ध्वंस की कहानी और 1949 में प्रगट हुई मूर्तियां 1992 में कैसे हो गईं अदृश्य

Ayodhya Full Story
अभिनय आकाश । Mar 29 2020 10:08AM

कारसेवकों ने किसी की भी नहीं सुनी।। दिल्ली से खबर ली जा रही थी। कुछ समूह मूर्तियां लेकर बाहर चला जाता है। बाद में स्थानीय प्रसाशन और अन्य माध्यों के जरिए मूर्तियां मंगाई गई। आज तक नहीं पता चला कि आखिर वो प्रतिमा कहां गई।

अयोध्या को ग्रहण करने उसे जानने-समझने, स्वीकार करने के लिए ये कहानी अयोध्या को लेकर इस काल, समाज और राजनीति के भीतर की गंभीर वैचारिक उथल-पुथल का आईना है। इसमें अयोध्या के मसले पर हुई जोरदार राजनीतिक बहसों की ध्वनि है। ये अयोध्या की राजनीति को नए आयाम देने वाले नेतृत्व की सोच का स्कैन भी है। त्रेता में प्रभु अयोध्या में अवतरित हुए, 1949 में रहस्यमय तरीके से उनकी प्राण-प्रतिष्ठा हुई। लेकिन 1992 में रामलला की मूर्ति रहस्यमयी तरीके से गायब हो गई। आज आपको ध्वंस से लेकर रामलला के प्रगट होने के बाद अचानक गायब होने की कहानी सुनाऊंगा।

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सितंबर 1990 में उन्होंने राम जन्मभूमि आंदोलन को आगे बढ़ाते हुए दक्षिण से अयोध्या तक 10 हजार किलोमीटर लंबी रथयात्रा शुरू की थी। आडवाणी का रथ जिन शहरों से गुजरा, उनमें से कई जगहों पर सांप्रदायिक हिंसा हुई और कई लोग मारे गए। रथ बिहार पहुंचा तो वहां की नई नवेली लालू यादव सरकार ने एलके आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया। इसके बावजूद देश भर से बड़ी संख्या में कारसेवक और संघ परिवार के लोग अयोध्या पहुंचे और बाबरी ढांचे पर हमले की कोशिश की। पैरामिलिट्री फोर्स के जवानों ने उन्हें रोकने की कोशिश की, दोनों पक्षों में संघर्ष हुआ और कई कारसेवक मारे गए। तारीख थी 6 दिसंबर 1992- अयोध्या में बाबरी का विवादित ढांचा कुछ ही घंटों में ढहाकर वहां एक नया, अस्थायी मंदिर बना दिया गया। एक तरफ ध्वंस के उन्माद में कारसेवक और दूसरी ओर हैरान, सन्न-अवाक् विश्व हिन्दू परिषद व बीजेपी नेता। बूझ नहीं पड़ा कि यह सब अचानक कैसे हुआ?

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विश्व हिन्दू परिषद का ऐलान था प्रतीकात्मक कारसेवा का। लेकिन वहां माहौल चीख-चीखकर कह रहा था कि कारसेवक तो ढांचे पर विजय पाने और गुलामी के प्रतीक को मिटाने के लिए ही वहां आए थे। दो सौ से दो हजार किलोमीटर दूर से कारसेवकों को इस नारे के साथ लाया गया था कि एक धक्का औऱ दो गुंबद को तोड़ दो।

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प्रशासन की नजर में स्थिति बेकाबू थी। कारसेवकों की नजर में हालात काबू में थे। कुल मिलाकर स्थिति बेकाबू थी। रामकथा कुंज के मंच से आडवाणी कारसेवकों से लौटने की अपील कर रहे थे। वे कारसेवकों को डांट भी रहे थे। उनकी अपील बेअसर देख माइक अशोक सिंघल ने संभाला। उन्होंने घोषणा की कि विवादित भवन मस्जिद नहीं मंदिर है। कारसेवक उसे नुकसान न पहुंचाएं। रामलला की उन्हें सौगंध है नीचे उतर आएं। इसका भी कोई असर नहीं हुआ तो अशोक सिंघल और महंत नृत्यगोपाल दास मंच से नीचे उतर ढांचे की ओर बढ़े लेकिन कारसेवकों ने किसी की भी नहीं सुनी।। दिल्ली से खबर ली जा रही थी। कुछ समूह मूर्तियां लेकर बाहर चला जाता है। बाद में स्थानीय प्रशासन और अन्य माध्यमों के जरिए मूर्तियां मंगाई गई। आज तक नहीं पता चला कि आखिर वो प्रतिमा कहां गई। अयोध्या में ढांचा ढाए जाने के बाद मंदिर में मूर्तियां स्थापित करने को लेकर कोहराम मचा था। राव सरकार के मंत्री कुमारमंगलम और अयोध्या के राजा विमलेंद्र प्रताप के संपर्क में थे। आनन-फानन में अयोध्या के राजा ने अपने घर से रामलला की मूर्ति भिजवाईं। रामलला की पुरानी मूर्ति की जगह गर्भगृह में नई मूर्ति रखी गई और आज भी उसी मूर्ति की पूजा-अर्चना होती है। जिस वक्त ढांचे पर कारसेवकों ने हल्ला बोला, दिल्ली से लेकर लखनऊ तक राजनीति बेहद गर्म थी। दिल्ली में प्रधानमंत्री सात रेसकोर्स के अपने घर पर टेलीविजन के सामने बैठे थे तो मुख्यमंत्री कल्याण सिंह लखनऊ में कालिदास मार्ग के सरकारी आवास की छत पर धूंप सेंक रहे थे। कल्याण सिंह ने बिना गोली चलाए परिसर को खाली कराने को कहा। हालांकि वे इस बात से नाराज थे कि अगर विहिप की ऐसी कोई योजना थी तो उन्हें भी बताना चाहिए था।

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इधर प्रधानमंत्री नरसिंह राव दोहरी चालें चल रहे थे। ध्वंस के बाद नरसिंह राव ने राष्ट्र के नाम प्रसारण में ढांचे के पुननिर्माण की बात नहीं कही थी। पर कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में उन्होंने ढांचे के पुनर्निमाण की जरूरत बताई।

BJP-VHP-शिवसेना नेताओं और हजारों ‘आक्रोशित’ कारसेवकों पर केस दर्ज हुए और ‘जीत का सेहरा’ भी उन्हीं के सिर बंधा। कांग्रेस न सिर्फ 1996 का चुनाव हारी, 8 साल तक केंद्र की सत्ता से बाहर हो गई। यूपी में तो उसका सफाया ही हो गया जो आज तक कायम है।

7 जनवरी 1993- अयोध्या के राम जन्मभूमि बाबरी परिसर की 67.7 एकड़ जमीन का केंद्र सरकार ने अधिग्रहण किया। इसमें अस्थायी मंदिर भी था। इसी रोज राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 143 (ए) के तहत सुप्रीम कोर्ट को प्रेसिडेंसियल रिफरेंस भी किया कि वे बताएं कि क्या विवादित ढांचे के नीचे कभी कोई मंदिर था और वहां मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी? सुप्रीम कोर्ट ने लंबी सुनवाई के बाद इस रिफरेंस को यह कहते हुए लौटा दिया कि वह इस पर राय नहीं दे सकता।

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27 फरवरी 1993, सीबीसीआईडी ने ललितपुर की विशेष अदालत में एफआईआर 198 में एक आरोप पत्र दाखिल किया। इसमें आडवाणी और बाकी लोगों पर धारा 147,149 के तहत आरोप लगाए गए।

11 मार्च 1993- बाबरी ढांचे को गिराने की कथित प्रतिक्रिया में मुंबई में बम धमाके हुए। इस विस्फोट और उसके बाद हुए सांप्रदायिक दंगों में हजारों लोग मारे गए।

6 जून 1993- यूपी सरकार ने एफआईआर संख्या 198 को ललितपुर से रायबरेली की विशेष अदालत में स्थानांतरित कर दिया।

1998- भारतीय जनता पार्टी केंद्र में सत्ता में आई।

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12 फरवरी 2001- हाईकोर्ट ने 33 अभियुक्तों की पुनर्विचार याचिकाएं स्वीकार कर लीं।

24 जुलाई 2001- मोहम्मद असलम उर्फ भूरे ने 12 फरवरी को हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की।

2002- फरवरी में विश्व हिन्दू परिषद ने मंदिर निर्माण फिर से शुरू करने के लिए 15 मार्च की अंतिम तारीख तय की। देश भर से कारसेवक अयोध्या के इकट्ठा होने लगे। कारसेवकों को वापस ले जा रही साबरमती एक्सप्रेस के डिब्बे एस-6 पर गुजरात के गोधरा में हमला किया गया। उस हमले में 58 कारसेवक जिंदा जला दिए गए। इस घटना के बाद पूरे गुजरात में दंगे फैल गए, जिनमें 1000 से ज्यादा जानें गईं।

अप्रैल 2002- इलाहबाद हाईकोर्ट में तीन जजों की विशेष बेंच में इस बात पर सुनवाई शुरू हुई कि विवादित स्थल पर किसका अधिकार है।

2003- इलाहाबाद हाईकोर्ट की विशेष बेंच ने एएसआई को इस बात की जांच करने को कहा कि किया वहां पहले कोई मंदिर था। हाईकोर्ट ने एएसआई से कहा कि वह खुदाई कर इस बात का पता लगाए। एएसआई को मस्जिद के नीचे ग्यारहवीं सदी के एक मंदिर होने के साक्ष्य मिले।

2004- 6 साल के बीजेपी शासन के बाद केंद्र में कांग्रेस की वापसी हुई। उत्तर प्रदेश की एक अदालत ने कहा कि आडवाणी को निर्दोष ठहराए जाने की विवेचना होनी चाहिए।

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जुलाई, 2005- कुछ संदिग्ध इस्लामिक उग्रवादियों ने विवादित स्थल पर आक्रमण किया। विवादित परिसर में घुसने का प्रयास कर रहे इन पांच उग्रवादियों को सुरक्षा बलों ने मार गिराया।

 

जून, 2009- लिब्राहन कमीशन, जिसे बाबरी विध्वंस की जांच के लिए गठित किया गया था ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। संसद में हंगामा हुआ क्योंकि रिपोर्ट में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के विध्वंस में शामिल होने की बात कही गई थी।

 

2010-- इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अयोध्या विवाद को लेकर दायर की गई चार याचिकाओं पर फैसला सुनाया। इस फैसले में हाई कोर्ट ने कहा कि विवादित स्थल को तीन हिस्सों में बांट दिया जाए। एक तिहाई हिस्सा रामलला को दिया जाए, जिसका प्रतिनिधित्व हिंदू महासभा के पास है, एक तिहाई हिस्सा सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड को दिया जाए और तीसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़े को दिया जाए। दिसंबर में अखिल भारतीय हिन्दू महासभा और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट गए।

 

मई 2011- सुप्रीम कोर्ट ने जमीन के बंटवारे पर रोक लगा दी औऱ कहा कि स्थिति को पहले की तरह बने रहने दिया जाए।

 

2014- लोकसभा के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भारतीय जनता पार्टी ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की और केंद्र की सत्ता में आई।

 

2015- विश्व हिन्दू परिषद ने फिर राजस्थान से राममंदिर के निर्मण के लिए शिलाओं को इकट्ठा करने का आह्वान किया। 6 महीने बाद दिसंबर में विवादित स्थल पर दो ट्रक शिलाएं पहुंच गई। महंत नृत्यगोपाल दास ने दावा किया कि मोदी सरकार की तरफ से मंदिर बनाने के लिए हरी झंडी मिल गई है। उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार ने कहा कि वह अयोध्या में शिलाओं को लाने की इजाजत नहीं देंगे।

 

मार्च 2017- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 1992 के ध्वंस को लेकर आडवाणी और अन्य नेताओं पर लगे आरोप वापस नहीं लिये जा सकते और केस की जांच फिर से की जाए।

 

21 मार्च 2017- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मामला संवेदनशील है और उसका समाधान कोर्ट के बाहर होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने सभी पक्षों से एक राय बनाकर समाधान ढूढ़ने को कहा।

 

5 दिसंबर 2017- सुप्रीम कोर्ट ने 8 फरवरी 2017 को राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर तमाम जनहित याचिकाओं पर तेजी से सुनवाई का फैसला किया।

 

8 फरवरी 2018- सुप्रीम कोर्ट ने सभी पक्षों को दो हफ्ते में अपने-अपने दस्तावेज तैयार करने का आदेश दिया। साथ ही यह भी कहा कि इस मामले में अब कोई नया पक्षकार नहीं जुडेगा।

 

14 मार्च 2018- सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को अनावश्यक दखल से बचाने के लिए मुख्य पक्षकारों के अलावा बाकी तीसरे पक्षों की ओर से दायर सभी 32 हस्तक्षेप अर्जियों को खारिज कर दिया। अब वही पक्षकार बचे जो इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले में शामिल थे।

 

27 सितंबर 2018- अयोध्या मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ ने एक मह्तवपूर्ण फैसला दिया। फैसले में मुस्लिम पक्ष की मांग खारिज करते हुए इस्माइल फारूकी मामले को पुनिर्विचार के लिए बड़ी पीठ को भेजने से मना कर दिया।

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नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने रामलला के नाम जमीन के हक पर हस्ताक्षर तो कर दिए। देश की सबसे बड़ी अदालत ने सबसे बड़े फैसले में अयोध्या की विवादित जमीन पर रामलला विराजमान का हक माना है. जबकि मुस्लिम पक्ष को अयोध्या में ही 5 एकड़ जमीन देने का आदेश दिया गया है। जिसके बाद अयोध्या में मंदिर निर्माण को लेकर ट्रस्ट का गठन भी कर दिया गया है और आम जनमानस की आस पर रामलला का वनवास खत्म हो गया। लेकिन सियासत में अयोध्या का मुद्दा आज भी मरा नहीं है। कोई इसे सियासत के ‘काले सफहे’ के तौर पर याद करता है तो कोई ‘शौर्य दिवस’ मनाते हुए मिठाई बांटता है।

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