बुरा न मानो गोरखधंधा है (व्यंग्य)
भारत में चुनाव के दौरान जबरदस्त तमाशे देखने को मिलते हैं। बड़ी सभाएं होती हैं, तो छोटी बैठकें भी। सोशल मीडिया पर असली विज्ञापन से लेकर फर्जी खबरों तक का बोलबाला रहता है।
भारत में चुनाव के दौरान जबरदस्त तमाशे देखने को मिलते हैं। बड़ी सभाएं होती हैं, तो छोटी बैठकें भी। सोशल मीडिया पर असली विज्ञापन से लेकर फर्जी खबरों तक का बोलबाला रहता है। प्रत्याशी जूते पॉलिश और तेल मालिश से लेकर झाड़ू लगाने तक को तैयार रहते हैं। इसलिए कई पर्यटन एजेंसियां चुनावी पर्यटन को भी भुनाने लगी हैं।
चुनाव में घोषणा पत्र बनाना भी एक बड़ा काम होता है। कई नेता और पार्टियां इसमें समय खराब नहीं करतीं। वे अपने नाम और काम को ही घोषणापत्र बताती हैं। कुछ लोग इसे पुराना कपड़ा बताते हैं, जिसे बरतन उतारने के बाद रख दिया जाता है।
पर कई पार्टियां इसे गंभीरता से लेती हैं। उनके नेता इसके लिए महीनों मानसिक कसरत करते हैं। फिर भी कई बार ऐसे वायदे किये जाते हैं, जिनका कोई सिर-पैर नहीं होता। कुछ को पढ़कर हंसी आती है या सिर पीट लेने का मन होता है। पर ‘‘बुरा न मानो होली है’’ की तरह चुनाव के बाद सब माफ हो जाता है।
किसानों की कर्जमाफी ऐसा ही आश्वासन है। वो पूरा कितना होता है, ये सरकार जाने या किसान। क्योंकि एक के पूरा होते ही दूसरे कर्ज की तैयारी शुरू हो जाती है। कर्जा लेना ही न पड़े, ऐसा प्रबंध कोई नहीं करता। यदि किसान कर्जा लेगा नहीं, तो फिर पार्टियों के पास माफ करने को बचेगा ही क्या ?
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मोबाइल, लेपटॉप, साइकिल, गैस कनेक्शन, चूल्हा, मंगलसूत्र आदि न जाने कितने आश्वासन पार्टियां देती हैं। एक पार्टी ने बारहवीं पास लड़कियों को स्कूटी देने का वायदा किया है; पर उसे चलाने को पैट्रोल चाहिए। तो उसके लिए अगला चुनाव है। इस बार स्कूटी, अगली बार तेल। इस चुनाव में खम्भा, अगली बार तार और उससे अगली बार बिजली। बस इसी तरह नेताओं और पार्टियों की चुनावी नैया पार हो रही है।
पर राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी ने एक रोचक वायदा किया है। असल में वहां नाथ सम्प्रदाय के लाखों अनुयायी लाखों रहते हैं। कई जगह उनके वोट से ही हार-जीत होती है। उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उनके मुखिया हैं। उन्होंने कहा है कि सरकार बनने पर ‘गोरखधंधा’ शब्द का प्रचलन बंद किया जाएगा। मैंने इसका अर्थ ढूंढा, तो पता लगा कि जो दिख रहा है, असल में उससे कुछ अलग होना; या नकल को बिल्कुल असल जैसा बनाकर प्रस्तुत करना ही गोरखधंधा है।
ये शब्द कहां से आया, इस पर कई साहित्यकार मित्रों की अलग-अलग राय थी। हमारे प्रिय शर्मा जी का मानना है कि भारत में पूरी चुनाव प्रणाली ही गोरखधंधा है। चुनाव से पहले प्रत्याशी गाय जैसा विनम्र दिखता है; पर फिर वह खूंखार शेर हो जाता है। चुनाव के समय 24 घंटे क्षेत्र में घूमने वाले नेता जी बाद में गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो जाते हैं।
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गुप्ता जी का मत है कि नेता जी के चुनाव से पूर्व जुड़े हुए हाथ जीतने के बाद जनता की जेब में पहुंच जाते हैं। चुनाव से पहले वे हर किसी का फोन खुद उठाते हैं; पर बाद में उनके सचिव। पहले वे हर समय उपलब्ध रहते हैं; पर बाद में दिन भर किसी जरूरी मीटिंग या बाथरूम में पाये जाते हैं।
जैसे दवा खाने से पहले और बाद के विज्ञापन छपते हैं, बस ऐसा ही चुनाव से पहले और बाद का परिदृश्य होता है। ये गोरखधंधा नहीं तो और क्या है ? योगी जी इस असली गोरखधंधे पर रोक लगाएं, तब हम उन्हें असली योगी जानें।
-विजय कुमार
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