क्या डॉलर को चुनौती का मतलब मुल्क की बर्बादी है? कैसे पश्चिमी देशो ने ओबामा के सहारे लीबिया को निपटा दिया

भले ही अमेरिका की तरफ से कोई भी थ्योरी दी जाती रही हो। लेकिन नाटो देशों के लीबिया में सैन्य कार्रवाई का एक अहम उद्देश्य डॉलर के वर्चस्व को बनाए रखना और पश्चिमी युग के लिए किसी भी चुनौती को रोकना था।
इस मुल्क की गिनती अफ़्रीका के सबसे विकसित देशों में होती थी। प्राथमिक विद्यालय से विश्वविद्यालय तक सार्वजनिक शिक्षा पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य हुआ करती थी। जनता को कम कीमत पर चिकित्सा देखभाल उपलब्ध हो सके इसकी भी समुचित व्यवस्था बनी हुई थी। सरकार ने अपने लोगों और विशेष रूप से कम आय वाले लोगों की मदद के लिए आवास सब्सिडी की भी सुविधा दे रखी थी। नवविवाहितों को अपना पहला घर खरीदने में मदद के लिए 50000 डॉलर तक का अनुदान दिया जाता। बिजली और पानी भी मुफ़्त। गैसोलीन पर सब्सि़डी, खाद्य पदार्थों की कीमतों पर भी सब्सिडी दी जाती, जिससे वे सभी नागरिकों के लिए किफायती हो जाते हैं। इसने निःशुल्क सार्वजनिक परिवहन भी प्रदान किया। सरकार की तरफ से वृद्ध नागरिकों की मौत पर उनके अंतिम संस्कार के लिए भी भुगतान किया जाता। फेहरिस्त बेहद ही लंबी है। कमोबेश यही वो सारी बुनियादी चीजें हैं जो कि हरेक अपने नागरिकों को देने के वादे किया करते हैं। इन बुनियादी सुविधाओं से इतर सरकार की तरफ से रोड, स्कूल, अस्पताल और पॉवर प्लांट जैसे इंफ्रास्क्चर में भी निवेश किया गया। इन निवेश के परिणामस्वरूप अफ्रीका में इस देश के नागरिकों का जीवन स्तर बेहद शानदार रहा। यह सब इसकी तेल संपदा की वजह से मुमकिन हो पाया। सफलता के ऐसे और उत्कृष्ट स्तर के बीच एक सवाल जिसका जवाब हम आज ढूढ़ंने की कोशिश करेंगे। आखिर ऐसा क्या हो गया एक विकसित और खुशहाल देश खंडहरों की अकल्पनीय स्थिति में पहुंच गया।
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डॉलर के बदले सोने की दीनार
कर्नल गद्दाफी का पूरा नाम मुअम्मर अल गद्दाफी था। इनका जन्म 7 जून 1942 को लीबिया के सिर्ते शहर में हुआ। इनके जन्म के वक्त लीबिया इटली का उपनिवेश हुआ करता था। साल 1951 में लीबिया को पश्चिमी देशों के मित्र किंग इरदीस के नेतृत्व में स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी। गद्दाफी ने अपने शासनकाल के खत्म होने से पहले पूरे अफ्रीकी क्षेत्र में सिर्फ एक ही मुद्रा लाने की तैयारी की थी। गद्दाफी ने अफ्रीकी तेल व्यापार के लिए मुद्रा के रूप में विश्व मंच पर अमेरिकी डॉलर और यूरो को चुनौती देने के लिए गोल्ड अफ्रीकी दिनार की शुरुआत की थी। धन का मूल्य सोने की मात्रा के बजाय उनके द्वारा व्यापार किए जाने वाले डॉलर की संख्या से निर्धारित होता। गद्दाफी सोने की दीनार की खुलकर वकालत कर रहे थे और अफ्रीकी देशों को इस आइडिया में साथ देने के लिए मना रहे थे। कई देशों को ये आइडिया अच्छा भी लगा और इस मॉनिट्री सिस्टम को अपनाने में दिलचस्पी भी दिखाने लगे। वहीं डॉलर की ताकत के सहारे दुनिया में अपना दबदबा कायम रखने वाले पश्चिमी देशों की इस कदम से नजरें लीबिया पर आकर टिक गई। अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी देश अफ्रीकन करेंसी को लेकर चितिंत हो गए। वैश्विक अर्थव्यवस्था पर उनकी मजबूत पकड़ को इससे खतरा महसूस होने लगा। ये एक तरह से ग्लोबल फाइनेंसियल पॉवर के लिए एक तरह की सीधी चुनौती थी। अपने हितों की रक्षा के लिए गद्दाफी की लोकप्रियता को थामने अहम हो गया। साल 2011 में अरब के जरिए पश्चिमी देशों को एक सुनहरा अवसर प्राप्त हो गया। लीबिया में अपनी ही सरकार के खिलाफ जनता सड़तों पर आ गई। 15 फरवरी को बेनगाजी से गद्दाफी के खिलाफ विद्रोह की शुरुआत हुई। गद्दाफी की सेना ने विद्रोह को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस कदम से नाटो देशों को एक मौका मिल गया। मानवता के हित में नाटो ने अपना मिलिट्री एक्शन शुरू कर दिया।
विद्रोह के बहाने पश्चिमी देशों को मिला मौका
17 मार्च, 2011 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के प्रशासन के नेतृत्व में लीबिया में सैन्य हस्तक्षेप को अधिकृत करते हुए प्रस्ताव 1973 पारित किया। ओबामा ने समझाया कि इसका लक्ष्य शांतिपूर्ण, लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनकारियों की जान बचाना है, जिन्होंने खुद को लीबिया के तानाशाह मुअम्मर अल-गद्दाफी की कार्रवाई का निशाना पाया। ओबामा ने कहा कि गद्दाफी ने न केवल अरब स्प्रिंग की गति को खतरे में डाला, जिसने हाल ही में ट्यूनीशिया और मिस्र में सत्तावादी शासन को खत्म कर दिया था, बल्कि वह लीबिया के शहर में रक्तपात करने के लिए भी तैयार हैओबामा ने घोषणा की हम जानते थे कि अगर हमने एक दिन और इंतजार किया, तो बेंगाजी शहर एक नरसंहार का शिकार हो सकता था, जिसकी गूंज पूरे क्षेत्र में होती और ये घटना दुनिया की अंतरात्मा को कलंकित करता। संयुक्त राष्ट्र की अनुमति के दो दिन बाद, संयुक्त राज्य अमेरिका और अन्य नाटो देशों ने पूरे लीबिया में एक नो-फ़्लाई ज़ोन स्थापित किया और गद्दाफ़ी की सेना पर बमबारी शुरू कर दी। सात महीने बाद, अक्टूबर 2011 में निरंतर पश्चिमी समर्थन के साथ एक विस्तारित सैन्य अभियान के बाद, विद्रोही बलों ने देश पर विजय प्राप्त कर ली।
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जब नाटो ने उठाया गद्दाफी के खात्मे का कदम
अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने भी गद्दाफी के विद्रोहियों का समर्थन किया। पहले ही अरब क्रांति से कमजोर हो चुके लीबिया पर नाटो गठबंधन ने हवाई हमले शुरू कर दिए और गद्दाफी की सरकार को उखाड़ फेंका। लीबिया पर 42 वर्षों तक एकछत्र राज करने वाला तानाशाह मरने से पहले अपनी जान बख्शने के लिए सैनिकों के सामने खूब गिड़गिड़ाया। आखिरकार 20 अक्टूबर 2011 को गद्दाफी को उसके गृहनगर सिर्ते में मार गिराया गया। गद्दाफी के आखिरी शब्द थे- 'मुझे गोली मत मारो'। सैन्य जीत के तुरंत बाद, अमेरिकी अधिकारी विजयी हुए। 2012 में इन पन्नों में लिखते हुए, नाटो के तत्कालीन अमेरिकी स्थायी प्रतिनिधि इवो डालडर और यूरोप के तत्कालीन सर्वोच्च सहयोगी कमांडर जेम्स स्टावरिडिस ने घोषणा की, "लीबिया में नाटो के ऑपरेशन को एक आदर्श हस्तक्षेप के रूप में सराहा गया है। क़द्दाफ़ी की मौत के बाद रोज़ गार्डन में, ओबामा ने खुद बयान देकर कहा कि एक भी अमेरिकी सेवा सदस्य को ज़मीन पर उतारे बिना, हमने अपने उद्देश्य हासिल कर लिए। वास्तव में संयुक्त राज्य अमेरिका ने हैट ट्रिक सफलता अर्जित कर ली। अरब स्प्रिंग का पोषण करना, रवांडा जैसे नरसंहार को रोका गया और आतंकवाद के संभावित स्रोत के रूप में लीबिया को पोषित होने से बचाना शामिल है।
दीनार वाली योजना के पास थी डॉलर के वर्चस्व को हिला डालने की शक्ति
भले ही अमेरिका की तरफ से कोई भी थ्योरी दी जाती रही हो। लेकिन नाटो देशों के लीबिया में सैन्य कार्रवाई का एक अहम उद्देश्य डॉलर के वर्चस्व को बनाए रखना और पश्चिमी युग के लिए किसी भी चुनौती को रोकना था। अमेरिका की सैन्य कार्रवाई के बाद अब तक लीबिया अपनी तबाही, खस्ता और बेहाल स्थिति से नहीं उबर सका। इसमें इराक और लीबिया की कार्रवाई पर बारिक नजर डालना जरूरी है। दोनों ही मामलों में इसके अगुवा यानी सद्दाम हुसैन और कर्नल गद्दाफी ने खुलकर अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए अमेरिका के यूएस डॉलर का परित्याग करने का ऐलान किया था। गद्दाफी की सोने की दीनार वाली योजना के पास डॉलर के वर्चस्व को हिला डालने की शक्ति थी। जिससे पश्चिमी देशों का वर्चस्व भी डगमगा सकता था। अफ्रीका और मिडिल ईस्ट के तेल निर्यातक देश अपने खरीदारों से सोने में ही भुगतान करने की मांग कर सकते थे। लेकिन अमेरिका और उसके नाटो सहयोगियों के लिए ऐसा होना एक बड़ा आर्थिक झटका हो सकता था।
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