फेसबुक पर हरी भरी क्यारियां (व्यंग्य)

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संतोष उत्सुक । Jul 18 2022 5:12PM

वैसे पिछले सालों में लगाए पौधे निकालकर फेंकी गई थैलियाँ भी तो कुदरत के आँगन में कहीं न कहीं पड़ी हैं। किसी नदी के किनारे फंसी पड़ी हैं, कहीं मिटटी में दबी उलझी पड़ी है। सरकारजी खुद को अपने ही बनाए नियमों पर चलते दिखाने के लिए एक नेक काम कर सकती हैं।

आजकल फेसबुक पर क्यारियों में पौधे लगाए जा रहे हैं। हमारे एक पुराने परिचित अपने जन्मदिन और वृक्षारोपण मास यानी जब मानसून देर से आती है पौधे लगाकर प्रकृति का क़र्ज़ चुकाते हैं। इस बार उन्होंने पौधारोपण करते हुए फेसबुक पर इस आशय की पोस्ट डाली कि वे प्रकृति के क़र्ज़ की किश्त इस साल भी चुका रहे हैं। उन्होंने लिखा कि वे अन्य विक्रेताओं यहां तक कि सरकारी नर्सरीज़ द्वारा भी प्लास्टिक बैग्स बेचे जा रहे पौधों बारे थोड़े चिंतित हैं। उन्होंने फेसबुक के संजीदा पाठकों से हाथ जोड़कर पूछा कि क्या हमारे पास कोई दूसरा विकल्प है। इस पर एक जिज्ञासु फेसबुक पाठक ने उन्हीं से सवाल किया कि आपके पास कोई सुझाव हो तो बताईए। 

मेरे एक अन्य मित्र ने व्यंग्यात्मक अनुमान लगाया कि प्लास्टिक बैग उतने लाख खरीदे गए होंगे जितने लाख पौधे रोपने की घोषणा मंत्री ने की होगी। वैसे यह बेचारी संख्या अब करोड़ों में होती है। इतने पौधे कम, कम संयंत्रों और अन्य असुविधाओं के कारण उगाए नहीं जा पाते सो लगाए कैसे जाते होंगे। वरिष्ठ अधिकारियों ने कहा होगा, प्लास्टिक बैग संभाल कर रखे जाएं भविष्य में काम आएंगे। सप्लायर ने मिलनसारिता के अंतर्गत उसी प्लास्टिक मैटिरियल के बैग्स सप्लाई किए होंगे जो उसके पास स्टाक में होगी। अगर वह सरकारजी के सप्लाई आर्डर के अनुसार उस समय प्लास्टिक प्रयोग प्रावधानों के मुताबिक सप्लाई करता तो किसी को भी वांछित फायदा नहीं होना था। इसलिए अभी तक वही बैग्स चल रहे हैं। महा बेचारी पब्लिक का पैसा लगा हुआ है तो बैग्स प्रयोग करने ही है।

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वैसे पिछले सालों में लगाए पौधे निकालकर फेंकी गई थैलियाँ भी तो कुदरत के आँगन में कहीं न कहीं पड़ी हैं। किसी नदी के किनारे फंसी पड़ी हैं, कहीं मिटटी में दबी उलझी पड़ी है। सरकारजी खुद को अपने ही बनाए नियमों पर चलते दिखाने के लिए एक नेक काम कर सकती हैं। हर क्षेत्र में बचे हुए पालीथिन बैग्स इक्कठे कर उन्हें निजी नर्सरियों को दे सकती हैं जो अभी भी एक छोटा सा पौधा भी बहुत छोटे से प्लास्टिक कंटेनर में उगाकर बेच रही हैं। हालांकि इस योजना के लिए सरकारजी को फ़ालतू मेहनत करवानी पड़ेगी जोकि मुश्किल है। उससे आसान तो उन्हीं पुरानी पक्की थैलियों को प्रयोग करते जाना है। वैसे भी यह इतना विशाल राजनीतिक मुद्दा तो है नहीं कि विपक्ष, मंत्रीजी का इस्तीफा मांग ले या सरकारजी को गिराने की बात करे।

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यह बात चार सौ बीस प्रतिशत सच है कि प्लास्टिक हमेशा टिकने वाला बेहद सुलभ सस्ता मैटिरियल है। हम इसके आविष्कारक के हमेशा शुक्रगुजार रहेंगे कि वाह क्या चीज़ बनाई जो पर्यावरण से कभी न जाई।  फेसबुक पोस्ट के मूल लेखक को संबोधित करते हुए एक मजाकिया टिप्पणी भी की गई कि पौधों को प्लास्टिक बैग्स में उगाने, रखने और बेचने के मामले में भगवानजी से सिर्फ प्रार्थना कर सकते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि पौधे लगाना पर्यावरण बचाने की ओर निजी संजीदा, प्रशंसनीय प्रयास है। पौधे लगाने वाला व्यक्ति कुदरत के करीब जाकर ज़िंदगी को बेहतर समझने लगता है। धरती पर आकर, बरसात में वृक्षारोपण करना अच्छा लगता है। इतिहास में जाकर प्लास्टिक के आविष्कारक को भी कुछ नहीं कह सकते। सोचता हूं क्या क़ानून की शरण में जाने से वे पौधे प्लास्टिक के थैलों से बाहर आ सकते हैं। क्या हर साल करोड़ों वृक्ष लगाने का हुक्म देने वाली सरकारजी कुछ कर सकती हैं। खैर, बारिशें मुबारक।

- संतोष उत्सुक

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