ग़लती तो बीमार होने वाले की है (व्यंग्य)

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संतोष उत्सुक । Jul 26 2019 4:09PM

मरीज़ यह नहीं समझते कि लोकतन्त्र की सामाजिक विकास की योजनाओं को ईमानदारी से लागू करने के प्रावधानों के अंतर्गत उन्हें सिर्फ जीवित रहने की सुविधा मिल सकती है। उन्हें और उनके बच्चों को बीमारी में क्या, कभी भी खाली पेट या भरे पेट, महंगी लीचियाँ नहीं बलिक डबल रोटी खानी चाहिए।

कहीं दुर्घटना हो जाए और ज़्यादा भीड़ के कारण अधिक लोग मारे जाएं, ज़ख्मी हो लें तो कुल मिलाकर ग़लती बुरे वक़्त या दुर्घटना की नहीं बलिक वहां जमा हुए आम लोगों की मानी जानी चाहिए। उन्हें किसने बुलावा भेजा था कि वहां जाकर इक्क्ठे हो जाओ और दुर्घटना होने में मदद करो। यही हाल आम बीमारों का है। उन्हें बार-बार समझाने पर भी यह बात पल्ले नहीं पड़ती कि गरीब लोग बीमार होकर सरकारी हस्पताल में मरने के लिए भर्ती हो जाएंगे तो पूरा देश परेशान हो जाएगा। ग़लती आम आदमी की है जो अपने स्वास्थ्य का बिलकुल ध्यान नहीं रखते। बीमार होकर हस्पताल पहुंच जाएंगे, फिर उनसे मिलने वाले आ जाएंगे। उनको स्वस्थ रहते हुए  यह पहाड़ा याद करते रहना चाहिए कि उनकी जान सस्ती है, वोट लिए जा चुके हैं, इसलिए अब और भी सस्ती है। ऐसे समय में गरीबी अनाथ हो जाती है।  

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मरीज़ यह नहीं समझते कि लोकतन्त्र की सामाजिक विकास की योजनाओं को ईमानदारी से लागू करने के प्रावधानों के अंतर्गत उन्हें सिर्फ जीवित रहने की सुविधा मिल सकती है। उन्हें और उनके बच्चों को बीमारी में क्या, कभी भी खाली पेट या भरे पेट, महंगी लीचियाँ नहीं बलिक डबल रोटी खानी चाहिए। उन्हें हरे पत्ते खाने की आदत डालनी चाहिए, रोजाना योग भी करना चाहिए। योग गुरुओं को भी गरीबों के लिए ऐसे आसनों का आविष्कार करना चाहिए कि सुबह उठकर पंद्रह मिनट कर लें तो अगली सुबह तक भूख महसूस न हो। गरीब लोग बार बार भूल जाते हैं कि हस्पताल में सुविधाएं उपलब्ध करवाना इतना आसान नहीं है। बीमार होने वालों को यह भी समझना चाहिए कि सरकार को और भी ज़रूरी काम होते हैं। लोकतान्त्रिक प्राथमिकता के हिसाब से ही विकासजी काम करवाते हैं। सिस्टम बदलना कभी आसान नहीं होता है। 

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सरकार का चलना फिरना, पैदल तो नहीं हो सकता। यह काम व्यावहारिक नहीं होता, तभी तो 72 किमी आने में 17 दिन लग जाते हैं। देश डिजिटल हो रहा है इसलिए सामाजिक सुविधा सेवा के अंतर्गत, नेताओं का दर्द अब आनलाइन उपलब्ध है। इन्हें ऐसे दुखद समय में भी विज्ञापन और प्रेस रिलीज़ देनी पड़ती है। ज़िम्मेदार तो वही होता है जो अब शासक नहीं है, नासमझों की सरकार नहीं रहती, वर्तमान शासक हमेशा समझदार होता है। बुद्धिमान को नहीं दोष गुसाईं। बचपन में ही मर गए ठीक हो गया, बड़ा होकर भी क्या जीवन जीते। मरने से मुआवजे का लाभ मिलता है जीवित रहते तो दवाई भी न मिलती। गरीब आदमी को इच्छा मृत्यु का अधिकार सरकारी राशन की दुकान पर मिलना चाहिए। ग़रीबी का अभिशाप, मरकर आराम से ख़त्म हो सकता है, विकास के लिए ग़रीबी ख़त्म करना ज़रूरी नहीं है। इसलिए साबित हुआ कि गलती तो बीमार होने वालों की है।  

- संतोष उत्सुक

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