। इस नाटक में उसकी जंग समाज में अपनी पत्नी को पर्याप्त सम्मान दिलाने की है।
वाजपेयी बताते हैं कि इस नाटक को कई बार कर लेने के बाद मेरे निजी जीवन में भी हाव-भाव महिलाओं की तरह हो गए थे। तब मैंने कहीं पढ़ा था कि कमल हासन साहब बहुत अच्छे भरतनाट्यम के जानकार हैं और उन्हें भी ऐसी ही स्थिति का सामना करना पड़ा था तो उन्होंने कसरत करना शुरू किया था। मैंने भी इस चरित्र से बाहर आने के लिए कसरत करना शुरू किया। वह बताते हैं कि इसी प्रकार ‘शूल’ के वक्त भी उन्हें उस किरदार से बाहर आने के लिए मनौवैज्ञानिक की मदद लेनी पड़ी थी।
तीन बार राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रवेश पाने में नाकाम रहने वाले अभिनेता वाजपेयी बताते हैं कि बार-बार असफल रहने के बाद भी वह नाट्य विद्यालय में सिर्फ अवसर की तलाश, अपने को अभिनय में पारंगत बनाने और तकनीक सीखने के लिए आना चाहते थे। नाट्य विद्यालय को मुंबई जाने की एक सीढी के तौर पर प्रयोग करने के बारे में वह कहते हैं कि यह हमारी नजर का दोष है। हम सिर्फ मुंबई जाने वालों पर नजर रखते हैं। कितने लोग नाट्य विद्यालय से वापस जाते हैं, उनको हम कभी देखते ही नहीं। उन्होंने कहा कि इसलिए नाटक को भारत में सिर्फ कुछ लोगों के जुनून ने ही जिंदा रखा हुआ है। अगर यह जुनून ना हो तो नाटक बचेगा ही नहीं। इसलिए हमें उनकी ओर भी देखना होगा जो वापस जा रहे हैं और अपने राज्यों में नाटक के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। अंत में वह अपने पिता की एक चिट्ठी का जिक्र करते हुए बताते हैं कि पिताजी ने मुझे लिखा था कि मैं जानता था कि तू मेरा ही बेटा है। मुझे पता था कि तू अभिनेता ही बनेगा। लेकिन मैं फिर भी अपनी किस्मत आजमा रहा था कि शायद तू डॉक्टर बन जाए। वह बताते हैं कि उनके पिताजी को पता नहीं था कि वह दिल्ली में अभिनय करते हैं। लेकिन एक बार ‘इंडिया टुडे’ में उनके एक नाटक की तस्वीर छपी थी। इसके बाद उन्हें पता चला कि वे अभिनय करते हैं और फिर उन्होंने वह पत्रिका पूरे गांव को घूम-घूम कर दिखाई।
- प्रीटी
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