वो गाली ही क्या जो दिल तक न पहुंचे (व्यंग्य)

neta
Prabhasakshi

गाली का सबसे बड़ा मंच राजनीति है। नेता जब मंच पर खड़े होते हैं तो शेर-ओ-शायरी से जनता नहीं जागती। लेकिन जैसे ही गाली की बौछार होती है, भीड़ में बिजली दौड़ जाती है। गाली सुनकर जनता ऐसा पुरज़ोर ताली बजाती है मानो कोई पाँच सौ का नोट हवा में लहराया गया हो।

गाली भारतीय जीवन की सार्वभौमिक भाषा है। यह वही भाषा है जो संसद से लेकर सब्ज़ी मंडी तक समान अधिकार से बोली जाती है। मज़ा यह कि इसमें किसी अनुवादक की ज़रूरत नहीं पड़ती। चाहे आप बिहारी हों या पंजाबी, तमिल हों या मराठी—गाली का अर्थ सब समझते हैं। यह इतनी लोकतांत्रिक है कि बच्चे खेलते-खेलते सीख जाते हैं, और बुज़ुर्ग मरणासन्न होते हुए भी अंतिम सांस तक गाली निकाल सकते हैं। गाली न जाति देखती है, न धर्म, न भाषा—यह समता का सच्चा सिद्धांत है। हमारे संविधान निर्माताओं ने अगर सचमुच समानता का आधार ढूँढ़ा होता तो संविधान की पहली पंक्ति होती—“भारत गाली प्रधान गणराज्य है।” गाली वह पुल है जो अमीर-गरीब, पढ़े-लिखे और अनपढ़, शहर और गाँव, नेता और जनता—सबको जोड़ता है।

गाली का समाजशास्त्र देखिए—जहाँ तर्क समाप्त हो जाता है, वहाँ से गाली शुरू होती है। बहस में कोई ठोस दलील न मिले, तो आदमी गाली फेंक देता है। यह भाषा का ब्रह्मास्त्र है। गाली उस अनपढ़ के हाथ की बंदूक़ है जिसके पास शब्द कोष नहीं है और उस पढ़े-लिखे की ढाल है जिसे अपनी विद्वत्ता बचानी है। दिलचस्प यह है कि गाली केवल क्रोध से नहीं निकलती, प्रेम से भी निकल सकती है। कोई दोस्त मिलते ही कहता है—“अबे गधे!” और दूसरा हँसते-हँसते गले लग जाता है। सोचिए, गाली इतनी लचीली है कि झगड़े में भी चलाई जा सकती है और दुलार में भी। यही उसकी महानता है। समाज में इसे गाली कहकर नीचा दिखाया जाता है, लेकिन असल में यह भाषा की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति है।

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गाली का सबसे बड़ा मंच राजनीति है। नेता जब मंच पर खड़े होते हैं तो शेर-ओ-शायरी से जनता नहीं जागती। लेकिन जैसे ही गाली की बौछार होती है, भीड़ में बिजली दौड़ जाती है। गाली सुनकर जनता ऐसा पुरज़ोर ताली बजाती है मानो कोई पाँच सौ का नोट हवा में लहराया गया हो। और मजेदार यह कि गाली जितनी असभ्य होती है, उसका स्वागत उतना ही सभ्य तरीके से होता है—लोग तालियाँ, सीटियाँ, जयकारा करते हैं। राजनीति में गाली एक रणनीति है। गाली के बल पर वोट खींचे जाते हैं, सरकारें गिरती हैं और गठबंधन बनते हैं। नेताओं के लिए गाली तलवार की धार है। बिना गाली के भाषण वैसा ही है जैसे बिना घी का हलवा—स्वाद तो है, लेकिन ठसक नहीं।

गाली का सांस्कृतिक पक्ष भी कम अद्भुत नहीं है। जितना गर्व यूरोप वाले अपने शेक्सपियर पर करते हैं, उतना ही गर्व भारतीय जनता अपने गाली-भंडार पर कर सकती है। हर राज्य, हर बोली, हर जाति की अपनी-अपनी डिक्शनरी है। कोई अपनी गालियों में खेती-बाड़ी मिलाता है, कोई पशु-पक्षियों की बारात उतार देता है, तो कोई स्त्री-वर्ग को खींच लाता है। गाली में रचनाशीलता की ऐसी विविधता मिलती है कि कवि सम्मेलन भी मात खा जाए। कोई कहेगा—“यह असंस्कृत है।” पर सच मानिए, लोक-संस्कृति का असली रंग वहीं दिखता है। किसान खेत में गाली देकर हल चलाता है, मज़दूर गाली देकर बोझ ढोता है और ड्राइवर गाली देकर ट्रक दौड़ाता है। बिना गाली यह देश आधे घंटे भी नहीं चल सकता।

अब आप कहेंगे—गाली बुरी चीज़ है। मैं कहता हूँ—नहीं, गाली तो आत्मा की शुद्धि है। सोचिए, आदमी ऑफिस में बॉस की डाँट खाकर घर आता है। पत्नी ने नमक ज़्यादा डाल दिया। अब बेचारा क्या करे? अगर गाली न हो तो वह या तो हार्ट अटैक से मर जाएगा या अख़बार में कविता लिखने लगेगा। गाली उसे बचाती है। गाली निकालकर आदमी का गुबार बाहर आ जाता है। गाली, मन का वेंटिलेशन है। यह भावनाओं का सेफ्टी वाल्व है। गाली इसलिए अमर है, क्योंकि यह मानसिक स्वास्थ्य की टैबलेट है। डॉक्टर न लिखें, किंतु गाली दिल का ब्लड प्रेशर नियंत्रित करती है। देखिए, कितने ‘हेल्थ बेनिफिट्स’ हैं गाली के—सोसायटी उसके बिना कब की पागलखाने में पहुँच चुकी होती।

गाली की आर्थिक उपयोगिता भी कम नहीं है। यह समाज की सबसे सस्ती और प्रभावकारी अभिव्यक्ति है। बिना पैसे खर्च किए गाली परोस दीजिए और सामने वाला पस्त। वकील फीस माँगेगा, डॉक्टर चिट्ठी लिख देगा, गुरुजी शुल्क माँगेंगे—लेकिन गाली? बिल्कुल मुफ़्त। और ऊपर से असर बिजली जैसा। यही वजह है कि गली-कूचों के विवाद गाली के दो-चार छिड़काव से ही निपट जाते हैं। पुलिस केस न बने, अदालती झंझट न हो—गाली में ही न्याय हो जाता है। गाली, गरीब आदमी का सुप्रीम कोर्ट है। जज का फैसला महीने भर बाद आएगा, गाली का फैसला उसी पल।

अब ज़रा सोचिए—क्या गाली देना हमेशा मूर्खता है? ज़रा नहीं, कई बार गाली ही होशियारी होती है। नेता गाली देकर भीड़ को अपने पक्ष में करता है। लेखक अपनी किताब में गाली डालकर साहित्यिक पुरस्कार पा लेता है। फिल्मकार बिना गाली के डायलॉग लिखे तो सेंसर बोर्ड पास कर देगा लेकिन दर्शक थियेटर में जम्हाई लेंगे। गाली, ध्यान खींचने का सबसे आसान हथियार है। समाज जिन शब्दों से डरता है, वही सबसे ज़्यादा बिकते हैं। गाली का व्यापार चल रहा है पत्र-पत्रिकाओं से लेकर सोशल मीडिया तक। आजकल तो गाली ट्रेंड करती है, और समझदार लोग चुपचाप उसे “फ्री पब्लिसिटी” में बदल देते हैं।

गाली कोई मात्र अपशब्द नहीं, यह भारतीय जीवन का रस है। गाली हमें हँसाती है, आराम देती है, सत्ता चलाती है, साहित्य को ताज़गी देती है और समाज को जोड़ती है। गाली के बिना हमारी भाषा ऐसी हो जाएगी जैसे बिना नमक की दाल—खाई तो जा सकती है, पर स्वाद नहीं आएगा। और ज़रा सोचिए, जब इस देश में गाली ही सबसे प्रिय और सर्वमान्य अभिव्यक्ति है, तो क्यों न गाली का महिमामंडन किया जाए? इसलिए भाइयो-बहनो, अगली बार जब कोई आपको गाली दे तो बुरा मत मानिए। यह समझिए कि उसने आपको राष्ट्र की सबसे सजीव परंपरा में शामिल कर लिया है। गाली में न सिर्फ़ उसकी नाराज़गी है, बल्कि आपके अस्तित्व का भी सम्मान है। आखिरकार, गाली ही वह चीज़ है जो हमें बराबरी का एहसास कराती है। जब गाली सार्वभौमिक है तो गाली खाना भी लोकतंत्र का सबसे पवित्र कर्म है।

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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