आसमानी खेती में नए सूरज-चाँद उगाते हैं (व्यंग्य)

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हम आने वाले दिनों में कृषि की परिभाषा बदलकर उसे एक नया अर्थ देंगे। संसद के खेत में बढ़िया, ताकतवर और टिकाऊ काले-काले अक्षरों वाले कानून के बीज बोए हैं। इससे जमीन पर जीने वाले किसानों का तो नहीं पता, लेकिन आसमान में खेती करने वाले किसानों का जरूर विकास होगा।

नेताजी भाड़े पर बुलाए किसान की शक्ल वाले अपनी ही पार्टियों के टट्टुओं को संबोधित कर रहे थे। इनमें कुछ टट्टु ऐसे थे जिनका मानना था कि धान पेड़ पर उगता है और रोटियाँ सीधे जमीन खोदकर निकाली जाती हैं। ऐसे महानुभाव, ज्ञानवान, देश का बेड़ा पार लगाने वाले भाड़ु किसानों को संबोधित करते हुए नेताजी ने कहा कि अब वह दिन दूर नहीं जब हम धरती पर नहीं आसमान में खेती करेंगे। नए-नए सूरज, नए-नए चाँद उगायेंगे। सरसों की तरह तारे उगायेंगे। दुनिया के बड़े-बड़े देशों के किसानों को जो आधुनिक सुविधा उपलब्ध है, वो हम अपने उद्योगपति मित्रों को देंगे। आप लोग सिर्फ मुँह पर चुप्पी का ताला मारे उनका समर्थन कीजिए। फिर देखिए देश का किसान बिना खेती किए कैसे मिट्टी से सोना उगाता है। आप अपनी खेती में केवल उद्योगपतियों के स्वार्थ बोइए, बाकी का हम देख लेंगे। पहले की सरकारों को हल पकड़ना नहीं आता था। बीज बोना, फसल की उगाही करना और उससे व्यापार करना उनके बस की बात नहीं थी। वो तो हम हैं जो देश को खेती सिखा रहे हैं। वह भी ऐसी वैसी खेती नहीं, एकदम आसमानी खेती।

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हम आने वाले दिनों में कृषि की परिभाषा बदलकर उसे एक नया अर्थ देंगे। संसद के खेत में बढ़िया, ताकतवर और टिकाऊ काले-काले अक्षरों वाले कानून के बीज बोए हैं। इससे जमीन पर जीने वाले किसानों का तो नहीं पता, लेकिन आसमान में खेती करने वाले किसानों का जरूर विकास होगा। हम खेती को इतना आसान बना देंगे कि अजन्मे शिशु भी अभिमन्यु की भाँति माँ के गर्भ से आसमान में खेती करने का अलौकिक ज्ञान लेकर पैदा होंगे। तब इन कृषि विश्वविद्यालयों, शिक्षकों, वैज्ञानिकों की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। हम इन सबकी छुट्टी कर देंगे। ऐसे क्रांतिकारी परिवर्तन करने से हमें डर नहीं लगता। हमें पूरा भरोसा है जब तक ईवीएम हैं तब तक हम हैं। हम चुनाव लड़ते नहीं जीतते हैं। जीतने की हमारी पुरानी लत है।

देखा जाए तो किसानों की बातें करने वाले बड़े निर्दयी होते हैं। हम निर्दयी नहीं सहृदयी हैं। हम आपके मान-सम्मान का बड़ा ख्याल रखते हैं। अब वह दिन दूर नहीं जब आपके उत्पादन सीधे शॉपिंग मॉल में बिकेंगे। इससे उत्पादन की दशा बदलेगी। सड़क किनारे, फुटपाथों या चूहों के गढ़ सरकारी खाद्य भंडारों में अपना रोने वाले उत्पादन उद्योगपतियों की गोदी में बैठकर आपके विकास का झूला झूलेंगे। बिकेंगे शॉपिंग मॉल में लेकिन पैसा उगेगा स्विज बैंक में। आपके उत्पादन से इतना पैसा उगेगा कि उसका हिसाब लगाने के लिए आपकी सात पुश्तें भी नाकाफी साबित होंगी। ये कमिटियाँ, ये रिपोर्टें, ये समर्थन मूल्य– सब बकवास है। आप बिना जिद किए हमारी गोदी में बैठ जाइए, हम आपको उद्योगपतियों का ऐसा झुंझुना देंगे कि कृषि करने के लिए आपका मन मचल उठेगा। जहाँ तकसमर्थन मूल्य की बात है, तो उसे भूल जाइए। ये आंदोलन, प्रदर्शन, नाटक से हम जैसे लोगों के पेट का पानी नहीं हिलेगा। क्योंकि यह सब करके ही हम यहाँ तक आये हैं। इसलिए दादा जी को खाँसी सिखाने की गुस्ताखी बिल्कुल न करें।

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हम आपको किसान नहीं महान बनाना चाहते हैं। देश का अन्नदाता नहीं धनदाता कहलवाना चाहते हैं। और कब तक आंदोलन, प्रदर्शन, ये नाटक करोगे? अब यह ड्रामा बंद करो। हमारे लिए न सही अपने देश का तो ख्याल करो। हम तो कागज की खेती, कागज के बीज, कागज की फसल उगाकर कागज की मुद्रा कमा कर जैसे-तैसे पेट भर लेंगे, लेकिन तुम्हारा पेट कैसे भरेगा? तुम देश के लिए किसान हो सकते हो, लेकिन हमारे लिए मतदाता से अधिक कुछ नहीं। इसलिए भलाई इसी में है कि हवा के रुख के साथ हमारा हाथ थाम लो। कम से कम किसान बने रहने का तमगा तुम्हारे माथे से तो नहीं छिनेगा।

-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त'

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