राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, अपने दांव से विरोधियों को करते हैं चित

जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाले आंदोलन में अपने साथ राजनीति में कदम रखने वाले लालू प्रसाद और राम विलास पासवान के विपरीत कुमार को लंबे समय तक चुनावी सफलता नहीं मिली थी। उन्हें 1985 के विधानसभा चुनाव में लोक दल के उम्मीदवार के तौर पर हरनौत विधानसभा सीट से पहली बार सफलता मिली, हालांकि उस चुनाव में कांग्रेस ने भारी बहुमत हासिल किया था।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार राजनीति के माहिर खिलाड़ी माने जाते हैं। आज नीतीश कुमार अपना जन्मदिन मना रहे हैं। नीतीश कुमार अनुभवी राजनेता तो है ही साथ ही साथ परिस्थितियों को भांपने में भी माहिर हैं। जर्मन दार्शनिक ओटो वॉन बिस्मार्क का एक बहुत ही प्रसिद्ध वाक्य है ‘‘ असंभव को संभव बनाने की कला ही राजनीति है’’ और आधुनिक राजनीति के माहिर शिल्पकार नीतीश कुमार से बेहतर इन शब्दों को कौन समझ सकता है। वर्तमान में बिहार की राजनीति देखें तो नीतीश कुमार के बगैर इसकी कल्पना करना मुमकिन नहीं है। राजनीतिक विश्लेषक दावा करते हैं कि जिस ओर नीतीश कुमार करवट लेंगे सरकार उसी की बनेगी। वर्तमान परिस्थिति में बिहार में ना तो भाजपा और ना ही राजद बिना नीतीश कुमार के सरकार बनाने की स्थिति में है। नीतीश कुमार को राजनीति में सही समय पर अपने दोस्त और दुश्मन भी चुनना भली-भांति आता है।
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नीतीश कुमार की राजनीति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2020 में हुए विधान विधान सभा चुनाव में तीसरे नंबर की पार्टी रहने के बावजूद वह मुख्यमंत्री बने हुए हैं। नीतीश को समय के साथ चलना और शांति से अपने विरोधियों को चित करने में माहिर माना जाता है। शायद यही कारण है कि बिहार में वह पिछले 17 सालों से एक छत्र राज करते आ रहे हैं। भले ही नीतीश कुमार की पार्टी जदयू पहले जैसा नहीं रही लेकिन उससे नीतीश के कद को बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है। सियासत की नजाकत को समझने वाले नीतीश बिहार में 7 बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं। भले ही उन्हें विपक्ष की ओर से कुर्सी कुमार कहा जाता हो लेकिन जनता नीतीश कुमार के साथ चुनाव दर चुनाव खड़ी रही है। मंडल की राजनीति से नेता बनकर उभरे नीतीश कुमार ने छात्र आंदोलन में भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। नीतीश कुमार को बिहार को अच्छा शासन मुहैया कराने का श्रेय दिया जाता है।
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विपक्ष की ओर से चाहे कुछ भी कहा जाता रहा हो लेकिन नीतीश की बुद्धिमता, राजनीतिक शतरंज की बिसात पर उनकी चालों ने वर्षों तक सत्ता पर उनका दबदबा बरकरार रखा है। नीतीश की राजनीति का तरीका भी कुछ अलग है। भाजपा के साथ गठबंधन में लंबे समय तक रहने के बावजूद भी उन्होंने देश की राजनीति में अहम हिस्सा रखने वाले बिहार में हिंदुत्ववादी ताकतों के वर्चस्व को कायम नहीं होने दिया। केंद्र में भी सरकार रहने और ज्यादा सीटें होने के बावजूद भी भाजपा ने नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाया है। जाहिर सी बात है कि नीतीश कुमार की राजनीति बिहार के जातीय समीकरण को भी सूट करती है। कोई भी राजनीतिक चाल चलने से पहले अपने सभी विकल्पों पर अच्छी तरह सोच-विचार करने के लिए जाने-जाने वाले कुमार कभी लहरों के विरुद्ध जाने से संकोच नहीं करते। इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले कुमार ने जे पी आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई, राज्य विद्युत विभाग में नौकरी का प्रस्ताव ठुकरा दिया और राजनीतिक जुआ खेलने का फैसला किया। उस जमाने में बिहार के किसी शिक्षित युवा के लिए ‘‘सरकारी नौकरी’’ ठुकराकर राजनीति में भाग्य आजमाने का फैसला करना बड़ी बात थी।
जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाले आंदोलन में अपने साथ राजनीति में कदम रखने वाले लालू प्रसाद और राम विलास पासवान के विपरीत कुमार को लंबे समय तक चुनावी सफलता नहीं मिली थी। उन्हें 1985 के विधानसभा चुनाव में लोक दल के उम्मीदवार के तौर पर हरनौत विधानसभा सीट से पहली बार सफलता मिली, हालांकि उस चुनाव में कांग्रेस ने भारी बहुमत हासिल किया था। यह चुनाव तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के कुछ महीने बाद हुआ था। पहली चुनावी जीत के चार साल बाद वह बाढ़ लोकसभा क्षेत्र से निर्वाचित हुए। यह वही दौर था जब सारण से लोकसभा सदस्य रहे लालू प्रसाद पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे। उस वक्त जनता दल के भीतर मुख्यमंत्री के लिए नीतीश ने लालू का समर्थन किया था। इसी दौरान नीतीश ने भी 1990 के दशक के मध्य में ही जनता दल और लालू से अपनी राह अलग कर ली तथा बड़े समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस के साथ समता पार्टी का गठन किया। उनकी समता पार्टी ने भाजपा के साथ गठबंधन किया और नीतीश ने एक बेहतरीन सांसद के रूप में अपनी पहचान बनाई तथा अटल बिहारी वाजपेयी के मंत्रिमंडल में बेहद ही काबिल मंत्री के तौर पर छाप छोड़ी।
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साल 2005 की शुरुआत में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा-जद (यू) गठबंधन वाला राजग कुछ सीटों के अंतर से बहुमत के आंकड़े दूर रह गया जिसके बाद राज्यपाल बूटा सिंह ने विधानसभा भंग करने की सिफारिश की जिसको लेकर विवाद भी हुआ। उस वक्त केंद्र में संप्रग की सरकार थी। इसके कुछ महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार के नेतृत्व में राजग की बिहार में पूर्ण बहुमत की सरकार बनी और यहीं से बिहार की राजनीति में तथाकथित ‘लालू युग’ के पटाक्षेप की शुरुआत हुई। सत्ता में आने के बाद नीतीश ने नए सामाजिक समीकरण बनाते हुए पिछड़े वर्ग में अति पिछड़ा और दलित में महादलित के कोटे की व्यवस्था की। इसके साथ ही उन्होंने स्कूली बच्चियों के लिए मुफ्त साइकिल और यूनीफार्म जैसे कदम उठाए और 2010 के चुनाव में उनकी अगुवाई में भाजपा-जद(यू) गठबंधन को एकतरफा जीत मिली। इसके बाद भाजपा में ‘अटल-आडवाणी युग’ खत्म हुआ और नरेन्द्र मोदी राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर आए तो नीतीश ने 2013 में भाजपा से वर्षों पुराना रिश्ता तोड़ लिया।
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वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में जद(यू) को बड़ी हार का सामना करना पड़ा और भाजपा ने बिहार से बड़ी जीत हासिल की। नीतीश ने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया। करीब एक साल के भीतर ही मांझी का बागी रुख देख नीतीश ने फिर से मुख्यमंत्री की कमान संभाली। 2015 के चुनाव में वह राजद और कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़े और इस महागठबंधन को बड़ी जीत हासिल हुई। नीतीश ने अपनी सरकार में उप मुख्यमंत्री एवं राजद नेता तेजस्वी यादव के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। हालांकि कुछ घंटों के भीतर ही भाजपा के समर्थन से एक बार फिर बिहार के मुख्यमंत्री बने। उन्हें नरेन्द्र मोदी के खिलाफ एक चुनौती के तौर पर देखने वाले लोगों ने नीतीश के इस कदम को जनादेश के साथ विश्वासघात करार दिया। हालांकि, वह बार-बार यही कहते रहे कि ‘मैं भ्रष्टाचार से समझौता कभी नहीं करूंगा।’ लेकिन मैकेनिकल इंजीनियर नीतीश कुमार को इस बार अपनी गठबंधन की सरकार चलाने के लिए पहले के मुकाबले कहीं अधिक राजनीतिक कौशल की जरूरत पड़ेगी क्योंकि आंकड़ों की बिसात पर इस बार उनकी पार्टी का पलड़ा गठबंधन सहयोगी भाजपा के मुकाबले कुछ हल्का है।
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