छोटू चायवाला (व्यंग्य)

देश में सिर्फ शिक्षित बेरोजगार की संख्या ही नहीं बढ़ी है, बल्कि इन छोटुओं का उत्पादन भी बढ़ा है। झुग्गी-झोंपड़ियाँ, फुटपाथ, कच्ची बस्तियाँ—इन छोटुओं के उत्पादन केंद्र बन चुके हैं। शहर के रेस्टोरेंट, चायवाले, दुकानदार, फैक्ट्रियाँ—सबको इन छोटुओं की तलाश रहती है।
"अरे छोटू, इधर आ!"
"दो कट चाय लेकर आ!"
"खाने में क्या है, छोटू? सलाद लगा दे ना!"
"छोटू, जा! दो नंबर टेबल पर कपड़ा फेर के ऑर्डर लेकर आ!"
इन सभी वाक्यों में एक शब्द कॉमन है—"छोटू"। यह कोई चायवाला हो सकता है, किसी ढाबे पर वेटर हो सकता है, आपकी गाड़ी पोंछने वाला हो सकता है, सड़क पर भीख मांगने वाला हो सकता है, जूते पॉलिश करने वाला, फुटपाथ पर गुब्बारे बेचने वाला, या फिर किसी रईस के कुत्ते घुमाने वाला भी हो सकता है।
मंदिरों के बाहर भी आपको ये छोटू मिल जाएगा—हाथ में चंदन-तिलक की प्याली पकड़े हुए, श्रद्धालुओं के माथे पर रोली-तिलक लगाता हुआ। यह कोई भी हो सकता है, भाई! इसका नाम राम, रहीम, रहमान, सुलेमान, श्याम या एंथनी कुछ भी रखा गया होगा, लेकिन हम और आप इसे सिर्फ "छोटू" के नाम से जानते हैं। यही इसकी पहचान बन चुकी है।
कहीं छोटू अपने मालिक का हुक्म बजा रहा है, तो कहीं अपने बाप के धंधे में पिस रहा है। देश में विकास की आँधी कुछ इस तरह चली कि गाँवों से ये सारे छोटू उड़कर शहरों के किनारों पर आ गिरे। देश अब ट्रिलियन डॉलर इकॉनमी का फिगर छूने वाला है, लेकिन इसके साथ ही कितने खामोश रिकॉर्ड हम बनाते जा रहे हैं, उन्हें भी कमतर मत आंकिए, साहब!
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देश में सिर्फ शिक्षित बेरोजगार की संख्या ही नहीं बढ़ी है, बल्कि इन छोटुओं का उत्पादन भी बढ़ा है। झुग्गी-झोंपड़ियाँ, फुटपाथ, कच्ची बस्तियाँ—इन छोटुओं के उत्पादन केंद्र बन चुके हैं। शहर के रेस्टोरेंट, चायवाले, दुकानदार, फैक्ट्रियाँ—सबको इन छोटुओं की तलाश रहती है। और नेताओं को इनके माँ-बाप की, जो इन्हें समय-समय पर वोट देते रहें, बस!
जब छोटू खुद वोट देने के काबिल हो जाएगा, तब वो और छोटू पैदा करेगा और नेताजी को वोट-दान में सहयोग देगा। देश के विकास की रफ्तार में न जाने कितने छोटुओं के पहिए लगे हुए हैं, लेकिन किसी का ध्यान नहीं!
लेकिन सच कहें, तो इन्हीं छोटुओं के कंधों पर कई गृहस्थियों की गाड़ी टिकी हुई है। कितने घरों में अगर इज्जत की दो रोटियाँ पक रही हैं, तो इन्हीं छोटुओं की मेहनत और खून-पसीने की आग से। ये सिर्फ नाम के छोटे हैं।
कई घरों में तो ये घर के सबसे बड़े आदमी की भूमिका निभा रहे हैं। अब छोटू क्या करे?
बाप पियक्कड़, माँ किसी अमीर के घर के बर्तन माँजती है। छोटू भी सपने पालता है—बड़ा आदमी बनने के। उसने स्लमडॉग मिलियनेयर देखी है। चायवाले के प्रधानमंत्री बनने का किस्सा सुना है।
कहीं न कहीं, उसके दिल के किसी कोने में उम्मीद बाकी है कि शायद एक दिन वो भी कुछ बड़ा कर दिखाएगा। लेकिन यह सपना उसका अपना सपना है। उसने अपने सपने किसी और के भरोसे नहीं छोड़े।
ये सिर्फ नाम के छोटे हैं। जब से पैरों से घिसटना शुरू किया, तब से जिम्मेदारियों ने कान पकड़कर खींच लिया और कब बड़ा कर दिया, पता ही नहीं चला।
छोटू की एक छोटी बहन है, जिसे वह पढ़ाना चाहता है। क्योंकि उसने बाप के इरादे भाँप लिए हैं—वो चंद रुपयों में उसे एक ठरकी पड़ोसी को ब्याह देना चाहता है।
माँ की कमाई तो बाप दारू में उड़ा देता है। लेकिन सिर्फ दारू ही नहीं, बाप को खाने के लिए रोटी भी चाहिए। इसलिए छोटू को काम पर जाना ही होगा।
छोटू कैसे न जाए?
कब तक बाप की चिक-चिक और लात-घूंसों की मार सहेगा?
शिक्षा रोटी देगी, इसकी कोई गारंटी नहीं। लेकिन अगर छोटू पढ़-लिख गया, तो बाप की बात नहीं मानेगा, पिटेगा भी नहीं।
बाप ये कैसे सहन करेगा?
क्या छोटू को इसलिए पैदा किया था?
इसलिए बाप को पता है—छोटू को पढ़ाना नहीं, उसे काम पर ही भेजना है।
हो सकता है, यह मेरे वाले छोटू की कहानी हो।
आपके छोटू की कहानी थोड़ी अलग हो सकती है।
लेकिन मैं जितने भी छोटुओं से मिला हूँ, सबकी कहानी लगभग एक जैसी ही लगती है।
"लेकिन सरकार है न!" आप क्यों चिंता कर रहे हैं, भाई? सरकार ने इनकी चिंता करने के लिए बाल मजदूरी निषेध अधिनियम बना दिया है, दफ्तर खोल दिए हैं, उन दफ्तरों में अधिकारी बैठा दिए हैं, और कागज-कलम-दवात भी दे दिए हैं। अब बस चिंताएँ केवल माथे में ही नहीं, बल्कि कागज़ों पर भी उकेरी जा रही हैं। सरकार अपना अरण्य रोदन जारी रखेगी, क्योंकि इन 'छोटुओं' की चिंता सभी को है।
देखिए, ढाबे पर नेताजी का काफिला रुका है। नेताजी दिनभर का दौरा करते-करते थक गए हैं। जमीन से जुड़े हुए नेताजी हैं, इसीलिए अपने खास बिजनेसमैन मित्र के फाइव-स्टार होटल की दावत को ठुकराकर आज अपने ही कस्बे के ढाबे पर भोजन करेंगे। छोटू दौड़-दौड़कर नेताजी की सेवा में लगा हुआ है। आज छोटू बहुत खुश है! नेताजी ने उसके साथ एक फोटो भी खिंचवा लिया है—सबूत के तौर पर कि वे जनता के नेता हैं। नेताजी ने छोटू को ५० रुपये भी पकड़ा दिए। अब नेताजी "जिंदाबाद" के नारों के साथ काफिले को आगे बढ़ा रहे हैं।
ढाबे वाला भी छोटू से बड़ा खुश है। आखिर, नेताजी की सेवा में लगा छोटू अब और भी भाग्यशाली हो गया है—इस बार तनख्वाह के साथ उसे एक समय का खाना भी ढाबे से मिल जाया करेगा!
शीशे ऊपर चढ़ाए, एसी हवा खा रहे बाल कल्याण विभाग के अधिकारी भी इनकी दुर्दशा पर गहन चिंता व्यक्त कर रहे हैं।
चौराहे पर लाल बत्ती पर गाड़ी रुकी हुई है। छोटू भाग-भागकर शीशे साफ कर रहा है। शीशे इतने काले हैं कि छोटू को गाड़ी के अंदर का कुछ भी नजर नहीं आ रहा, यह भी नहीं कि कोई उसकी चिंता कर रहा है। लेकिन हाँ, चिंता हो रही है!
मैडम ने एक दस रुपये का नोट ड्राइवर को पकड़ा दिया—आखिर, शीशा साफ किया है तो मजदूरी तो बनती है न? खुद देंगी तो अभी शीशा नीचे करना पड़ेगा, बाहर की गर्मी और छोटू के सने-मैले कपड़ों से उठती गंध से एसी का मजा खराब हो सकता है!
आज बाल मजदूरी पर गहन विमर्श का एक सेमिनार आयोजित होना है। मैडम उसी में भाग लेने जा रही हैं। इन्हीं छोटुओं पर चिंताएँ व्यक्त होंगी, लेकिन बताओ, इन्हें कुछ खबर ही नहीं!
अपने भाषण में थोड़ा सा और चटखारापन लाने के लिए आज छोटू से यह मुलाकात बड़ी सार्थक रही। लेखकों, विचारकों, चिंतकों की लेखनी के लिए छोटू बड़ा उपयोगी साबित होता है!
एक हाथ में लेखनी और दूसरे हाथ में बीयर का मग—फिर तो छोटू ऐसे कागजों पर बहता है, नॉन-स्टॉप!
सरकार भी क्या करे? इन 'छोटुओं' पर कड़ी लगाम कसी जा रही है, लेकिन ये बड़े ज़िद्दी हैं—मानते ही नहीं! सेठ और मालिक के आगे गिड़गिड़ाते हैं कि उन्हें काम पर रख लें, "साहब, गृहस्थी भूखी मर जाएगी, बाप पीटेगा सो अलग!"
छोटू की पहचान और अस्तित्व चाय की घूंट में पड़े अदरक के स्वाद की तरह ही तो है—हर चाय की घूंट के साथ न जाने कितने छोटू अपनी पहचान की मिठास घोलते जा रहे हैं…!
– डॉ मुकेश असीमित
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