सर्वज्ञानी (पंजाबी कहानी)

गुलमर्ग, कुकड़नारा, पहिलगाम, सोनमर्ग, आदि सभी स्थान हम घूम चुके थे, अब तो अंतिम दो दिनों के लिए हम श्रीनगर के एक होटल में रुके हुए थे। सीटें आरक्षित करवा चुके थे। और परसों हमें चले जाना था।

हमने कुछ साहित्य की बातें कीं, कुछ वर्तमान राजनैतिक स्थिति के विषय में, कुछ कश्मीरी और पंजाबी जीवन के बारे में और फिर हमारी बातें खत्म हो गईं। नूर मुहम्मद ने हुक्का पीना शुरू कर दिया और मुझे हुक्के की गुड़गुड़ाहट की आवाज से नींद आने लगी। मैं भी दिन भर चलते चलते थक गया था और नूर मोहम्मद भी अपने दफ्तर के काम से फुर्सत पाकर आठ बजे ही घर लौटा था।

हम पिछले दो महीने से कश्मीर में थे, पर नूर मोहम्मद से आज पहली बार मिले थे। अचानक मुलाकात हो गई थी और वह जबरदस्ती मुझे एक रात रुकने के लिए अपने घर ले आया था। उसे बड़ी भारी शिकायत थी कि हम इतने दिनों से कश्मीर में रह रहे थे और उसके बारे में खोज नहीं की। वास्तव में मुझे ध्यान ही नहीं था कि नूर मोहम्मद आजकल श्रीनगर में होगा। आज से दस साल पहले केवल दो महीने के लिए बम्बई में हमने एक दफ्तर में एकसाथ काम किया था और उसके बाद उससे आज पहली बार मुलाकात हुई थी।

गुलमर्ग, कुकड़नारा, पहिलगाम, सोनमर्ग, आदि सभी स्थान हम घूम चुके थे, अब तो अंतिम दो दिनों के लिए हम श्रीनगर के एक होटल में रुके हुए थे। सीटें आरक्षित करवा चुके थे। और परसों हमें चले जाना था।

मेरी बीवी नूर मोहम्मद उसकी बीवी से पहली बार मिली थी, मैं तो बम्बई में ही, पहले मिल चुका था। दोनों ही बड़े नेक दिल, मिलनसार और मेहमानवाज थे। दो समय नमाज पढ़ने वाले, रोजा रखने वाले पक्के मुसलमान थे। नूर मोहम्मद की मां, उसकी बहन और बड़ी लड़की भी थी, उन्होंने भीतर गप्पें मारना शुरू कर दी थीं और हम बाहर वाले कमरे में बैठे बातें करते रहे।

नूर मोहम्मद बड़ी प्यारी उर्दू बोलता था और मुझे उसके साथ उर्दू में बातें करने का मजा आ रहा था। उसके साथ बातें करते हुए मुझे अपना एक बुजुर्गवार दोस्त गुलाम जीलानी याद आता रहा, जिस के साथ मैंने बम्बई में कई साल गुजारे थे। इसी तरह वह भी बातें किया करता था, बड़ी दिलचस्प बातें। वह कई बार सारी दुनिया के चक्कर लगा चुका था। जिंदगी का विशाल अनुभव होने के कारण उसके साथ बातों का खजाना कभी भी खत्म नहीं होता था। गुलाम जीलानी की आयु वैसे पचास से ऊपर थी, पर बड़ा जिंदा दिल इंसान था। अगर लड़कियों की बातें आ जायें तो रूस की लड़कियां, जर्मन की लड़कियां, फ्रांसीसी लड़कियां अंग्रेज, अमेरिकी, जापानी, चीनी हर देश की लड़कियों की शक्लें, सूरतें और फैशनों के विषय में चार-चार घंटे तक बड़ी दिलचस्प तकरीर रहता। क्या मजाल कि कोई उकताहट महसूस करे।

पर नूर मोहम्मद की बातें तो झट ही खत्म हो गई थीं और बात करने से अधिक दिलचस्पी वह हुक्के के दम में ले रहा था। दम लगाते लगाते कभी कभी कोई खूबसूरत गठा हुआ वाक्य बोल देता था फिर बड़ी बेसब्री से मेरी बात का इंतजार करने लग जाता था। मैं कुछ देर बाद उल्टी सीधी एक आध बात कहता था। पर मेरे पास करने की कोई बात थी ही नहीं। बम्बई के दिनों की कोई पुरानी बात याद करने की कोशिश करता था जो इस अवसर पर जम सके, पर कम्बख्त दस साल पुरानी बातें याद भी तो नहीं आ रही थीं।

पिछले दस वर्षों में उसकी बात कभी नहीं की थी। इसीलिये वह ताज्जुब कर रही थी कि यह कौन सा इनका छुपा हुआ दोस्त निकल आया था।

नूर मोहम्मद हुक्का पी रहा था, और मैं कभी दीवार पर लटकती तस्वीरें देखने लग जाता, कभी कमरे में सलीके से रखे हुए फर्नीचर की ओर ध्यान ले जाता, कभी रैक पर पड़ी उर्दू किताबों के नाम पढ़ने की कोशिश करता और कभी ऊंघने लग जाता। नूर मोहम्मद ने अभी तक सोने का कोई बंदोबस्त भी नहीं किया लगता था। पता नहीं अब कब सोना नसीब होना था।

मैं सोच रहा था कि केवल मैं ही यहां ऐसी स्थिति में नहीं बैठा हुआ था मेरी बीवी की भी यही हालत होगी। नसीमां तो शायद थोड़ी बहुत उर्दू जानती थी, पर नूर मोहम्मद की मां, बहन और बेटी तो कश्मीरी के सिवा कुछ भी नहीं जानती थीं, नसीमां बेचारी भी भला कितनी बातें कर सकती थी। वह भी बातें करती-करती थक गयी होगी। मां, बहन और बेटी तो बहुत तंग आ चुकी होगी। नसीमा और मेरी बीवी की बातें तो उनके पल्ले कुछ भी नहीं पड़ रही होंगी। शायद उन तीनों ने आपस में कश्मीरी में ही बातें करनी शुरू कर दीं हों। पर फिर मेरी बीवी तो सोचती होगी कि कहां फंस गई हूं। उसे भी जरूर मेरी तरह ही नींद आ रही होगी। पर वे सारी उसका पीछा कहां छोड़ेंगी। वह तो उनकी महाफिल थी। बातें पता नहीं कब समाप्त करेंगी।

नूर मोहम्मद ने दो-तीन जोर के कश लगाकर हुक्के की नली अलग कर दी और कुछ सोचने लग गए। पर नूर मोहम्मद सोचता-सोचता ऊंघने लग गया और फिर नीचे कालीन पर ही लेट गया। मैं अब तक यही समझ रहा था कि जरा स्थिति बदलकर वह जरूर कोई बात कहेगा। पर उसने कोई बात न की और थोड़ी देर बाद खर्राटे भरने लगा। मुझे यूं लगा जैसे इस हुक्के की तमाखू में जरूर कोई नशे वाली चीज होगी जिसने नूर मोहम्मद को इस तरह कुछ मिनटों में ही दुनिया से बेखबर कर दिया था।

मेरा मन किया कि भीतर वाले कमरे में चला जाऊं, जहां मेरी बीवी चार औरतों में घिरी बैठी थी। पर फिर कुछ सोचकर रुक गया। यह मुसलमान का घर था, और औरतों के कमरे में किसी बाहरी आदमी का जाना बुरा लगता था। फिर मैं जाऊं कहां? इस कमरे में बैठना तो अब भारी हो गया था। नूर मोहम्मद के खर्राटे सारे कमरे में गूंज रहे थे और इनकी आवाजों में भी कुछ क्षण भी यहां रुकना मेरे लिए असंभव था। मैं टहलता हुआ बाहर लॉन में आ गया। वहां बहुत खूबसूरत-खूबसूरत फूल झूम रहे थे। फूलों की सुगंध के बीच चांदनी रात में हल्ली-हल्की ठंडी हवा बड़ी खुशगवार लग रही थी।

हुक्के की गुड़गुड़ाहट तमाखू की सांस घोंटती गंध, और फिर नूर मोहम्मद के उल्लू की आवाज जैसै खर्राटे, मुझे ऐसा लगा जैसे किसी अंधेरी रात में निकल कर मैं इस सुहावने स्थान पर पहुंच गया। फूलों के पास ही एक बेंच पड़ी हुई थी। मैं उस पर बैठ गया। खामोश और शांत वातावरण था। मुझे रह-रह कर अपनी बीवी का ध्यान आ रहा था जो बेचारी चार औरतों के बीच घिरी बैठी होगी। वह उस माहौल में से निकलना चाहती होगी, पर उसका वश नहीं चल रहा होगा, हो सकता है वे चारों औरतें भी बारी-बारी हुक्के का स्वाद ले रही हों। यह तो मुझे याद था कि नसीमा बम्बई में भी हुक्के को कई-कई घंटे नहीं छोड़ती थी। तमाखू की सांस घोटती हवा तो मेरी बीवी कभी भी बरर्दाश्त नहीं कर पा रही होगी। कहीं वह बेहोश न हो जाये। कहीं उसे कुछ हो न जाये। मैं मजबूर था। मैं उस भीतर वाले कमरे में जा ही नहीं सकता था।

मैं बैंच से उठकर टहलने लग गया। मैं जब कुछ कदम ही आगे बढ़ा तो बराण्डे में बच्चों के हंसने की आवाज आई। एक आवाज तो मेरी जानी पहचानी थी। मेरे बच्चे राजू की आवाज। मैंने देखा बराण्डे में राजू और नूर मोहम्मद की साढ़े तीन वर्ष की छोटी बच्ची नजो बातें कर रहे थे। बातें करते-करते वह खिलखिला कर हंस पड़ते थे और हंसने के बाद फिर बातें करने लग जाते थे। मैं हैरान था कि वे कौन सी बातें कर रहे थे। कौन सी हास्य भरपूर बातें थी उनकी। हमारा चौदह साल का राजू पंजाबी में बातें कर रहा था और नजो कश्मीरी में। पर न जाने कैसे वह एक दूसरे की बातें समझ रहे थे। वे एक दूसरे का हुंकारा भरते थे, एक दूसरे की बात बीच में ही काट कर अपनी बात करने लग जाते थे। बातें करते हुए हंसते थे। और फिर लगातार कितनी देर से वे बातें कर रहे थे। जरा भी एक दूसरे से उकताये एक दूसरे को सारी रात सुनाते रहेंगे। सारी रात उनको बातों की कमी नहीं महसूस होगी।

मैं पास जाकर एक पौधे के पीछे खड़े होकर इनकी बातें सुनने लगा। राजू की बातें तो मैं समझ रहा था पर नजो की तोतली कश्मीरी बोली मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आ रही थी। नजो बोलती जा रही थी और राजू हू-हू ना करता जा रहा था, जैसे वह उसकी बातों का सारा मतलब समझ रहा हो। जैसे वह उसकी बातों में पूरा रस ले रहा हो। जब नजो ने बात समाप्त की तो राजू बोलने लगा। अब नजो उसी दिलचस्पी के साथ हुंकारा भर रही थी, जिस तरह थोड़ी देर पहले राजू भर रहा था। मैं राजू की बातें सुन रहा था, अपने घर की बातें, अपनी सैर की बातें। राजू की बातें अपने खिलौनों की बातें, अपनी मां की बातें, अपने पिता की बातें पर केंद्रीत थीं और नजो उन बातों में रमी हुई थी। बातें सुनती हुई वह राजू की नाचती आंखों में देख रही थी। कभी वह राजू को अपनी नन्हीं बाहों में भर लेती, कभी राजू उसके बालों पर हाथ फेरता। उसका प्यार ले लेता था।

राजू और नजो अपनी बातों में मगन रहे और मैं फूलों की खुशबू लेता हुआ बेंच पर आ बैठा।

अनुवादकः स्व. घनश्याम रंजन

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