क्या होती है जनहित याचिका ? इसे कैसे और कौन-से कोर्ट में दाखिल किया जा सकता है ?

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वास्तव में जनहित याचिकाएं जनहित को सुरक्षित बनाना तथा बढ़ाना चाहती हैं। ये लोकहित भावना पर कार्य करती हैं। ये ऐसे न्यायिक उपकरण हैं जिनका लक्ष्य जनहित प्राप्त करना है। इनका लक्ष्य तीव्र तथा सस्ता न्याय एक आम आदमी को दिलवाना है।

भारतीय कानून में सार्वजनिक हित की रक्षा के लिए जनहित याचिका के तौर पर जो मुकदमें करने का प्रावधान है, वह बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि यह अन्य सामान्य अदालती याचिकाओं से अलग है। इसकी खास बात यह है कि इसमें यह आवश्यक नहीं है कि पीड़ित पक्ष स्वयं अदालत में जाए, बल्कि यह किसी भी नागरिक या स्वयं न्यायालय द्वारा पीड़ितों के पक्ष में दायर किया जा सकता है। इसके पक्ष और विपक्ष में कई बातें कही जाती हैं, लेकिन निर्विवाद रूप से इसके महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता है। भारतीय न्यायिक व्यवस्था का यह ऐसा अवदान है, जिसकी चाहे जितनी भी तारीफ की जाए वह कम है। ऐसा इसलिए कि इससे आम आदमी के सकारात्मक पक्ष को मजबूती मिली है। यह बात अलग है कि कभी कभी इसके दुरूपयोग की बातें भी सामने आती हैं, लेकिन तब विद्वान जजों द्वारा ऐसे तत्वों को स्पष्ट आईना भी दिखा दिया गया है, जिससे इसके अनुप्रयोग को लेकर सारी आशंकाएं अब तक निर्मूल साबित हुई हैं।

यदि जनहित याचिका के तहत उठाये गए अब तक के मामलों पर नजर दौड़ाएं तो यह स्पष्ट पता चलता है कि इसने बहुत व्यापक क्षेत्रों पर अपना सार्थक असर डाला है। खास कर कारागार और बन्दी, सशस्त्र सेना, बालश्रम, बंधुआ मजदूरी, शहरी विकास, पर्यावरण और संसाधन, ग्राहक मामले, शिक्षा, राजनीति और चुनाव, लोकनीति और जवाबदेही, मानवाधिकार और स्वयं न्यायपालिका को भी इसने तह तक प्रभावित किया है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि न्यायिक सक्रियता और जनहित याचिका का विस्तार बहुत हद तक समानान्तर रूप से हुआ है और जनहित याचिका का मध्यम वर्ग ने सामान्यतः स्वागत और समर्थन किया है। 

उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक व्याख्या से व्युत्पन्न है जनहित याचिका

यहां पर यह ध्यान देने की बात है कि जनहित याचिका भारतीय संविधान या किसी कानून में परिभाषित नहीं है, बल्कि यह उच्चतम न्यायालय के संवैधानिक व्याख्या से व्युत्पन्न है, जिसका कोई अंत‍‍‍र्राष्ट्रीय समतुल्य नहीं है और इसे एक विशिष्ट भारतीय संप्रल्य के रूप में देखा जाता है। यूं तो इस प्रकार की याचिकाओं का विचार सबसे पहले अमेरिका में जन्मा। जहां इसे 'सामाजिक कार्यवाही याचिका' कहते हैं। यह न्यायपालिका का आविष्कार तथा न्यायधीश निर्मित विधि है। जबकि, भारत में जनहित याचिका पी.एन. भगवती ने प्रारंभ की थी। 

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वास्तव में, ये जनहित याचिकाएं जनहित को सुरक्षित बनाना तथा बढ़ाना चाहती हैं। ये लोकहित भावना पर कार्य करती हैं। ये ऐसे न्यायिक उपकरण हैं जिनका लक्ष्य जनहित प्राप्त करना है। इनका लक्ष्य तीव्र तथा सस्ता न्याय एक आम आदमी को दिलवाना है, जिसके मद्देनजर कार्यपालिका व विधायिका को उनके संवैधानिक कार्य करवाने हेतु किया जाता है। ये 'समूह हित' में काम आती है ना कि व्यक्ति हित में। यदि इनका दुरूपयोग किया जाये तो याचिकाकर्ता पर जुर्माना तक किया जा सकता है। हालांकि, इनको स्वीकारना या ना स्वीकारना न्यायालय के रुख पर निर्भर करता है।

उच्चतम न्यायालय ने जनहित याचिकाओं की स्वीकृति हेतु स्पष्ट कर दिए हैं कतिपय प्रावधान

यहां पर यह बताना भी जरूरी है कि जनहित याचिकाओं की स्वीकृति हेतु उच्चतम न्यायालय ने कुछ नियम बनाये हैं- पहला, लोकहित से प्रेरित कोई भी व्यक्ति या संगठन इन्हें ला सकता है। दूसरा, कोर्ट को दिया गया पोस्टकार्ड भी रिट याचिका माना जा सकता है। तीसरा, कोर्ट को अधिकार होगा कि वह इस याचिका हेतु सामान्य न्यायालय शुल्क भी माफ कर दे। चतुर्थ, ये राज्य के साथ ही निजी संस्थान के विरूद्ध भी लायी जा सकती है।

वहीं, इसके निम्नलिखित लाभ भी हैं- पहला, इस याचिका से जनता में स्वयं के अधिकारों तथा न्यायपालिका की भूमिका के बारे में चेतना बढ़ती है। यह मौलिक अधिकारों के क्षेत्र को वृहद बनाती है जिसमें व्यक्ति को कई नये अधिकार मिल जाते हैं। दूसरा, यह कार्यपालिका व विधायिका को उनके संवैधानिक कर्तव्य करने के लिये बाधित करती है। साथ ही, यह भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन की सुनिश्चितता करती है। 

यह बात दीगर है कि जनहित याचिकाओं की आलोचनाएं भी की जाती हैं और कहा जाता है कि ये सामान्य न्यायिक संचालन में बाधा डालती हैं और इनके दुरूपयोग की प्रवृति भी परवान पर है। यहां यह बता दें कि इसके चलते ही सुप्रीम कोर्ट ने खुद कुछ बन्धन इनके प्रयोग पर लगाये हैं।

जनहित याचिकाओं के अतीत पर गौर करने से पता चलता है इसकी अतुलनीय महत्ता का

जहां तक जनहित याचिकाओं के इतिहास का सवाल है तो यहां पर यह स्पष्ट करना लाजिमी है कि जनहित याचिका नियमित न्यायिक चर्चाओं से भिन्न है। हालांकि, यह समकालीन भारतीय कानून व्यवस्था का महत्वपूर्ण अंग है। आरम्भ में भारतीय कानून व्यवस्था में इसे यह स्थान प्राप्त नहीं था। इसकी शुरुआत अचानक नहीं हुई, वरन कई राजनैतिक और न्यायिक कारणों से धीरे-धीरे इसका विकास हुआ। कहा जा सकता है कि 70 के दशक से शुरुआत होकर 80 के दशक में इसकी अवधारणा पक्की हो गयी थी। दरअसल, एके गोपालन और मद्रास राज्य (19-05-1950) केस में उच्चतम न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद-21 का शाब्दिक व्याख्या करते हुए यह फैसला दिया कि अनुच्छेद 21 में व्याख्यित 'विधिसम्मत प्रक्रिया' का मतलब सिर्फ उस प्रक्रिया से है जो किसी विधान में लिखित हो और जिसे विधायिका द्वारा पारित किया गया हो। अर्थात्, अगर भारतीय संसद ऐसा कानून बनाती है जो किसी व्यक्ति को उसके जीने के अधिकार से अतर्कसंगत तरीके से वंचित करता हो, तो वह मान्य होगा। 

तब न्यायालय ने यह भी माना कि अनुच्छेद-21 की विधिसम्मत प्रक्रिया में प्राकृतिक न्याय या तर्कसंगतता शामिल नहीं है। न्यायालय ने यह भी माना कि अम‍रीकी संविधान के उलट भारतीय संविधान में न्यायालय विधायिका से हर दृष्टिकोण में सर्वोच्च नहीं है और विधायिका अपने क्षेत्र (कानून बनाने) में सर्वोच्च है। इस फैसले की काफी आलोचना भी हुई, लेकिन यह निर्णय 25 साल से भी ज्यादा समय तक बना रहा। ये उच्चतम न्यायालय के आरंभिक वर्ष थे, जब इसका रुख सावधानीभरा और विधायिका समर्थक था। यह काल हर तरह से, आज के माहौल, जब न्यायिक समीक्षा की अवधारणा स्थापित हो चुकी है और न्यायालय को ऐसी संस्था के रूप में देखा जाता है जो नागरिकों को राहत प्रदान करता है और नीति-निर्माण भी करता है जिसका राज्य को पालन करना पड़ता है, से भिन्न था। 

देश में न्यायालयों की सर्वोच्चता स्थापित होने से जनहित याचिकाओं को मिली और अधिक मजबूती

हालांकि, बाद के फैसलों में न्यायालयों की सर्वोच्चता स्थापित हुई और इस बीच विधायिका और न्यायपालिका के बीच मतभेद और संघर्ष भी हुआ। खासकर गोलक नाथ और पंजाब राज्य (1967) केस में 11 जजों की खंडपीठ ने 6-5 के बहुमत से माना कि संसद ऐसा संविधान संशोधन पारित नहीं कर सकती जो मौलिक अधिकारों का हनन करता हो। वहीं, केशवानंद भारती और केरल राज्य (1973) केस में उच्चतम न्यायालय ने गोलक नाथ निर्णय को रद्द करते हुए यह दूरगामी सिद्धांत दिया कि संसद को यह अधिकार नहीं है कि वह संविधान की मौलिक संरचना को बदलने वाला संशोधन करे और यह भी माना कि न्यायिक समीक्षा मौलिक संरचना का भाग है। 

सच कहा जाए तो आपातकाल के दौरान नागरिक स्वतंत्रता का जो हनन हुआ था, उसमें उच्चतम न्यायालय के एडीएम जबलपुर और अन्य तथा शिवकांत शुक्ला (1976) केस, जिसके फैसले में न्यायालय ने कार्यपालिका को नागरिक स्वतंत्रता और जीने के अधिकार को प्रभावित करने की स्वछंदता दी थी, का भी योगदान माना जाता है। इस फैसले ने अदालत के नागरिक स्वतंत्रता के संरक्षक होने की भूमिका प‍र प्रश्नचिह्न लगा दिया। आपातकाल (1975-1977) के पश्चात न्यायालय के रुख में गुणात्मक बदलाव आया और इसके बाद जनहित याचिका के विकास को कुछ हद तक इस आलोचना की प्रतिक्रिया के रूप में देख सकते हैं। वहीं, मेनका गांधी और भारतीय संघ (1978) केस में न्यायालय ने एके गोपालन केस के निर्णय को पलट कर जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकारों को विस्तारित किया।

जहां तक उच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देश का सवाल है तो यह कहा जा सकता है कि उच्चतम न्यायालय ने जनहित याचिकाओं को प्रगतिशील लोकतान्त्रिक व्यवस्था का प्राणतत्व माना है। साथ ही, और अनावश्यक याचिकाकर्ताओं को कड़ी चेतावनी और जुर्माना भी लगाया है, जिससे उसकी गम्भीरता का बोध होता है।

जनहित याचिका से जुड़े प्रमुख मुकदमों से भी बलवती जान पड़ती हैं अपेक्षित मान्यताएं

जहां तक जनहित याचिका से जुड़े प्रमुख मुकदमे का सवाल है तो यहां पर यह कहना उचित है कि जनहित याचिका का प्रथम मुख्य मुकदमा 1979 में हुसैनआरा खा़तून और बिहार राज्य (एआईआर 1979 एससी 1360) केस में कारागार और विचाराधीन कैदियों की अमानवीय परिस्थितियों से संबद्ध था। यह एक अधिवक्ता द्वारा दि इंडियन एक्सप्रेस अखबार में छपी एक खबर, जिसमें बिहार की जेलों में बन्द हजारों विचाराधीन कैदियों का हाल वर्णित था, के आधार पर दायर किया गया था। इस मुकदमे के नतीजतन 40,000 से भी ज्यादा कैदियों को रिहा किया गया था। त्वरित न्याय को एक मौलिक अधिकार माना गया, जो उन कैदियों को नहीं दिया जा रहा था। इस सिद्धांत को बाद के केसों में भी स्वीकार किया गया। 

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वहीं, एमसी मेहता और भारतीय संघ तथा अन्य (1985-2001): इस लंबे चले केस में अदालत ने आदेश दिया कि दिल्ली मास्टर प्लान के तहत और दिल्ली में प्रदूषण कम करने के लिये दिल्ली के रिहायशी इलाकों से करीब 1,00,000 औद्योगिक इकाईयों को दिल्ली से बाहर स्थानांतरित किया जाए। इस फैसले ने वर्ष 1999 के अंत में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में औद्योगिक अशांति और सामाजिक अस्थिरता को जन्म दिया था और इसकी आलोचना भी हुई थी कि न्यायालय द्वारा आम मजदूरों के हितों की अनदेखी पर्यावरण के लिये की जा रही है। इस जनहित याचिका ने करीब 20 लाख लोगों को प्रभावित किया था जो उन इकाईयों में सेवारत थे। एक और संबद्ध फैसले में उच्चतम न्यायालय ने अक्टूबर 2001 में आदेश दिया कि दिल्ली की सभी सार्वजनिक बसों को चरणबद्ध तरीके से सिर्फ सीएनजी (कम्प्रेस्ड नेचुरल गैस) ईंधन से चलाया जाए। क्योंकि यह माना गया कि सीएनजी डीज़ल की अपेक्षा कम प्रदूषणकारी है। हालांकि बाद में यह भी पाया गया कि बहुत कम गंधक वाला डीज़ल (यूएलएसडी) भी एक अच्छा या बेहतर विकल्प हो सकता है।

जहां तक अस्वीकृत याचिकाओं का सवाल है तो यह कहा जा सकता है कि अन्नाद्रमुक के सांसद पीजी नारायणन द्वारा मद्रास उच्च न्यायालय में दायर जनहित याचिका, जिसमें न्यायालय से संघ सरकार को जनहित में सन टीवी प्राइवेट लिमिटेड के डायरेक्ट टू होम सेवा के आवेदन को अस्वीकृत करने का अनुरोध किया गया था, को न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया था। इसी प्रकार वक्त वक्त पर विभिन्न निरर्थक जनहित याचिकाओं को भी कोर्ट अस्वीकृत करता आया है। यह उसका विवेकाधिकार भी है।

जनहित याचिका के दुरूपयोग पर भी रहना होगा संजीदा, अन्यथा बेनकाब होगी प्रणाली की समस्या

जहां तक इसके दुरुपयोग और प्रणाली की समस्या का सवाल है तो इस बात में कोई दो राय नहीं कि जनहित याचिका के दुरुपयोग की संभावना हमेशा बनी रही है और कई मामलों की आलोचना भी हुई है। स्वयं उच्चतम न्यायालय ने एक केस के अवलोकन के मौके पर दो टूक कहा है कि अगर इसको सही तरीके से नियंत्रित नहीं किया गया और इसके दुरुपयोग को न रोका गया तो यह अनैतिक हाथों द्वारा प्रचार, प्रतिशोध, निजी या राजनैतिक स्वार्थ का हथियार बन सकता है। भारत के पूर्व मुख्य न्यायधीश केजी बालाकृष्णन ने 8 अक्टूबर 2008 को सिंगापुर लॉ अकादमी में दिये गये अपने भाषण में जनहित याचिका की अनिवार्यता दुहराते हुए यह भी माना कि जनहित याचिका के द्वारा न्यायालय मनमाने तरीके से विधायिका के नीतिगत फैसलों में दखल दे सकता है और ऐसे आदेश दे सकता है जिनका क्रियान्वयन कार्यपालिका के लिये कठिन हो और जिससे सरकार के अंगों के बीच के शक्ति संतुलन की अवहेलना हो।

हालांकि, उन्होंने यह भी माना था कि जनहित याचिका ने बेमतलब केसों को भी जन्म दिया है जिनका लोक-न्याय से कोई सरोकार नहीं है। न्यायालय में मुकदमों की संख्या बढ़ाकर इसने न्यायालय के मुख्य काम को प्रभावित किया है। उन्होंने यह भी माना था कि जजों के अपने अधिकारों से आगे बढ़ने की स्थिति में कोई जांच प्रक्रिया भी नहीं है। इसलिए मेरी राय में यह कहा जा सकता है कि सिक्के के दोनों पहलुओं की तरह इसके चित्त या पट्ट पर ज्यादा गौर नहीं किया जाए, बल्कि इसके महत्व और आम आदमी के हितों की रक्षा में इसके योगदान की कसौटी पर ही कसना ज्यादा समीचीन होगा और इस नजरिए से यह 24 कैरेट गोल्ड जैसा विशुद्ध प्रतीत होता है वैचारिक पहलुओं के मद्देनजर।

-कमलेश पांडेय

(वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार)

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