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कोरोना अगर इंसान हो जाए (व्यंग्य)
- संतोष उत्सुक
- नवंबर 12, 2020 19:10
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इंसानी ज़िंदगी की आज़ादी लौट रही है लेकिन असली आज़ादी अभी भी कोरोना के पास ही है, कहां प्रकट हो जाए कोई नहीं जानता। जब चाहे किसी को भी जकड लेता है, ऊंच नीच बिलकुल नहीं करता। बड़े से बड़े शक्तिशाली, वैभवशाली, धनशाली व्यक्ति को भी क्वारंटीन करवा सकता है।
नए नए शोध कोरोना के चरित्र की विशेषताएं खोज रहे हैं लेकिन रोज़ कुछ नया पता लगने से लगता है कुछ भी ठोस पता नहीं चल रहा। वह ऐसा हो सकता है वैसा हो सकता है, अंदाज़ा लगाने में वक़्त खराब किया जा रहा है क्यूंकि कोरोना अदृश्य है। इंसानी ज़िंदगी की आज़ादी लौट रही है लेकिन असली आज़ादी अभी भी कोरोना के पास ही है, कहां प्रकट हो जाए कोई नहीं जानता। जब चाहे किसी को भी जकड लेता है, ऊंच नीच बिलकुल नहीं करता। बड़े से बड़े शक्तिशाली, वैभवशाली, धनशाली व्यक्ति को भी क्वारंटीन करवा सकता है। हो सकता है कुछ दिन बाद यह शोध अध्ययन भी आ जाए कि जोर से हंसने, ज़रा सा रोने या गौर से देखने पर कोरोना हो सकता है। कुछ दिन बाद नई घोषणा की जाए कि दिमाग पर ज्यादा जोर डालने से कोरोना हो सकता है। क्या पता एक दिन ज्यादा इंसानी शोध, अध्ययनों व राजनीतिक घोषणाओं से प्रेरित होकर शातिर कोरोना इंसान से भी कुछ नया सीख कर अपनी प्रवृति ही बदल डाले और इंसान के साथ इंसान जैसा व्यवहार करना शुरू कर दे।
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ऐसा हुआ तो क्या होगा, सबसे पहले इसका पता किसे चलेगा। उम्मीद है सबसे पहले हमारे देश की राजनीति को इसका पता चल जाएगा क्यूंकि इस बारे उसके सुरक्षित गुप्तचर कई महीने पहले से सक्रिय है जो चौबीस घंटे आंखें फाड़े निगरानी कर रहे हैं कि इंसानी शोध और अध्ययनों से तंग आकर कोरोना कब इंसानों की तरह व्यवहार करना शुरू करे तो वे उसे काबू कर अपनी राजनीति के हिसाब से आम जनता के साथ व्यवहार करना सिखाएं। किसे बख्शना है और किसे टपकाना है समझा दें। उन्हें पता है अवगुण ग्रहण करना हमेशा आसान रहा है।
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कोरोना को यह अनुमान लगा लेगा कि उसके बदले हुए व्यवहार का ज़्यादा फायदा राजनीति ही उठाएगी तो वह भी ऐसे तत्व सीखेगा जो प्रयोग कर उसकी उपयोगिता बढे। कोरोना का व्यक्तिगत, सांप्रदायिक, जातीय, धार्मिक, राजनीतिक व आर्थिक फायदा उठाना शुरू करने की बेताबी उन्हें परेशान किए जा रही है। हालांकि फायदा उठाया जा रहा है लेकिन उन्हें उम्मीद है कि अभी तक पूरा शुभ लाभ नहीं उठाया जा सका। यह भी संभव है कोरोना के प्रभाव का बाज़ारी फायदा उठाने के लिए कुछ दिनों बाद बाज़ार में ऐसी टी शर्ट व मास्क मिलने लगें जिन पर लिखा हो ‘लिविंग विद कोरोना’, ‘माय कोरोना गौन’, ‘मेक कोरोन फ्रेंड’। इन्हें आम लोगों में मुफ्त बांटकर डर खत्म नहीं कम किया जा सकता है और जिस चीज़ का डर खत्म कर दिया जाए उस पर जीत दर्ज की जा सकती है। कोरोना के इंसानी रूप का राजनीतिक प्रचारक, डांसर के रूप में प्रयोग हो सकता है। हमें मानकर चलना होगा, कोरोना अगर इंसान हो जाए तो समझो इंसानियत का काम हो जाए।
- संतोष उत्सुक
विकास के माप, नाप और पोल (व्यंग्य)
- संतोष उत्सुक
- मार्च 4, 2021 18:05
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पर्यावरण दिवस पर सबंधित दर्जनों कानूनों के मेहनती निर्माताओं को स्मरण करते हुए हर साल हर मोहल्ले में प्लास्टिक के चार सौ बीस वृक्ष रोपने चाहिए। जिस क्षेत्र में प्रगति नहीं हुई, खुश रहने के लिए उसका भी जश्न मनाते रहना चाहिए।
विकास का एक माप यह है कि हर क्षेत्र में उत्पादन बम्पर हो लेकिन पेट आराम से न भर पाए। नाप यह है कि महत्त्वपूर्ण स्वास्थ्य पोषण रिपोर्ट में स्तर पिछले साल से भी नीचे खिसक जाए तो क्या। पोल खोलने से बेहतर है मानव विकास सूचकांक की प्रक्रिया होनी ही नहीं चाहिए ताकि दर्जनों परेशानियां लुप्त रहें और सामाजिक कार्यकर्ता, शोधकर्ता व विश्लेषकों का सिर दर्द न रहे या कम रहे। लैंगिक समानता के मानक भी अगर संतुष्ट करने लायक न हों तो घोषित करने से पहले अच्छी तरह से सेंसर किए जाने चाहिए। ईशोपनिषद में सबके लिए बराबर विकास की विशुद्ध भारतीय दृष्टि के संदर्भ उद्धृत किए जाने की मनाही होनी चाहिए। कुपोषण को राष्ट्रीय धर्म मान लेने बारे संजीदा विचार करना चाहिए ताकि जनसंख्या स्वत कम होते रहना बुरा न लगे।
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आर्थिक विकास केवल सड़क व भवन निर्माण को ही माना जाना उचित रहेगा। पर्यावरण दिवस पर सबंधित दर्जनों कानूनों के मेहनती निर्माताओं को स्मरण करते हुए हर साल हर मोहल्ले में प्लास्टिक के चार सौ बीस वृक्ष रोपने चाहिए। जिस क्षेत्र में प्रगति नहीं हुई, खुश रहने के लिए उसका भी जश्न मनाते रहना चाहिए। इससे उत्सवों की गणना भी बढ़ जाएगी। हमारे बीस करोड़ लोगों को मनोरोगों का शिकार बताने वालों को मनोरोग से ग्रस्त घोषित करने बारे प्रस्ताव पास करना चाहिए। इससे संबंधित प्रोजेक्ट्स के लिए करोड़ों रूपए का वित्त बर्बाद न कर सड़क और भवन निर्माण में लगा देना चाहिए। इतना विकास मानव ही तो कर रहा है फिर मानव विकास सूचकांक बनाने, बताने व जानने का औचित्य कहां रह जाता है।
हमारा समाज धार्मिक, पारम्परिक, सांस्कृतिक व सभ्य है फिर भी कुछ चीज़ें ज़िंदगी का हिस्सा नहीं हो सकती। इसके मद्देनज़र ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स अमान्य किया जा सकता है। हमारे अपनों के पास इतना पैसा है फिर भी प्रति व्यक्ति डीजीपी बहुत कम डॉलर है, यह हमारी सरलता, सादगी, सौम्यता व सहनशीलता की ख़ूबसूरती है। वैसे भी दो काम एक साथ नहीं हो सकते जैसे विकास और मानव विकास साथ साथ होने संभव नहीं। जब दो गज की उचित दूरी बरकरार रखना संभव नहीं हो पाया तो यह भी कैसे हो सकता है।
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पर्यावरण सम्बद्ध सूचना अनुसार भारत में सबसे अधिक लोगों की मृत्यु बताई जाती है इसका कारण यहां जनसंख्या का ज़्यादा होना और मेहनती और जांबाज़ होना है। अब ज़रूरत यह है कि वैश्विक भूखमरी सूचकांक, मानव विकास सूचकांक, समग्र पर्यावरण प्रदर्शन, विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक, स्वच्छता एवं पेयजल सूचकांक, जैव विविधता, प्रदूषक तत्व उत्सर्जन सूचकांक जैसे सूचकांकों को हमारी लोकतांत्रिक फ़िज़ा में प्रवेश करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए। स्वास्थ्य, पोषण, रोज़गार, कृषि, पर्यावरण, शिक्षा, न्याय, समानता जैसी दुविधाओं को हमेशा के लिए विचारों से बाहर कर देना चाहिए। विकासजी के रास्ते से कुछ तो अवांछित हटाना ही पड़ेगा।
- संतोष उत्सुक
इधर उधर के बीच में (व्यंग्य)
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त
- मार्च 2, 2021 18:38
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एक दिन सोसाइटी की मीटिंग हुई। मीटिंग में अधूरे पड़े कार्यों की समीक्षा की गयी। दूर के ढींगे हांकने वाले अध्यक्ष जी के काम नाम बड़े और दर्शन छोटे की तरह दिखाई दिए। उन्हें लगा कि आज उनकी खैर नहीं है। फट से उन्होंने अपना रंग बदला।
प्यारेलाल सरकाने और टरकाने का नुस्खा बड़ी सफाई से इस्तेमाल करते हैं। हर काम को कल पर टाल कर आज को आराम देह बनाने के लिए अपने टाइप के आधुनिक कबीर बनने का दावा करते हैं। उनकी मानें तो दौड़-धूप कर मेवा खाने से अच्छा बैठे-बिठाए रूखी सूखी खाना है। वे अपनी रेसिडेंस सोसाइटी के अध्यक्ष हैं। इसका उन्हें तनिक भी गुमान नहीं है। हाँ यह अलग बात है कि सुबह-शाम उन्हें सलाम न ठोंकने तथा जी हुजूरी करने से बचने वालों की खबर अच्छे से लेते हैं। ऊपर से ऐसे लोगों का काम मजे से लटका कर रखते हैं। लटकाने का यह सिलसिला तब तक चलता है जब तक लटकू महाराज उनसे माफी मांग नहीं लेते।
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वैसे तो प्यारेलाल जी ज्यादा पढ़े लिखे तो नहीं हैं लेकिन अहंकार पढ़े-लिखों से ज्यादा है। अपने गुमान का पारा सदा सातवें आसमान पर रखते हैं। कभी कभार पत्नी उनकी पढ़ाई को लेकर चुहल बाजी कर बैठती है तो तैश में तिलमिला उठते हैं और कहते हैं- रिक्शा चलाने वाला पढ़ा-लिखा न हुआ तो क्या हुआ बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में डाल कर खुद अंग्रेजों-सा फील करता है या नहीं? राधे लाल की पत्नी उन्हें छोड़ जमाना हो गया लेकिन मजाल कोई उन्हें महिला सशक्तीकरण पर भाषण देने से रोक कर दिखाए। व्यापार में डूबे हुए न जाने कितने विफलधारी व्यापार में सफलता के गुरु मंत्र नहीं बांटते क्या? खुद सिविल की परीक्षा की चौखट पर हजार बार माथा फोड़ने वाले कोचिंग सेंटरों में सिविल अधिकारी तैयार नहीं करते क्या? पावर में बने रहने के लिए दिमाग की नहीं समय को भुनाने की कला आनी चाहिए। पत्नी थक हार कर उनकी दलीलों के आगे नतमस्तक हो जाती है और अपने तीसमार खान पति की अड़ियलता को अपने कर्मों का फल मानकर मन मसोसकर रह जाती है।
एक दिन सोसाइटी की मीटिंग हुई। मीटिंग में अधूरे पड़े कार्यों की समीक्षा की गयी। दूर के ढींगे हांकने वाले अध्यक्ष जी के काम नाम बड़े और दर्शन छोटे की तरह दिखाई दिए। उन्हें लगा कि आज उनकी खैर नहीं है। फट से उन्होंने अपना रंग बदला। किसान नेता टिकैत की भांति आंखों में आंसू भर लिए और कहा- हमारे किसान दिल्ली की सीमाओं पर मर रहे हैं और तुम सब मुझसे हिसाब मांग रहे हो? मैंने सोसाइटी का कुछ फंड किराए पर ट्रैक्टर लेकर दिल्ली भिजवाने में खर्च कर दिए। बचा खुचा अयोध्या में भव्य मंदिर के निर्माण में लगा दिया। यह सुन सोसाइटी के सदस्य हक्के बक्के रह गए। इससे पहले कि सदस्य अध्यक्ष से सवाल करते उन्होंने तुरंत प्रत्येक सदस्यों के नाम वाले किसान समर्थक धर्मरक्षक का प्रमाण पत्र व्हाट्सएप कर दिया। सदस्यों को लगा हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा की तरह बिना दिल्ली गए किसान और बिना मंदिर गए आस्तिक बनना आज के समय की बड़ी उपलब्धि है। किंतु तभी एक सदस्य ने अध्यक्ष पर एक संदेह भरा सवाल दागा- किसान का समर्थन और मंदिर निर्माण के लिए दान जैसे कार्य दोनों पक्ष-विपक्ष का समर्थन करने जैसा विरोधाभासी कार्य है। वैसे हम सब किसकी और हैं?
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इस पर अध्यक्ष जी मुस्कुराए और बोले आज का समय पक्ष-विपक्ष में रहने वालों का नहीं दोनों और रहने वालों का है। ऐसे लोग सदा सुरक्षित और सुखी रहते हैं। वह दिन दूर नहीं जब स्त्री-पुरुष और अन्यों की तरह पक्ष-विपक्ष और वह उभय पक्ष की कैटेगरी होगी। मुझे सदस्य बनकर अध्यक्ष को और अध्यक्ष बनकर सदस्यों को डांटने का बड़ा शौक था। इसीलिए मैं सोसाइटी का सदस्य और अध्यक्ष दोनों हूं। जो दोनों और रहते हैं वही आगे बढ़ते हैं। यही आज के समय का सबसे बड़ा गुरु मंत्र है।
-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त
उचित दूरी का मतलब... (व्यंग्य)
- संतोष उत्सुक
- फरवरी 25, 2021 17:01
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अब पुराना गाना जुबान पर आ रहा है, मानो तो मैं गंगा मां हूं न मानो तो बहता पानी। हमने मां विषय पर लाखों कविताएं लिखी लेकिन गंगा को सामान्य पानी समझ कर गंदा करते रहे। अमिताभ जैसी आभा ने करोड़ों बार समझाया कि उचित दूरी बनाकर रखें...
कृपया उचित दूरी बनाए रखें, सुन सुन कर मेरा मन आज भी संगीतमय हो उठता है और गुनगुनाने भी लगता है, उचित दूरी क्या है यह उचित दूरी क्या है। यह वैसा ही लगता है जैसा हम किसी ज़माने में गाया करते थे, चोली के पीछे क्या है या ज़्यादा शरीफाना अंदाज़ में आज भी गा सकते हैं, पर्दे के पीछे क्या है पर्दे के पीछे क्या है। लेकिन हम गा ऐसे रहे हैं, परदे में रहने दो पर्दा न उठाओ। उचित दूरी का मतलब दो गज तो है लेकिन यह अभी तक भेद ही है कि दो गज की दूरी व्यवहार में कितनी है। इस दूरी के अपने अपने प्रयोग हैं जिन्होंने सबके भेद खोल दिए हैं। हम सब यही मानने लगे हैं कि जो उचित है वह अनुचित है और जो अनुचित है वह वास्तव में उचित है ठीक जैसे अनेक बार असवैंधानिक को वैधानिक मान लिया जाता है।
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अब पुराना गाना जुबान पर आ रहा है, मानो तो मैं गंगा मां हूं न मानो तो बहता पानी। हमने मां विषय पर लाखों कविताएं लिखी लेकिन गंगा को सामान्य पानी समझ कर गंदा करते रहे। अमिताभ जैसी आभा ने करोड़ों बार समझाया कि उचित दूरी बनाकर रखें, बार बार हाथ धोएं लेकिन सर्दी में सभी को गर्म पानी नहीं मिलता तभी शायद बार बार हाथ धोना मुश्किल है। जितनी दूरी उचित लगे, बनाकर रखी जाने बारे सलाह देने वाले भी ऐसी सलाह देते हैं जैसे, बीते न बिताए रैना बिरहा की जाई रैना। गलत चीज़ों से उचित दूरी न बनाए रखने के कारण डॉक्टर के पास जाना पड़ा, वहां एक कंपनी का विज्ञापन बोर्ड लगा हुआ था जिसमें लिखा हुआ था कि एक से डेढ़ गज की दूरी बनाए रखें। हमें यह किसी सूझ बूझ वाले समझदार व्यक्ति द्वारा रचाया लगा। उन्हें मालूम है आम क्लिनिक में खड़े होने की जगह भी नहीं होती तभी तो उचित दूरी की परिभाषा खुद ही बनानी ज़रूरी है। कोई पूछे, जनता के सेवक ने जनता के साथ उचित बातें करनी हों तो उचित दूरी बनाकर ही बात करेगा लेकिन उस उचित दूरी का निर्धारण उसे उस पुल के निर्माण की तरह करना होगा जो वह उचित जगह बनवाता है। मास्क लगाकर रखेगा तो मुस्कराहट कैसे अपनी वोट तक पहुंचाएगा। तभी यह सवाल बार बार होता है कि उचित दूरी क्या है, उचित दूरी का मतलब....
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एक सरकारी कार्यालय जाना हुआ जहां रोज़ काफी जनता आती है, वहां प्रवेश द्वार पर लिखे अनुरोध के अनुसार उचित दूरी तीन से छ फुट तक मानी गई। उचित शारीरिक दूरी को नए प्रायोगिक अर्थों में सामाजिक दूरी परिभाषित किया जा रहा है। यह एक सरकारी विवरणी की तरह हो गई है जिसमें नियंत्रक कार्यालय को उचित अंतराल पर पुष्टि भेज दी जाती है कि हमारे शाखा कार्यालय में अपाहिज व्यक्तियों के लिए रैंप का उचित प्रावधान किया गया है, लेकिन वास्तव में वहां सीमेंट की सीढियां ही रहती हैं। कहने और करने का व्यवहारिक फर्क रहता है। मुहब्बत कम होते ज़माने में, उचित दूरी का मतलब आई हेट यू ... भी तो नहीं हो सकता। जवाबों के बीच वही सवाल खड़ा है.......उचित दूरी क्या है।
संतोष उत्सुक
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