म्यांमार में सेना का शासन आने से भारत पर क्‍या पड़ेगा असर, दोनों देशों के बीच दोस्ती के दरवाजे की रोचक कहानी

Myanmar
अभिनय आकाश । Feb 9 2021 5:56PM

चाहे वो सामरिक हो या कूटनीतिक या फिर आर्थिक तीनों ही दृष्टि से भारत के लिए महत्वपूर्ण है। म्यांमार और भारत के रिश्तें काफी पुराने रहे हैं। यही वजह है कि जवाहर लाल नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक लगभग सभी प्रधानमंत्रियों ने म्यांमार की यात्रा की है।

अक्सर ये कहा जाता है कि अगर हमारे पड़ोसी अच्छे हैं तो हमारी रोजमर्रा की कई छोटी-बड़ी बातों की फिक्र यूं ही खत्म हो जाती है। यही फाॅर्मूला देशों पर भी लागू होता है। हमारे पड़ोसी देश म्यांमार यानी बर्मा में सैनिक तख्तापलट से उथल-पुथल मची है। म्यांमार संकट पर भारत की निगाहें भी बनी हुई है क्योंकि चाहे वो सामरिक हो या कूटनीतिक या फिर आर्थिक तीनों ही दृष्टि से भारत के लिए महत्वपूर्ण है। म्यांमार और भारत के रिश्तें काफी पुराने रहे हैं। यही वजह है कि जवाहर लाल नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक लगभग सभी प्रधानमंत्रियों ने म्यांमार की यात्रा की है। ऐसे में आज हम म्यांमार में तख्ता पलट के मायने, सैन्य शासन के साथ भारत के साथ रिश्ते और इसमें चीन के हाथ होने की आशंकाओं का एमआरआई स्कैन करेंगे। साथ ही आपको दो देशों के बीच दोस्ती के दरवाजे की बात बताएंगे जहां से बिना वीजा और पासपोर्ट वाला ठप्पा लगवाए एक दूसरे की सीमा में बाजार में खरीदारी करने, घूमने आ जा सकते हैं। 

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भारत की पूर्वोत्तर सीमा से सटा मुल्क है म्यांमार। एक समय इसे बर्मा के नाम से जाना जाता था। इतिहास में जाएंगे तो इसका एक सिरा भारत से जुड़ता है। सम्राट अशोक के दौर में बौद्ध धर्म बर्मा पहुंचा था और बाद में ये यहां कि संस्कृति का हिस्सा बन गया। आधुनिक इतिहास में ये कड़ी ब्रिटिश साम्राज्य से जुड़ती है। 1824 में अंग्रेजों की नजर बर्मा पर पड़ी। लड़ाई फिर संधि 1885 में बर्मा ब्रिटिश इंडिया का हिस्सा बन गया। ये हिस्सेदारी 1937 तक चलती रही। इस वर्ष ब्रिटिश क्राउन ने वर्मा को अलग घोषित कर दिया। इसके कुछ समय बाद दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ। यहां जापान ने कब्जा जमाया। जापान ने यहां लोकल फोर्स के लिए नौजवानों की भर्ती की और टुकड़ी का नाम रखा बर्मा इंडिपेंडेंस आर्मी। बीआईए ने आंग सांन को अपना नेता मान लिया। आंग सान ने एक नई पार्टी और नाम रखा एंटी फासिस्ट पीपुल्स फ्रीडम लीग। इस लीग ने ब्रिटेन से हाथ मिलाया और 1945 आते-आते जापान की हालात पतली होने  लगी। वो युद्ध से बाहर होने लगा। ब्रिटेन से हाथ मिलाना आंग के काम आया। दूसरे विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन समेत कई देश कमजोर हुए। आंग सान ने मौके का फायदा उठाया। ब्रिटिश सेना के साथ मिलकर बर्मा को जापान से आजाद कराया। फिर ब्रिटिश क्राउन के प्रतिनिधि के तौर पर शासन का अधिकार प्राप्त किया। आंग सान को दोनो पक्षों ब्रिटिश को और अपने लोगों को भी खुश रखना पड़ता था। लेकिन 1947 में ये संतुलन बिगड़ गया। एक धड़े ने आंग सान की हत्या कर दी। आंग सान की हत्या के बाद सत्ता आई यू नू के पास। 4 जनवरी 1948 को बर्मा ब्रिटिश क्राउन से आजाद हो गया। यू ने देश के प्रधानमंत्री बने। कुछ वक्त शांति चली। बर्मा पंडित नेहरू के गुट निरपेक्ष आंदोलन में शामिल हुआ। 1958 में एंटी फासिस्ट पीपुल्स फ्रीडम लीग में फूट पड़ गई। तब यू नू चीफ ऑफ आर्मी स्टाॅफ जनरल ने विन के पास गए और प्रधानमंत्री बनने की पेशकश कर दी। ने विन ने हामी भर दी और ये हामी म्यांमार की राजनीति में सेना के एंट्री की शुरुआत थी। दो साल बाद देश में चुनाव होते हैं और लोकतांत्रिक सरकार बनती है। 1962 में लोकतांत्रिक सरकार का तख्ता पलट हो जाता है और म्यांमार में सैन्य तानाशाही शुरू हुई। सेना का शासन 26 वर्ष तक चला। 26 वर्षों तक चले इस शासन के दौरान मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप भी सरकार पर लगते रहे। देश का संविधान भंग कर दिया गया। सिर्फ एक पार्टी चली। बर्मा सोशलिस्ट प्रोग्राम पार्टी। फ्री प्रेस पर ताला लगा दिया गया। 1987 में ने विन ने देश में नोटबंदी लागू की। बर्मा की सरकार ने यह फैसला बिना सोचे समझे उठाया। इसका खामियाजा देश को उठाना पड़ा। लाखों लोगों की बचत और सपने एक साथ बिखर गए। जुलाई 1988 में विन को पद से इस्तीफा देना पड़ा। प्रदर्शन हुए और फिर शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर गोली चलवाई गई। इस हिंसा में तीन हजार से ज्यादा लोग मारे गए। सेना ने तो इस प्रदर्शन को दबा दिया लेकिन एक नाम को उभरने से नहीं रोक पाए। अपनी बीमार मार को देखने बर्मा आई 33 वर्षीय आंग सान सू की जापानियों को खदेड़ने वाले कमांडर आंग सान की सबसे छोटी बेटी। देश लौटीं सू की ने सैन्य शासकों को चुनौती देने के लिए अपनी आजादी त्याग दी। 1989 में बर्मा का नाम बदल कर म्यांमार कर दिया गया और इसी तरह म्यांमार के सबसे बड़े शहर रंगून का नाम भी बदल कर बाद में यंगून किया गया था। साल 1991 में नजरबंदी के दौरान ही सू को नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया। 2010 में उन्हें रिहा किया गया। 2015 के नवंबर महीने में सू की पार्टी ने चुनाव जीता। म्यांमार का संविधान उन्हें राष्ट्रपति बनने से रोकता है क्योंकि उनके बच्चे विदेश नागरिक हैं। रोहिंग्या मुसलमानों की नीति पर उनकी आलोचना हुई। पिछले साल नवंबर में उनकी पार्टी फिर जीती। धांधली बताकर सेना ने तख्तापलट किया। 

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म्यांमार में जो हुआ उसके पीछे चीन?

म्यांमार के सैन्य तख्तापलट का विरोध भारत समेत ज्यादातर देशों ने किय। ब्रिटेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया समेत कई देशों ने हिरासत में लिए गए नेताओं को तुरंत रिहा करने की मांग की और अमेरिका ने तो कड़े कदम उठाने के संकेत भी दिए। म्यांमार में तख्तापलट पर चीन ने ठंडी प्रतिक्रिया दी। जिसके बाद से ये सवाल उठने लगा कि क्या म्यांमार में जो कुछ भी हो रहा है उसके पीछे चीन का हाथ है। चीन ने पिछले कुछ सालों में म्यांमार में बड़ा निवेश किया है। उसने यहां खनन, आधारभूत संरचना और गैस पाइपलाइन परियोजनाओं में अरबों डाॅलर का निवेश किया है। इकोनाॅमिक काॅरिडोर में 38 परियोजनाओं का प्रस्ताव है। विद्युत क्षेत्र में करीब 57 प्रतिशत निवेश। मेगा सिटी परियोजना पर काम चल रहा है। इसके बाद भी चीन शांत है। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता का एक बयान जरूर आया है। जिसमें उन्होंने कहा कि म्यांमार में जो कुछ हुआ हमने उसका संज्ञान लिया है और हालात के बारे में सूचना जुटा रहे हैं। हमें उम्मीद है कि सभी पक्ष संविधान और कानूनी ढांचे के तहत अपने मतभेदों को दूर कर सकेंगे। कहा जा रहा है कि म्यांमार में तख्तापलट के पीछे का एक मकसद दूसरे सहयोगी देशों को किनारे कर पूरा फायदा चीन को दिया जाए और इन देशों में भारत सबसे अहम है। 

ऐसा हुआ क्यों?

दरअसल, पिछले साल नवंबर में म्यांमार में आम चुनाव हुए थे। इनमें आंग सान सू की पार्टी ने दोनों सदनों में 396 सीटें जीती थीं। उनकी पार्टी ने लोअर हाउस की 330 में से 258 और अपर हाउस की 168 में से 138 सीटें जीतीं।

म्यांमार की मुख्य विपक्षी पार्टी यूनियन सॉलिडैरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी ने दोनों सदनों में मात्र 33 सीटें ही जीतीं। इस पार्टी को सेना का समर्थन हासिल था। इस पार्टी के नेता थान हिते हैं, जो सेना में ब्रिगेडियर जनरल रह चुके हैं।

नतीजे आने के बाद वहां की सेना ने इस पर सवाल खड़े कर दिए। सेना ने चुनाव में सू की की पार्टी पर धांधली करने का आरोप लगाया है। इसे लेकर सेना ने सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रपति और चुनाव आयोग की शिकायत भी की है।

चुनाव नतीजों के बाद से ही लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार और वहां की सेना के बीच मतभेद शुरू हो गया। अब म्यांमार की सत्ता पूरी तरह से सेना के हाथ में आ गई है। तख्तापलट के बाद वहां सेना ने 1 साल के लिए इमरजेंसी का भी ऐलान कर दिया है।

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संविधान में है सेना को बागडोर लेने की इजाजत

म्यांमार की सेना के स्वामित्व वाले मयावाडी टीवी ने देश के संविधान के अनुच्छेद 417 का हवाला दिया जिसमें सेना को आपातकाल में सत्ता अपने हाथ में लेने की अनुमति हासिल है। प्रस्तोता ने कहा कि कोरोना संकट और नवंबर चुनाव कराने में सरकार विफल रहना ही आपातकाल के कारण हैं। सेना ने 2008 में संविधान तैयार किया और चार्टर के कहत उसने लोकतंत्र, नागरिक शासन की कीमत पर सत्ता अपने हाथ में रखने का प्रवाधान किया। संविघान में कैबिनेट के मुख्य मंत्रालय और सांसद में 25 फीसदी सीट सेना के लिए आरक्षित है, जिससे नागरिक सरकार की शक्तियां समीत रह जाती है। मार की सेना ने अगस्त 2017 में रखाइन प्रांत में एक अभियान चलाया जिसनें रोहिंग्या मुस्लिमों को निशाना बनाया गया। जिसके बाद आलम ये रहा कि करीब 5 लाख रोहिंग्या मुस्लिमों को देश छोड़ पड़ोसी देश बांग्लादेश में शरण लेना पड़ा। उस वक्त जनरल मिन की सेना पर रोहिंग्या मुस्लिम समुदाय की महिलाओं से रेप और यौन हिंसा के भी संगीन आरोप लगे और इसके कई सबूत भी पेश किए गए। रोहिंग्या मुस्लिमों पर अत्याचार के बाद जनरल मिन के फेसबुक प्रोफाइल को बंद कर दिया गया था।

म्यांमार में सेना का शासन आने से भारत पर क्‍या असर पड़ेगा?

भारत के चार राज्यों की सीमाएं म्यांमार से लगती हैं और ये सीमा 1600 किलोमीटर लंबी है। ये राज्य हैं, मणिपुर, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश और नागालैंड और सबसे अहम ये कि इनमें अरुणाचल प्रदेश की सीमा चीन से भी लगती है, जिसकी वजह से म्यांमार भारत के लिए काफी अहम हो जाता है। म्यांमार का शान इलाका मिजो, नागा, मणिपुरी, उल्फा जैसे 26 अतिवादी संगठनों की शरण स्थली रहा है कुछ का हेड क्वार्टर वहां रहा है ये संगठन पूर्वोत्तर भारत में गड़बड़ी करते रहे हैं इन पर म्यांमार की सेना के सहयोग से ही लगाम लगाई जा सकती है।

म्‍यांमार की सीमा में सर्जिकल स्‍ट्राइक

साल 2015 में जब मणिपुर के चंदेल में सेना के काफिले पर हमला हुआ था तो उसके बाद भारत ने सर्जिकल स्‍ट्राइक को अंजाम दिया था। 9 जून 2015 को हुई स्‍ट्राइक म्‍यांमार की सीमा के अंदर हुई थी और इस स्‍ट्राइक में सेना ने एनएससीएन-के के आतंकियों को निशाना बनाया था पिछले वर्ष दिसंबर में यूरोपियन यूनियन के थिंक टैंक, यूरोपियन फाउंडेशन फॉर साउथ एशियन स्‍टडीज (ईएफएसएएस) की तरफ से भारत को वॉर्निंग दी गई थी। रिपोर्ट में कहा गया था कि नॉई ईस्‍ट में बहुत प्रयासों के बाद जो शांत कायम हुई है वह खतरे में पड़ सकती है जुलाई 2020 में भी इस थिंक टैंक की तरफ से कहा गया था म्‍यांमार-थाईलैंड बॉर्डर पर स्थित माए ताओ क्षेत्र में चीनी हथियारों का जो जखीरा बरामद हुआ है।

इंडो म्यांमार गेट

मणिपुर की सीमा से सटे शहर मोरे में इस सीमा के खुलने के बाद अब म्यांमार जाने वाले किसी भी भारतीय को विशेष परमिट की आवश्यकता नहीं होती। 11 मई को विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के म्यांमार दौरे के दौरान नेपीता में दोनों देशों के बीच इस सीमा को खोले जाने के संबंध में समझौता हुआ था।  इस समझौते के तहत सीमा पर एक पास के जरिए दोनों देशों के नागरिक एक दूसरे की सीमा में बिना परमिट 16 किमी तक जा सकेंगे। इसके लिए मणिपुर के मोरे में एक गेट बनाया गया। यह है गेट नंबर-2, जिसके जरिए बॉर्डर के 16-16 किलोमीटर पर रहने वाले लोग आ जा सकें। बाकियों के लिए यहां से कुछ दूरी पर ही गेट नंबर-1 है जिसमें वीजा और पासपोर्ट के जरिए लोग आ जा सकते हैं, साथ ही यहां से एक्सपोर्ट-इंपोर्ट भी हो सकता है। 

म्यांमार के ताजा हालात की बात करे तो म्यांमार के 7 शहरों में सेना ने मार्शल लॉ लागू कर दिया है। यहां तख्तापलट के विरोध में प्रदर्शन तेज हो गए हैं। इस बीच सेना ने मर्शल लॉ लगाने का फैसला लिया है। वहीं आंग सान सू को जल्द रिहा करने के समर्थन में हजारों लोगों ने देशभर में जोरदार प्रदर्शन किया। प्रदर्शन के दौरान लोग नारे लगा रहे थे- हम सैन्य तानाशाही नहीं चाहते हैं। हम लोकतंत्र चाहते हैं। - अभिनय आकाश

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