बिरहन को जलाता है सावन, हर किसी का मन उमड़ने घुमड़ने लगता है

importance of sawan month in indian culture
राकेश सैन । Jul 18 2018 4:21PM

सावन, नाम सुनते ही मन में राहत की फुहारें से बरस जाती हैं और मन में तैर जाते हैं उमड़ते-घुमड़ते बादल, कूकती कोयल और पंख फैलाए मोर, सेवीयां, घेवर, बागों में पड़े झूले और पींघ झूलती युवतियों के गीत।

सावन, नाम सुनते ही मन में राहत की फुहारें से बरस जाती हैं और मन में तैर जाते हैं उमड़ते-घुमड़ते बादल, कूकती कोयल और पंख फैलाए मोर, सेवीयां, घेवर, बागों में पड़े झूले और पींघ झूलती युवतियों के गीत। भारतीय समाज में सावन केवल बरसात व भीषण गर्मी से राहत के लिए ही नहीं जाना जाता बल्कि इसका सांस्कृतिक रूप से इतना महत्त्व है कि इसको लेकर अनेक ग्रंथ अटे पड़े हैं। सावन आते ही हर भारतीय के घर में अनेक तरह की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। सावन जहां बिरहन को जलाता है वहीं इसके गीतों में माँ-बेटी, भाई-बहन, पति-पत्नी, सास-बहु, देवरानी-जेठानी, सखी-सहेली के बीच संबंधों के संबंधों में व्याप्त नवरस का पान करने का अवसर मिलता है। नवरस यानि वह रस जो मीठा भी है और कड़वा भी, कसैला भी है और फीका भी, जिसमें चौसे आम की खटमिटाहट है तो आंवले का कसैलापन भी। इन्हीं सभी रसों यानि संबंधों से ही तो बनता है परिवारिक जीवन। नवब्याहता दुल्हन अपने मायके आती है तो कहीं भाई सिंधारा लेकर अपनी बहन के घर पहुंचता है। ससुराल से सावन की छुट्टी ले मायके में एकत्रित हुई युवतियां व नवब्याता झूला झूलती हुई अपने-अपने पति, सास, ससुर, देवर, ननद के बारे में अपने संबंधों का बखान करती हैं। नवब्याहता ससुराल व मायके की तुलना करते हुए गाती है कि :-

कड़वी कचरी हे मां मेरी कचकची जी

हां जी कोए कड़वे सासड़ के बोल

बड़ा हे दुहेला हे मां मेरी सासरा री

मीठी कचरी है मां मेरी पकपकी री

हां जी कोए मीठे मायड़ के बाल

बड़ा ए सुहेला मां मेरी बाप कै जी

सावन में मनाई जाने वाली तीज पर हर बहन को सिंधारे के साथ अपने भाई के आने की प्रतीक्षा होती है। सिंधारे के रूप में हर माँ-बाप अपनी बेटी को सुहाग-बाग की चीजें, सेवीयां-जोईये, अचार, घेवर, मिठाई, सासू की तील (कपड़े), बाकी सदस्यों के जोड़े भेजता है। भाई की तैयारी को देख कर उसकी पत्नी पूछती है :- 

झोलै मैं डिबिआ ले रह्या

हाथ्यां मैं ले रह्या रूमाल

खसमड़े रे तेरी कित की त्यारी सै

बहाण मेरी सुनपत ब्याही सै

हे री तीज्यां का बड़ा त्युहार

सिंधारा लै कै जाऊंगा

भारी बरसात में बहन के घर जाते हुए अपने बेटे की फिक्र करती हुई माँ कहती है कि भयंकर बरसात में नदी-नाले उफान पर है। तुम कैसे अपनी बहन के घर जाओगे तो बेटा जवाब देता है :-

क्यूँ कर जागा रे बेटा बाहण के देस

आगे रे नदी ए खाय

सिर पै तो धर ल्यूँ मेरी मां कोथली

छम दे सी मारूंगा छाल

मीहां नै झड़ ला दिए

उधर बहन अपने भाई की बड़ी तल्लीनता से प्रतीक्षा करती हुई कभी घर के चौखट पर आती है तो कभी घर के अंदर। बेसब्री हो कर गाती है :- 

आया तीजां का त्योहार

आज मेरा बीरा आवैगा

सामण में बादल छाए

सखियां नै झुले पाए

मैं कर लूं मौज बहार

आज मेरा बीरा आवैगा

अपने मायके से भाई द्वारा लाये गये सिंधारे को बहन बड़े चाव से रिश्तेदारों व आस-पड़ौस को दिखाती और पांच को पचास-पचास बताती हुई गाती है कि :-

अगड़ पड़ोसन बूझण लागी, 

के के चीजां ल्यायो जी।

भरी पिटारी मोतियां की, 

जोड़े सोलां ल्यायो जी।

लाट्टू मेरा बाजणा, 

बजार तोड़ी जाइयो जी।

बहन अपने भाई को घी-शक्कर से बने चावल परोसती है। उसके लिए खीर, माल-पुए कई तरह के पकवान तैयार करती है और खाना खिलाते खिलाते सुख-दुख भी सांझे करती हुई है :-

सासू तो बीरा चूले की आग

ननद भादों की बीजली

सौरा तो बीरा काला सा नाग

देवर सांप संपोलिया

राजा तो बीरा मेंहदी का पेड़

कदी रचै रे कदी ना रचै

जिसके कंत (पति) बाहर देस-परदेस में कमाने गए हैं उस दुल्हन के मन की व्यथा भी कोई उसके जैसी ही समझ सकती है। अपने गीत में इस व्यथा को ब्यान करती हुई वह कहती है कि -

तीजां बड़ा त्योहार सखी हे सब बदल रही बाना

हे निकली बिचली गाल जेठानी मार दिया ताना

हे जिनका पति बसें परदेस ऐसे जीने से मर जाना

हे बांदी ल्यावो कलम दवात पति पै गेरूं परवाना

लिखी सब को राम राम गोरी के घर पै आ जाना

लोकगीत हमारे जीवन के हर पक्ष से जुड़े हैं, चाहे मौका सुख का हो या दु:ख का, विरह का हो या मिलन का। यह हमारी संस्कृति की अमूल्य धरोहर है जिन्हें सहेज कर रखना बहुत जरूरी है।

-राकेश सैन

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