Prabhasakshi NewsRoom: Turkey-Pakistan सैन्य गठजोड़ और गहराया, तुर्किये के लड़ाकू विमानों पर ट्रेनिंग ले रहे पाक पायलट

Recep Tayyip Erdogan sharif
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तुर्किये और पाकिस्तान का गठजोड़ केवल सैन्य सहयोग पर आधारित नहीं है; यह एक वैचारिक मेल है। दोनों कट्टर सुन्नी पहचान और मुस्लिम विश्व में नेतृत्व की महत्वाकांक्षा साझा करते हैं। पाकिस्तान को तुर्किये से तकनीक और अंतरराष्ट्रीय वैधता मिलती है।

कश्मीर पर पाकिस्तान का समर्थन करना तुर्किये की पुरानी राजनीतिक आदत है। लेकिन भारत ने लंबे समय तक इसे क्षेत्रीय समीकरणों में गंभीर खतरे के रूप में नहीं देखा। तुर्किये को हम एक ऐसे दूरस्थ NATO देश के रूप में जानते रहे, जिसकी दिलचस्पी मुख्यतः पश्चिम एशिया और इस्लामी जगत में नेतृत्व दिखाने तक सीमित होती थी। किंतु राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप एर्दोआन के नेतृत्व में तुर्किये का झुकाव अब सीधे दक्षिण एशिया की भू-राजनीति की ओर है तथा यह बदलाव भारत की सुरक्षा सोच के लिए नया सवाल खड़ा कर रहा है।

हम आपको याद दिला दें कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ ने वह दिखा दिया था जिसे भारत शायद नजरअंदाज कर रहा था। भारत की पश्चिमी सीमा पर पाकिस्तान द्वारा किए गए ड्रोन हमले में 300 से अधिक ड्रोन मार गिराए गए थे इनमें कई तुर्किये निर्मित Songar मॉडल थे, जिनकी क्षमता और घातकता किसी भी संघर्ष को असमान बनाने में सक्षम है। यह तथ्य कि तुर्किये की तकनीक और टार्गेटिंग सिस्टम अब पाकिस्तान के सैन्य ढांचे का हिस्सा बन चुके हैं, दोनों देशों की साझेदारी की गहराई का संकेत देता है। इतना ही नहीं, जब अमेरिका से भारत को भेजे जा रहे Apache हेलिकॉप्टरों का एक बैच तुर्किये ने अपने वायुक्षेत्र में रोक दिया, तब संदेश साफ था कि तुर्किये अब दक्षिण एशिया की शक्ति-संतुलन राजनीति में सक्रिय हस्तक्षेपकर्ता है। NATO सदस्य का यह कदम केवल भारत के प्रति एक प्रत्यक्ष भू-राजनीतिक संकेत था।

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देखा जाये तो तुर्किये और पाकिस्तान का गठजोड़ केवल सैन्य सहयोग पर आधारित नहीं है; यह एक वैचारिक मेल है। दोनों कट्टर सुन्नी पहचान और मुस्लिम विश्व में नेतृत्व की महत्वाकांक्षा साझा करते हैं। पाकिस्तान को तुर्किये से तकनीक और अंतरराष्ट्रीय वैधता मिलती है, तो तुर्किये को पाकिस्तानी सैन्य मानव-बल, बाजार और दक्षिण एशिया में प्रवेश का मंच। साल 2000 के बाद से 1,500 से अधिक पाकिस्तानी अधिकारी तुर्किये में प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके हैं। नौसेना के स्तर पर MILGEM श्रेणी के युद्धपोतों और पनडुब्बियों के उन्नयन ने इस सामरिक जुड़ाव को और मजबूत किया है। पाकिस्तानी इंजीनियर तुर्किये के महत्वाकांक्षी पांचवीं पीढ़ी के फाइटर TAI KAAN पर काम कर रहे हैं जो तुर्किये को वैश्विक हथियार उद्योग में नया स्थान दिलाने की कोशिश है।

हम आपको बता दें कि तुर्किये और पाकिस्तान का सहयोग अब लड़ाकू विमानों के इंजीनियरिंग, प्रशिक्षण और तकनीकी क्षेत्रों तक फैल चुका है। तुर्किये ने पाकिस्तान के F-16 विमानों का उन्नयन किया, इंजन और स्पेयर पार्ट्स तैयार किए और पाकिस्तानी वायुसेना अधिकारियों को प्रशिक्षित किया। दोनों वायु सेनाओं ने 52 Super Mushshak ट्रेनर विमान का सौदा भी किया है। 2016 के तख्तापलट प्रयास के बाद जब तुर्किये पायलटों की कमी से जूझ रहा था, पाकिस्तान ने उसके पायलटों को प्रशिक्षित कर उसके वायुसेना ढांचे को सहारा दिया था। आज दोनों देश नए पीढ़ी के TF-KAAN फाइटर जेट पर मिलकर काम कर रहे हैं। इसी के साथ ASELSAN द्वारा JF-17 लड़ाकू विमानों के लिए उन्नत टार्गेटिंग पॉड और HAVELSAN द्वारा इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर ट्रेनिंग रेंज जैसे प्रावधान पाकिस्तान की क्षमताओं को प्रत्यक्ष रूप से बढ़ाते हैं और अप्रत्यक्ष रूप से भारत पर दबाव बनाते हैं।

दूसरी ओर, यह सुखद संकेत है कि भारत ने तुर्किये की इस सक्रियता को अनुत्तरित नहीं छोड़ा है। भारत–ग्रीस, भारत–साइप्रस, भारत–आर्मीनिया समीकरण आज पहले से कहीं अधिक मजबूत हैं, ये सभी तुर्किये के रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी राष्ट्र हैं। साथ ही इज़रायल, यूएई, सऊदी अरब और मिस्र जैसे देशों के साथ भारत की बढ़ती निकटता तुर्किये के क्षेत्रीय प्रभाव को सीमित करती है। सैन्य दृष्टि से भी भारत तुर्किये और पाकिस्तान दोनों की संयुक्त क्षमता से कहीं आगे है। इसलिए खतरा अस्तित्वगत नहीं है; बल्कि यह एक रणनीतिक व्यवधान है जो ड्रोन युद्ध, तकनीकी हस्तांतरण और क्षेत्रीय दबाव जैसे क्षेत्रों में भारत के लिए नए समीकरण पैदा कर रहा है।

सवाल उठता है कि भारत को करना क्या चाहिए? देखा जाये तो भारत को तकनीकी निर्यात नियंत्रण कड़े करने होंगे ताकि तुर्किये के रास्ते कोई भारतीय तकनीक पाकिस्तान तक न पहुँचे। साथ ही काउंटर-ड्रोन और इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर क्षमताओं को तेज़ी से विकसित करना होगा। इसके अलावा, क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वियों के साथ सामरिक संवाद मजबूत करना होगा। बहरहाल, तुर्किये और पाकिस्तान की साझेदारी भारत के लिए वास्तविक चुनौती तो है लेकिन इसका दायरा सीमित ही है।

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